योऽथर्वाणं पित्तरं देवबन्धुं बृहस्पतिं नमसाव च गच्छात्।
त्वं विश्वेषां जनिता यथासः कविर्देवो न दभायत् स्वधावान्।।7।।
यः अथर्वाणम् पित्तरम् देवबन्धुम् बृहस्पतिम् नमसा अव च गच्छात् त्वम्
विश्वेषाम् जनिता यथा सः कविर्देवः न दभायत् स्वधावान्
अनुवाद:- (यः) जो (अथर्वाणम्) अचल अर्थात् अविनाशी (पित्तरम्) जगत पिता (देवबन्धुम्) भक्तों का वास्तविक साथी अर्थात् आत्मा का आधार (बृहस्पतिम्) सबसे बड़ा स्वामी ज्ञान दाता जगतगुरु (च) तथा (नमसा) विनम्र पुजारी अर्थात् विधिवत् साधक को (अव) सुरक्षा के साथ (गच्छात्) जो सतलोक जा चुके हैं उनको सतलोक ले जाने वाला (विश्वेषाम्) सर्व ब्रह्मण्डों को (जनिता) रचने वाला (न दभायत्) काल की तरह धोखा न देने वाले (स्वधावान्) स्वभाव अर्थात् गुणों वाला (यथा) ज्यों का त्यों अर्थात् वैसा ही (सः) वह (त्वम्) आप (कविर्देवः कविर्/देवः) कबीर परमेश्वर अर्थात् कविर्देव है।
भावार्थ:- जिस परमेश्वर के विषय में कहा जाता है - त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या च द्रविणम्, त्वमेव सर्वम् मम् देव देव।। वह जो अविनाशी सर्व का माता पिता तथा भाई व सखा व जगत गुरु रूप में सर्व को सत्य भक्ति प्रदान करके सतलोक ले जाने वाला, काल की तरह धोखा न देने वाला, सर्व ब्रह्मण्डों की रचना करने वाला कविर्देव (कबीर परमेश्वर) है।