कबीर सागर में 32वां अध्याय ‘‘स्वसमवेद बोध‘‘ पृष्ठ 77 पर है। जैसा कि पूर्व में लिख आया हूँ कि कबीर सागर ग्रन्थ को काल द्वारा चलाए 12 कबीर पंथों के कुछ अनुयाईयों ने अपनी बुद्धि अनुसार कबीर ज्ञान से कुछ वाणी काटी हैं, कुछ मिलाई हैं। कुछ प्रकरण कांट-छांट करके लिखे हैं। यही दशा ‘‘स्वसमवेद बोध‘‘ में की है। इस अध्याय वाला ज्ञान पहले ‘‘अनुराग सागर‘‘ में ज्ञान प्रकाश, ज्ञान बोध, मुक्ति बोध में वर्णित है। कुछ ज्ञान जो परमेश्वर कबीर जी की लीला वाला है। वह कबीर चरित्र बोध में है, उसको वहाँ लिखेंगे।
कुछ ज्ञान जो ‘‘कलयुग में सर्व सृष्टि उपदेश लेकर भक्ति करेगी, सतयुग जैसा वातावरण होगा‘‘ है, इसका विवरण पहले भी अध्याय अनुराग सागर तथा कबीर बानी में आंशिक लिखा है। यहाँ पर शब्दार्थ करके लिखूंगा।
स्वसमबेद बोध पृष्ठ 77 से 86 तक शरीरों की सँख्या बताई है। तत्त्वों तथा उनकी प्रकृति का ज्ञान है।
शरीर पाँच बताए हैं:-
जीव के ऊपर इतने सुंदर शरीर (वस्त्र) डाल रखे हैं।
स्वस्मवेद बोध पृष्ठ 86 से 90 का सारांश:- इन पृष्ठों में प्रथम दीक्षा मंत्र बताए हैं।
‘‘यथार्थ पाँच नामों का ज्ञान‘‘
1,2,3,4,5
ये पाँच नाम गायत्री मंत्र के हैं जो प्रथम दीक्षा रूप में परमेश्वर कबीर जी प्रदान करते थे जो चूड़ामणी जी को यही मंत्र परमेश्वर कबीर जी ने दिए थे तथा आगे इन्हीं को दीक्षा रूप में देने का आदेश दिया था। ये मंत्र शरीर में बने कमलों में विराजमान पाँचों देवी-देवताओं के हैं।
ये पाँच नाम हैं जो प्रथम दीक्षा रूप में परमेश्वर कबीर जी दिया करते थे। इन्हीं मंत्रों का संकेत श्री नानक देव साहेब जी ने अपनी अमृतवाणी में दिया है। एक पुस्तक जो गुरू अमर दास जी द्वारा ‘‘तेइये ताप‘‘ की कथा में लिखे हैं, बाद में इनको देवी-देवताओं के मंत्र पूजा जानकर त्याग दिया गया। यही समस्या धर्मदास जी की छठी पीढ़ी वाले के सामने टकसारी पंथ वाले (काल वाले कबीर पंथ के पाँचवें) ने पैदा करके ये वास्तविक मंत्र छुड़वा दिए थे और नकली पाँच नाम आदिनाम, अजरनाम, अमर नाम, पाताले सप्त सिंधु नाम आदि-आदि जो अध्याय ‘‘सुमरण बोध‘‘ पृष्ठ 22 पर अंकित है, दीक्षा में देने लगा।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा था कि जिस समय कलयुग का दूसरा चरण भक्ति का चलेगा, तब सात नाम का प्रथम मंत्र दिया जाया करेगा और सतनाम तथा सारनाम देकर सर्व उपदेशियों को मुक्त करेंगे। जो तेरहवां कबीर पंथ चलेगा, तब सम्पूर्ण मंत्र उपदेशी को दिए जाएंगे। अब तक मूल ज्ञान तथा मूल शब्द यानि सार शब्द छुपाकर रखना था। प्रमाण कबीर बानी अध्याय में पृष्ठ 137 पर तथा अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध‘‘ पृष्ठ 1937 पर कहा है।
धर्मदास तोहे लाख दुहाई। सार शब्द बाहर नहीं जाई।।
सार शब्द बाहर जो परि है। बिचली पीढ़ी (दूसरे चरण वाली) हंस नहीं तरि है।।
युगन-युगन तुम सेवा कीनी। ता पीछे हम इहां पग दीनी।।
कोटि जन्म भक्ति जब कीन्हा। सार शब्द तबही मैं दीन्हा।।
अंकूरी जीव होय जो कोई। सार शब्द का अधिकारी होई।।
सत्य कबीर प्रमाण बखाना। ऐसो कठिन है पद निर्वाणा।।
(यह वाणी जीव धर्म बोध पृष्ठ 1937 पर लिखा है।)
कबीर बानी अध्याय में पृष्ठ 137(983) पर:-
धर्मदास मेरी लाख दोहाई। मूल शब्द (सार शब्द) बाहर न जाई।।
पवित्र ज्ञान तुम जग में भाखो। मूल (तत्त्व) ज्ञान तुम गोई कर राखो।।
मूल ज्ञान जो बाहर परही। बिचले पीढ़ी हंस नहीं तरही।।
तेतीस अरब ज्ञान हम भाषा। मूल ज्ञान गोए हम राखा।।
मूल ज्ञान तुम तब लगि छिपाई। जब लग द्वादश पंथ मिटाई।।
उपरोक्त अमृतवाणी के प्रमाण से स्पष्ट हुआ कि मूल ज्ञान यानि तत्त्वज्ञान तथा सार शब्द अब छुपा कर रखना था। इसी पृष्ठ 137 (983) कबीर बानी में यह भी लिखा है:-
बारहवें पंथ प्रगट होव बानी। शब्द हमारे की निर्णय ठानी।।
अस्थिर घर का मर्म ना पावै। ये बारा पंथ हमीं को ध्यावैं।।
बारहे पंथ हम ही चलि आवैं। सब पंथ मिटा एक ही पंथ चलावैं।।
भावार्थ:- बारहवां पंथ संत गरीबदास जी का है। प्रमाण कबीर सागर में कबीर चरित्र बोध के पृष्ठ 1870 पर। संत गरीबदास जी का जन्म विक्रमी संवत् 1774 में सन् 1717 में) गाँव छुड़ानी में हुआ। फिर उनका पंथ चला। सन् 1988 में मुझ दास का आध्यात्मिक जन्म संत गरीबदास जी यानि बारहवें पंथ में हुआ अर्थात् स्वामी रामदेवानन्द जी गरीबदासिय (गरीबदास पंथी) संत से मुझे (रामपाल दास को) 17 फरवरी 1988 को दीक्षा प्राप्त हुई। अब तक मूल ज्ञान यानि तत्त्व ज्ञान तथा सार शब्द (मूल शब्द) छुपाकर रखना था। इससे सिद्ध है कि संत धर्मदास जी के पीढ़ी वालों के पास न तो तत्त्वज्ञान था और न सार शब्द। यह दशा सर्व कबीर पंथियों की है। अब जो नया तेरहवां पंथ चल रहा है, सर्व नाम तथा तत्त्वज्ञान सार्वजनिक किया जाएगा। सात नाम दिए जाएंगे। सात नाम तथा पाँच नामों का प्रमाण कबीर सागर में ज्ञान स्थिति बोध पृष्ठ 85 तथा पृष्ठ 86 परः-
पृष्ठ 85 पर:-
मूल शब्द गुप्त है सारा। बिरले पावैं शब्द हमारा।।
बिहंग शब्द बिहंग है बीरा। निज सो नाम ये कहै कबीरा।।
सातों नाल जो आय बिहंगा। बिहंग ताल आहि जल रंगा।।
पृष्ठ 86 पर:-
सोई सिद्ध संत है भाई। सोहं नाल चिन्ह जिन पाई।।
पाँच नाम ताही को परवाना। जो कोई साधु हृदय में आना।।
यही सप्त नाल हे सही। यही हंस नाम रिबही।।
सप्त नाल के सातों नामा। बीर बिहंग करै सब कामा।।
कबीर सागर में अनुराग सागर अध्याय में पृष्ठ 72 पर:-
पाँच शब्द कहि दल फेरा। पुरूष नाम लीन्हो तिहि बेरा।।
उपरोक्त अमृतवाणी में पाँच तथा सात नामों का संकेत है और स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 86 पर प्रकट लिखे हैं जो रं=रम् तथा रौं=रौम् हैं। ये सांकेतिक हैं।
नामों का लाभ क्या है?
पृष्ठ 87 पर स्मस्मबेद बोध में सोहं नाम के जाप का लाभ बताया हैः-
सोहं बीज को अंकुर ज्ञाना। आल बाल भक्ति मय साना।।
भावार्थ:- सोहं मंत्र का जाप पूर्ण संत से लेकर करने से आलबाल अर्थात् औली-बौली यानि अथाह भक्ति जमा होती है। पृष्ठ 89 स्वस्मबेद बोध में लिखा है कि:-
ह्रीं (हरियम्) स्थिति बीज षष्ठ होई। आल बाल तिहि माया होई।।
भावार्थ:- हरियम् नाम के जाप से आलबाल यानि अथाह धन (माया) हो जाता है। आप जी को बताया है कि परमेश्वर जी ने स्पष्ट कर रखा है कि मूल ज्ञान पहले नहीं बताया। उसमें अधूरा ज्ञान बताया है। सार नाम तथा मूल ज्ञान अब स्पष्ट किया जा रहा है।
पृष्ठ 91 स्वस्मबेद बोध पर अस्पष्ट सत्यनाम भी लिखा है:-
जाते ओहं पुरूष भये अंशा। ओहं सोहं भये द्वै अंशा।।
पृष्ठ 92 से 107 तक सृष्टि रचना का अधूरा ज्ञान है। सृष्टि रचना का सम्पूर्ण ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक ‘‘कबीर सागर का सरलार्थ‘‘ के सारांश में पृष्ठ 603 से 670 तक।
पृष्ठ 105-106 पर बताया है कि:-
जीव जिस योनि से मानव शरीर प्राप्त करता है, उसका कैसा स्वभाव होता है? इसको पहले बताया जा चुका है।
स्मसमबेद बोध पृष्ठ 108 तथा 110 पर:-
काल जाल बताया है कि काल कैसे तीनों देवताओं से अपनी सृष्टि को चलवा रहा है? यह पहले के अध्यायों में वर्णन हो चुका है।
स्वसमबेद बोध पृष्ठ 111 पर:-
‘‘तप्त शिला पर जीवों से वार्ता‘‘
{वास्तव में ज्ञानी, जोगजीत तथा सहजदास रूप में परमेश्वर कबीर जी ही आए थे। वे स्वयं ही सत्य पुरूष हैं। यदि बार-बार कहते कि मैं ही परमात्मा हूँ तो धर्मदास जी को विश्वास नहीं होता। इसलिए घुमा-फिराकर धर्मदास जी की बुद्धि अनुसार पात्र बनाकर सत्य कथा सुनाई है।}
तप्त शिला यक नाम पुकारा। सब जिव पकरि ताहि परजारा।।
तप्त शिलापर जो जिव परही। हाय हाय करि चटपट करही।।
तड़फ तड़फ जिव तहँ रहिजाही। भूनि भूनि सब यमधारिखाही।।
केते युग जीवन धरि खायौ। जारी वारि के योनि भ्रमायौ।।
जरत जीव जब कीन पुकारा। काल देत है कष्ट अपारा।।
यमको कष्ट सहो नहिं जाई। हो साहिब दुःख टारो आई।।
यहि बिधि जिव कीन पुकारा। पुरूष दयाल दया उरधारा।।
तब पुरूष ज्ञानी को टेरो। ज्ञानी सुनिये आज्ञा मेरो।।
सत्य कबीर वचन
छंद-जब देखि जीवन कहँ बिकल तब दया पुरूष जनाइया।।
दया निधी सतपुरूष साहिब तबै मोहि बोलाइया।।
कह्यौ मोहि समुझाय बहुविधि जीव जाय चितावहो।।
तुव दरशते जिव होय शीतल जाय तपत बुझावहो।।
सोरठा-आज्ञा लीनी मानि, पुरूष सिखावन शिर धरयो।।
तत्क्षण कीन पयान, शीस नाय सतपुरूषको।।
चैपाई
आयो जहाँ काल जीव सतावै। काल निरंजन जीव नचावै।।
चटक चटक करे जीव तहँ भाई। ठाढ भयो मैं तहँ पुनि जाई।।
मोहि देखि जिव कीन पुकारा। हो साहिब मोहि लेव उबारा।।
तब हम सत्य शब्द गोहरावा। पुरूष शब्द ते जीव तप्त बुझावा।।
सब जीवन मिलि अस्तुति लाई। धन्य पुरूष यह तपन बुझाई।।
यमते छोरि लेहु मोहिं स्वामी। दया करो प्रभु अंतरयामी।।
सत्यकबीर वचन-चैपाई
तब हम कहा जीव समुझाई। जोर करो तो बचन नसाई।।
जब तुम जाय धरो नर देहा। तब तुम करिहो सत्य शब्द सनेहा।।
पुरूष नाम सुमिरन सहिदानी। बीरा सार करो परमानी।।
देह धरे सत शब्द समाई। तब हंसा सतलोकहि जाई।।
देह धरे कीने जहँ आसा। अन्तकाल लीनो तहँ बासा।।
अब तोहि कष्ट भयौ जिव आनी। ताते यहि बिधि बोलो बानी।।
जब तुम देह धरो जग जाई। बिसरे पुरूष काल धरि खाई।।
जीव वचन-चैपाई
बेद को मर्म विप्र नहीं जाना। तातें काल को निराकार बखाना।।
बेद कहैं कर्ता अन्य है भाई। ताका भेद काहु नहीं पाई।।
नेति-नेति बेद पुकारें। पंडित अपना मता प्रचारें।।
कहै जीव सुन पुरूष पुराना। देह धरे बिसरों नहिं ज्ञाना।।
पुरूष जानि सुमिरौं यमराई। वेद पुरान कहैं समुझाई।।
वेद पुरान कहै मत येहा। निराकार से कीजै नेहा।।
सुर नर मुनि तैंतीस क्रोरी। बंधे सबहि निरंजन डोरी।।
ताके मत कीने हम आसा। अब हमें जानि परा यमफांसा।।
ज्ञानी वचन-चैपाई
सुनो जीव यह छल यमकेरा। यह यमफन्दा कीन घनेरा।।
छंद-कला कला अनेक कीनो जीव कारन ठाठ हो।
वेद पुरानो शास्त्रा स्मृती याते रूँध्यो बाट हो।।
आप तनधरि प्रकट ह्नै यम सिफत आपन कीन हो।
नाना रूप धरि जीव बंधन दीन हो।।
सोरठा-कला कला परचण्ड, जीव परे बस कालके।
जन्म जन्म सहै दण्ड, सत्यनाम चीन्हे बिना।।
छन यक जीवनको सुख दैऊ। जिव बँध मेटि पुरूषपहँ गैऊ।।
अथ जीवमुक्तावना हेत सत्य कबीर को संसार में आगमन कथा-चैपाई
यहि विधि काल जक्त धरि खायौ। जिव नहिं कोई मुक्तिपद पायौ।।
तीनों पुर पसरा यमजाला। सकल जीव कहँ कीन बिहाला।।
कालके जाप करतें जीव न छूटे। बहुविधि योग युक्ति में जूटे।।
बिन सत शब्द न जीव उबारा। तब समरथ अस बचन उचारा।।
सत्य पुरूष वचन-चैपाई
कैल सकल जग धरि खाई। एको जीव लोक नहिं आई।
तातै समरथ मोहि फरमाई। साँचे जीव आन मुक्ताई।।
पुरूष वचन कीने तिहि बारा। ज्ञानी बेगि जाहु संसारा।।
प्रथमहि चल्यौ जीव के काजा। पुरूष प्रताप शीस पर छाजा।।
सतयुग सत्य सुकृत मोर नाऊँ। आज्ञा पुरूष जीव बर आऊँ।।
करि परनाम तब पगधारा। पहुँच्यौ आय धर्म दरबारा।।
द्वीप झांझरी नाम बखानी। कैल पुरूष की सो रजधानी।।
पगके देत झांझरी गाजा। कैल पुरूष बैठा तहँ राजा।।
गये झाझरी द्वीप मँजारा। गर्बित काल न बुद्धि विचारा।।
मोकहँ देखि धर्म ढिग आई। महाक्रोध बोले अतुराई।।
योगजीत इहवाँ कस आवो। सो तुम हम से बचन सुनावो।।
योगजीत वचन-चैपाई
तासो कह्यौ सुनो धर्मराई। जीवकाज संसार सिधाई।।
तुम तो कष्ट जिवनको दीना। तबहि पुरूष मोहि आज्ञा कीना।।
जीव चिताय लोक ले आवो। काल कष्टते जीव छोड़ावो।।
ताते मैं संसारहि आवो। देय परवाना जीव लोक पठावो।।
अथ कालपुरूष और सत्यकबीर का युद्धवर्णन-चैपाई
काल क्रोध करि वचन उचारा। भवसागरमें राज हमारा।।
तुम कस जिव मुक्तावन आवा।। मारों तोहि अबहि भलदावा।।
काल अनंत रूप तब धारा। योगजीत कह आनि ललकारा।।
महाभयंकर रूप काल बनावा। गज स्वरूप ह्नै सम्मुख धावा।।
सत्तरयुग हम सेवा कीना। पुरूष मोहि भवसागर दीना।।
परमपुरूष सेवा वस भैऊ। राज तिहूँ पुरको मोहिं दैऊ।।
तब तुम मारि निकारा मोही। योगजीत नहिं छोडो तोही।।
अस कहि धाय सुंड फटकारा। दंतसो योगजीत पर मारा।।
योगजीत कैल ही ललकारा। गहि कर सुंड दूर तिहि डारा।।
पुरूष प्रताप सुमिर मन माहीं। मारयो सत्य शब्द से ताहीं।।
ततछन ताहि दृष्टि पर हेरा। श्याम लिलार भयौ तिहिकेरा।।
पंख घात जिमि होयै पखेरू। तैसे कैल मही (पृथ्वी) पर हेरू।।
जब फटकार कर गहे डाला। भागा काल पैंठा पाताला।।
गयौ पाताल कूर्मके आगे। योगजीत गये पीछे लागे।।
बिनती करे कूर्म से जाई। राखो कूर्म शरन हम आई।।
योगजीत मोहि मारि निकारा। जिव ले जाय पुरूष दरबारा।।
युगन युगन हम सेवा कीना। पुरूष मोहि भवसागर दीना।।
एक पायँ हम ठाढे रहेऊ। तबहि पुरूष सेवा बस भैऊ।।
तीन लोक दीना मोहि विचारी। अब कस मोकहँ मारि निकारी।।
जाय कूर्मकी शरन जो परेऊ। तब ताते दाया उर धरेऊ।।
कूर्म वचन-चैपाई
तबै कूर्म उठि बिनती लाई। को तुम आहु कहाँ ते आई।।
अपनो नाम कहो मोहि स्वामी। पुरूष अंश तुम अंतरयामी।।
योगजीत वचन-चैपाई
तब हम कहा नाम मोर ज्ञानी। योगजीत हम अंश बखानी।।
समरथ बचन ताही में आवा। काल फाँस से जीवन मुक्तावा।।
कूर्म वचन
तबै कूर्म बोले अस बानी। बिनती एक सुनो हो ज्ञानी।।
जो तुम बिनती मानो मोरा। तौ हम तुमसे करें निहोरा।।
ज्ञानी तुम बड़े महाना। बड़े क्षमा करें नादान।।
गलती कैल करी बड़भारी। याको बकसो यह अर्ज हमारी।।
छोटन को उत्पात ही भावै। बड़न की बड़ाई क्षमा करावै।।
कूर्म जबै अस बिनती ठानी। ज्ञानी कैल दोहू मुख मानी।।
फिरके कैल झांझरी आनो। ज्ञानी कैलको बचन बखानो।।
निरंजन वचन
सोरठा-तुमहुँ करो बखशीश, पुरूष जो दीनो राज मोहि।
षोडशमें तुम ईश, ज्ञानी पुरूष एक सम।।
ज्ञानी वचन-चैपाई
ज्ञानी कहै सुनो धर्मराई। जीवनकहँ मैं आन बचाई।।
पुरूष आज्ञाते मैं चलि आवों। भवसागरते जीव मुक्तावों।।
पुरूष अवाज टार यहि बारी। तौ मैं तोकहँ देब निकारी।।
निरंजन वचन-चैपाई
धर्मराय अस बिनती ठानी। मैं सेवक दुतिया न मानी।।
ज्ञानी बिनती एक हमारा। सो न करो मोर होय बिगारा।।
पूरूष मोकहँ दीनो राजू। तुमहू देव होय तब काजू।।
बिनती एक करो हो ताता। दृढ़ करि जान्यौ हमरी बाता।।
सतयुग त्रेता द्वापर माहीं। तीनों युग जिव थोरे जाही।।
चैथा युग जब कलऊ आई। तब तुव शरन जीव बहु जाई।।
जो लेवै नाम तुम्हारा। वह जाए तुम्हरे दरबारा।।
जो कोई नाम हमारा लेवै। रह काल जाल जो हमकूँ सेवै।।
जोर ना करना तारण तरणा। आपन ज्ञान दे मुक्ति करना।।
त्रेतायुग में अंश राम जावै। समन्दर पर सेत बंधावै।।
समन्दर को राम धमकावै। ताका ओवल द्वापर में पावै।।
कृष्ण मोर अंश मंदिर बनवावै। समन्दर वाक तोड़ बगावै।।
समन्दर पर सेतु बादियो दाता। जगन्नाथ मंदिर थापियो ताता।।
ऐसे वचन हरि मोहि दीजै। तब संसार गौन तुम कीजै।।
ज्ञानी वचन-चैपाई
जो तें मांगा दिन्हा तोकूं। यह चाल काल लागत है मोकूं।।
तीनों युग जीव रहें भुलाई। चैथे युग देऊँ चिताई।।
जो जीव नाम मोर लेवैं। जावें लोक तो सिर पग देवैं।।
सबै जीव नाम रस लागैं। घर-घर ज्ञान ध्यान अनुरागैं।।
निरंजन वचन-चैपाई
जाना ज्ञानी कलयुग मंझारा। जीव ना माने कहा तुम्हारा।।
कहा तुमार जीव नहिं मानै। हमरी दिशभै बाद बखानै।।
मैं दृढ़ फंदा रच्यौ बनाई। जामें जीव परा अरूझाई।।
वेद शास्त्रा सुमिरन गुन नाना। पुत्र हैं तीन देव परधाना।।
देवल देव पाषान पुजाई। तीरथ व्रत जप तप मन लाई।।
यज्ञ होम अरू नियम अचारा। और अनेक फंद हम डारा।।
जब ज्ञानी जैहो संसारा। जीव न मानै कहा तुमारा।।
ज्ञानी वचन-चैपाई
ज्ञानी कहै सुनो धर्मराई। काटो फंद जीव ले जाई।।
जेतो फंद रची तुम भारी। सत्य शब्द ले सकल बिडारी।।
जिहि जिवको हम शब्द दृढै हैं। फंद तुम्हार सबै मुक्तैहैं।।
अरे काल परपंच पसारा। तीनो युग जीवन दुख डारा।।
बिनती तोरि लीन मैं मानी। मोकहँ ठगे काल अभिमानी।।
चैथा युग जब कलऊ आई। तब हम अपनो अंश पठाई।।
काल फन्द छूटे नर लोई। सकल सृष्टि परवानिक होई।।
घर घर देखो बोध विचारा। सत्य नाम सब ठौर उचारा।।
पांच हजार पांच सौ पांचा। तब यह वचन होयगा सांचा।।
कलियुग बीत जाय जब येता। सब जिव परम पुरूष पद चेता।।
(स्वसमबेद बोध पृष्ठ 171 से वाणी)
दोहा-पांच सहंस अरू पाँच सौ पाँच, जब कलियुग बीत जाय।
महापुरूष फरमान तब, जग तारन को आय।।
हिन्दु तुर्क आदिक सबै, जेते जीव जहान। सत्य नाम की साख गहि, पावैं पद निर्बान।।
यथा सरितगण आपही, मिलैं सिन्धु में धाय। सत्य सुकृत के मध्ये तिमि, सबही पंथ समाय।।
जब लगि पूरण होय नहीं, ठीके को तिथि वार। कपट चातुरी तबहिलों, स्वसमबेद निरधार।।
सबहिं नारि नर शुद्ध तब, जब ठीके का दिन आवन्त। कपट चातुरी छोड़ि के, शरण कबीर गहंत।।
एक अनेक ह्नै गयो, पुनि अनेक हों एक। हंस चलै सतलोक सब, सत्यनाम की टेक।।
घर घर बोध विचार हो, दुर्मति दूर बहाय। कलियुग में इक होय सब, बरते सहज सुभाय।।
कहा उग्र कहा छुद्र हो, हरै सबकी भव पीर (पीड़)। सो समान समदृष्टि है, समरथ सत्य कबीर।।
उपरोक्त वाणियों का सारांश है:-
परमेश्वर कबीर जी रूपान्तर करके प्रथम कलयुग में जीवों को सूक्ष्मवेद बोध कराने आए तो पहले तो काल निरंजन ने परमात्मा से झगड़ा किया। कहा कि एक जीव भी नहीं ले जाने दूँगा। परमेश्वर की शक्ति से डरकर कूर्म के पास भाग गया। परमात्मा भी जोगजीत रूप में वहीं पहुँच गए। कूर्म ने बीच-बचाव करके जान बचाई। फिर काल के निज द्वीप (झांझरी द्वीप) में दोनों आ गए। काल निरंजन ने चापलूसी करके प्रतिज्ञा करवाकर तीन युगों (सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग) में कम जीव ले जाने और चैथे युग में जितने चाहो जीव ले जाने की अर्जी की जो परमात्मा ने स्वीकार कर ली। उसके तुरंत बाद अपनी चाल यानि छल-कपट को सार्वजनिक किया तथा कहा कि कलयुग में मैं अपने काल दूत प्रचारक भेजकर अपना अज्ञान प्रचार कर दूँगा। सब मंदिर, तीर्थों पर जाना, मूर्ति पूजा, व्रत रखना तथा देवी-देवताओं की पूजा, श्राद्ध, पितर पूजा, ऊत-भूत की पूजा और जंत्र-मंत्र पाखण्ड का ज्ञान देकर दृढ़ कर दूँगा। जब आप या आपका प्रचारक संत जाएगा, तब कोई जीव आपके ज्ञान को स्वीकार नहीं करेगा। हमारे पक्ष में होकर तुम्हारे साथ वाद-विवाद करेगा और आप एक पंथ कबीर नाम से चलाओगे। मैं 12 (द्वादश) पंथ कबीर नाम से चलाऊँगा और अनेक पंथ चलाऊँगा जो सतलोक की महिमा कहेंगे, परंतु नाम मेरे जाल में रहने वाले दान करेंगे। जिनका जाप करके मेरे लोक में ही रहे जाऐंगे। काल ने त्रेतायुग में समुद्र पर पुल तथा जगन्नाथ के मंदिर को द्वापर में रक्षा करने का वचन भी लिया था।
जब काल ने परमेश्वर कबीर जी से कहा कि मैं तेरे नाम से अनेकों पंथ चलाऊँगा, तुम्हारी बातों को कोई नहीं सुनेगा। तब परमेश्वर कबीर जी ने कहा था कि जब कलयुग 5505 (पाँच हजार पाँच सौ पाँच) वर्ष बीत जाएगा, तब मैं अपना अंश भेजूंगा, वह सर्व सृष्टि को भक्ति की प्रेरणा देकर मेरी भक्ति पर लगाएगा। उस समय मेरा (कबीर जी का) ज्ञान घर-घर में चलेगा। सर्व सृष्टि विकार रहित होकर दीक्षा लेकर कल्याण कराएगी। सत्ययुग जैसा वातावरण होगा, आपसी भाईचारा बनेगा। कोई चोर-लुटेरा, डाकू-शराबी, तम्बाकू सेवन करने वाला, माँस खाने वाला व्यक्ति नहीं होगा। माया (धन) के स्थान पर परमात्मा के धन को जोड़ने की होड़ लगेगी।
नोट:- उपरोक्त कबीर सागर की वाणियों में कुछ वाणियाँ आगे-पीछे लिखी हैं, यथार्थ ज्ञान में अध्याय ‘‘ज्ञान सागर‘‘ के सारांश में अनुराग सागर के पृष्ठ 60.67 तक के सारांश में पृष्ठ 82 से 88 तक पढ़ें।
स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 122 से 136 पर:-
चारों युगों में प्रकट होने का ज्ञान है, परंतु आधा गलत लिखा है। यथार्थ ज्ञान इसी पुस्तक के पृष्ठ 473 से 573 तक कबीर चरित्र बोध बोध के सारांश में पढ़ें।
स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 137 से 145 पर:-
कबीर परमेश्वर जी की लीलाओं का अधूरा तथा कुछ गलत ज्ञान है। यथार्थ ज्ञान पढ़ें कबीर चरित्र बोध में इसी पुस्तक कबीर सागर के पृष्ठ 473 से 573 तक।
स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 146 से 151 पर तीर्थ-व्रत करना मना है। उनसे होने वाला क्षणिक लाभ तथा जीवन व्यर्थ होना बताया है जो पहले अध्यायों में लिखा जा चुका है।
स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 152 से 153 तक धर्मदास के वंशों का वर्णन है जो कुछ ठीक अधिक गलत है। यथार्थ ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक ‘‘कबीर सागर का सरलार्थ’’ के पृष्ठ 138 से 152 तक अनुराग सागर के सारांश में।
स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 153 स्वस्मबेद बोध पर फिर स्पष्ट किया है कि जब 13वीं पीढ़ी आएगी तो वह मुक्तामणी होगा। सर्व सृष्टि में कबीर धर्म का प्रचार होगा।
जब तेरही पीढ़ी चलि आवै। मुक्तामणी तबही प्रकटावै।।
धर्म कबीर होये प्रचारा। जहाँ तहाँ सतगुरू सुयश उचारा।।
भावार्थ:- उपरोक्त वाणी में मुक्तामणि को तेरहवां महंत बताया है। वह गलत है। वास्तव में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि जब तेरहवां अंश मेरा प्रकट होगा, तब पूरे विश्व में मेरे ज्ञान का कबीर धर्म का प्रचार होगा, मेरी महिमा का प्रचार होगा।
विवेचन:- कबीर पंथियों ने कांट-छांट करके यथार्थता को समाप्त कर रखा है। फिर भी सच्चाई कहीं-कहीं से स्पष्ट हो जाती है। स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 152 पर धर्मदास की बयालीस (42) पीढ़ी वालों के नाम भी लिखे हैं। परंतु उनमें तेरहवां नाम मुक्तामणि नहीं लिखा है। वहाँ पर उदै (उदित) नाम लिखा है। इससे सिद्ध है कि पृष्ठ 153 पर लिखा कि तेरी तेरहवीं पीढ़ी में मुक्तामणि आएगा, यह गलत है। पृष्ठ 152 पर धर्मदास जी की बयालीस पीढ़ी के नाम लिखे हैं। उनमें बयालीसवीं पीढ़ी वाले का नाम मुक्तामणि लिखा है।
स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 154 पर सामान्य ज्ञान है।
स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 155 पर 12 पंथों का नाम है।
स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 156-157 पर सामान्य ज्ञान है।
स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 158 से 159 पर श्री नानक देव जी को शरण में लेने का प्रकरण है।
स्मस्मबेद बोध पृष्ठ 158 से 159 पर
अथ नानक शाह जी की कथा-चौपाई
नानकशाह कीन तप भारी। सब विधि भये ज्ञान अधिकारी।।
भक्ति भाव ताको लखियाया पाया। तापर सतगुरू कीनो दाया।।
जिंदा रूप धरयो हम जाई। जिन्दा रूप पंजाब देश चलि आई।।
अनहद बानी कियौ पुकारा। सुनिकै नानक दरश निहारा।।
सुनिके अमर लोक की बानी। जानि परा निज समरथ ज्ञानी।।
नानक वचन
आवा पुरूष महागुरू ज्ञानी। अमरलोककी सुनी न बानी।।
अर्ज सुनो प्रभु जिंदा स्वामी। कहँ अमरलोक रहा निजु धामी।।
काहु न कही अमर निजुबानी। धन्य कबीर परमगुरू ज्ञानी।।
कोई न पावै तुमरो भेदा। खोज थके ब्रह्मा चहुँ वेदा।।
जिन्दा वचन
जब नानक बहुतै तप कीना। निरंकार बहुते दिन चीन्हा।।
निरंकारते पुरूष निनारा। अजर द्वीप ताकी टकसारा।। पुरूष बिछोह भयौ तुव जबते। काल कठिन मग रोंक्यौ तबते।।
इत तुव सरिस भक्त नहिं होई। क्योंकि परपुरूष न भेटेंउ कोई।।
जबते हमते बिछुरे भाई। साठि हजार भल जन्म तुम पाई।।
धरि धरि जन्म भक्ति भलकीना। फिर काल चक्र निरंजन दीना।।
गहु मम शब्द तो उतरो पारा। बिन सतशब्द लहै यम द्वारा।।
तुम बड़ भक्त भवसागर आवा। और जीव को कौन चलावा।।
निरंकार सब सृष्टि भुलावा। तुम करि भक्ति लौटि क्यों आवा।।
नानक वचन
धन्य पुरूष तुम यह पद भाखी। यह पद अमर गुप्त कह राखी।।
जबलों हम तुमको नहिं पावा। अगम अपार भर्म फैलावा।।
कहो गोसाँई हमते ज्ञाना। परमपुरूष हम तुमको जाना।।
धनि जिंदा प्रभु पुरूष पुराना। बिरले जन तुमको पहिचाना।।
जिन्दा वचन
भये दयाल पुरूष गुरू ज्ञानी। गहो पान परवाना बानी।।
भली भई तुम हमको पावा। सकलो पंथ काल को धावा।।
तुम इतने अब भये निनारा। फेरि जन्म ना होय तुम्हारा।।
भली सुरति तुम हमको चीन्हा। अमरमंत्र हम तुमको दीन्हा।।
स्वसमवेद हम कहि निज बानी। परमपुरूष गति तुम्हैं बखानी।।
नानक वचन
धन्य पुरूष ज्ञानी करतारा। जीवकाज प्रकटे संसारा।।
धनि करता तुम बंदी छोरा। ज्ञान तुम्हार महा बल जोरा।।
दिया नाम दान गुरू किया उबारा। नानक अमरलोक पग धारा।।
इति
चौपाई
यहि विधि नानक गुरू पद गहेऊ। शिष शाखा तेहि जग में रहेऊ।।
गुरूपद तजि बहु पंथ चलाये। अन्य देवकी सेव गहाये।।
परमपुरूष पद नहिं पहिचाना। भांति अनेक बनायो बाना।।
अजहूँ गुरू की तीन निशानी। गहै कछुक गुरू की निज बानी।।
द्वितिये सत्यनाम की साका। तृतिये देखा श्वेत पताका।।
खत्री कुल नानक तन धारी। ताको सुयश गाव संसारी।।
इति
पृष्ठ 160 से केवल
‘‘अथ कबीर आचार वर्णन चौपाई‘‘:-
सत्यनाम की सेवा धारा। सुमिरण ध्यान नाम निरधारा।।
सतगुरू वर्णन प्रीति सुहाये। मूरति को नहिं शीस नवाये।।
तीरथ व्रत मूरति भ्रमजाला। सत्य भक्ति गहिये सत चाला।।
निरगुण सरगुण को तजि दीजै। सत्य पुरूष की भक्ति गहीजै।।
संत गुरू की सेवा धारे। तन मन धन अर्पण करि डारे।।
कोटिन तीर्थ गुरू के चरना। संशय शोक दोष सब हरना।।
दुखी दीन देखत दुख लागा। परमारथ पथ तन धन त्यागा।।
गृही साधु दोउ एक समाना। परमदयाल दोहू को बाना।।
मद्य मांस भष जग में जोई। महा मलीन जानिये सोई।।
परम दया सब जिव पर पालौ। अधो दृष्टि मारग में चालौ।।
हिंसा कर्म जेते जगमांही। ताके कबहूँ निकट न जाहीं।।
सब जीवन की कर रखवाली। जीव घात कहुँ बात न चाली।।
वर्षा ऋतु जब जिव अधिकारा। तब नहिं कबहुं पंथ पग धारा।।
अगम निगम बोध के पृष्ठ 44 पर नानक जी का शब्द है:-
‘‘वाह-वाह कबीर गुरू पूरा है‘‘
शब्द
वाह-वाह कबीर गुरू पूरा है।(टेक)
पूरे गुरू की मैं बली जाऊँ जाका सकल जहूरा है।
अधर दुलीचे परे गुरूवन के, शिव ब्रह्मा जहाँ शूरा है।
श्वेत ध्वजा फरकत गुरूवन की, बाजत अनहद तूरा है।
पूर्ण कबीर सकल घट दरशै, हरदम हाल हजूरा है।
नाम कबीर जपै बड़भागी, नानक चरण को धूरा है।
नानक जी का संक्षिप्त यथार्थ परिचय
आदरणीय श्री नानक साहेब जी प्रभु कबीर(धाणक) जुलाहा के साक्षी -
श्री नानक देव का जन्म विक्रमी संवत् 1526 (सन् 1469) कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को हिन्दू परिवार में श्री कालु राम मेहत्ता (खत्री) के घर माता श्रीमती तृप्ता देवी की पवित्र कोख (गर्भ) से पश्चिमी पाकिस्त्तान के जिला लाहौर के तलवंडी नामक गाँव में हुआ। इन्होंने फारसी, पंजाबी, संस्कृत भाषा पढ़ी हुई थी। श्रीमद् भगवत गीता जी को श्री बृजलाल पांडे से पढ़ा करते थे। श्री नानक देव जी के श्री चन्द तथा लखमी चन्द दो लड़के थे।
श्री नानक जी अपनी बहन नानकी की सुसराल शहर सुल्तान पुर में अपने बहनोई श्री जयराम जी की कृपा से सुल्तान पुर के नवाब के यहाँ मोदी खाने की नौकरी किया करते थे। प्रभु में असीम प्रेम था क्योंकि यह पुण्यात्मा युगों-युगों से पवित्र भक्ति ब्रह्म भगवान(काल) की करते हुए आ रहे थे। सत्ययुग में यही नानक जी राजा अम्ब्रीष थे तथा ब्रह्म भक्ति विष्णु जी को इष्ट मानकर किया करते थे। दुर्वासा जैसे महान तपस्वी भी इनके दरबार में हार मानकर क्षमा याचना करके गए थे। त्रेता युग में श्री नानक जी की आत्मा राजा जनक विदेही बने। जो सीता जी के पिता कहलाए। उस समय सुखदेव ऋषि जो महर्षि वेदव्यास के पुत्र थे जो अपनी सिद्धि से आकाश में उड़ जाते थे। परन्तु गुरु से उपदेश नहीं ले रखा था। जब सुखदेव विष्णुलोक के स्वर्ग में गए तो गुरु न होने के कारण वापिस आना पड़ा। विष्णु जी के आदेश से राजा जनक को गुरु बनाया तब स्वर्ग में स्थान प्राप्त हुआ। फिर कलियुग में यही राजा जनक की आत्मा एक हिन्दु परिवार में श्री कालुराम महत्ता (खत्री) के घर उत्पन्न हुए तथा श्री नानक नाम रखा गया।
बाबा नानक देव जी प्रातःकाल प्रतिदिन सुल्तानपुर के पास बह रही बेई दरिया में स्नान करने जाया करते थे तथा घण्टों प्रभु चिन्तन में बैठे रहते थे।
एक दिन एक जिन्दा फकीर बेई दरिया पर मिले तथा नानक जी से कहा कि आप बहुत अच्छे प्रभु भक्त नजर आते हो। कृप्या मुझे भी भक्ति मार्ग बताने की कृपा करें। मैं बहुत भटक लिया हूँ। मेरा संशय समाप्त नहीं हो पाया है।
श्री नानक जी ने पूछा कि आप कहाँ से आए हो? आपका क्या नाम है? क्या आपने कोई गुरु धारण किया है?
तब जिन्दा फकीर का रूप धारण किए कबीर जी ने कहा मेरा नाम कबीर है, बनारस (काशी) से आया हूँ। जुलाहे का काम करता हूँं। मैंने पंडित रामानन्द स्वामी जी से उपदेश ले रखा है।
श्री नानक जी ने बन्दी छोड़ कबीर जी को एक जिज्ञासु जानकर भक्ति मार्ग बताना प्रारम्भ किया:-
श्री नानक जी ने कहा हे जिन्दा! गीता में लिखा है कि एक ‘ओ3म’ मंत्र का जाप करो। सतगुण श्री विष्णु जी (जो श्री कृष्ण रूप में अवतरित हुए थे) ही पूर्ण परमात्मा है। स्वर्ग प्राप्ति का एक मात्र साधारण-मार्ग है। गुरु के बिना मोक्ष नहीं, निराकार ब्रह्म की एक ‘ओम् ’मंत्र की साधना से स्वर्ग प्राप्ति होती है।
जिन्दा रूप में कबीर परमेश्वर ने कहा गुरु किसे बनाऊँ? कोई पूरा गुरु मिल ही नहीं रहा जो संशय समाप्त करके मन को भक्ति में लगा सके।
स्वामी रामानन्द जी मेरे गुरु हैं परन्तु उनसे मेरा संशय निवारण नहीं हो पाया है (यहाँ पर कबीर परमेश्वर अपने आप को छुपा कर लीला करते हुए कह रहे हैं तथा साथ में यह उद्देश्य है कि इस प्रकार श्री नानक जी को समझाया जा सकता है।)।
श्री नानक जी ने कहा मुझे गुरु बनाओ, आपका कल्याण निश्चित है।
जिन्दा महात्मा के रूप में कबीर परमेश्वर ने कहा कि मैं आपको गुरु धारण करता हूँ, परन्तु मेरे कुछ प्रश्न हैं, उनका आपसे समाधान चाहूँगा। श्री नानक जी बोले - पूछो।
जिन्दा महात्मा के रूप में कबीर परमेश्वर ने कहा हे गुरु नानक जी! आपने बताया कि तीन लोक के प्रभु (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) है। त्रिगुण माया सृष्टि, स्थिति तथा संहार करती है। श्री कृष्ण जी ही श्री विष्णु रूप में स्वयं आए थे, जो सर्वेश्वर, अविनाशी, सर्व लोकों के धारण व पोषण कर्ता हैं। यह सर्व के पूज्य हैं तथा सृष्टि रचनहार भी यही हैं। इनसे ऊपर कोई प्रभु नहीं है। इनके माता-पिता नहीं है, ये तो अजन्मा हैं। श्री कृष्ण ने ही गीता ज्ञान दिया है(यह ज्ञान श्री नानक जी ने श्री बृजलाल पाण्डे से सुना था, जो उन्हें गीता जी पढ़ाया करते थे)। परन्तु गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! मैं तथा तू पहले भी थे तथा यह सर्व सैनिक भी थे, हम सब आगे भी उत्पन्न होंगे। तेरे तथा मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता मैं जानता हूँ। इससे तो सिद्ध है कि गीता ज्ञान दाता भी नाशवान है, अविनाशी नहीं है। गीता अध्याय 7 श्लोक 15 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि जो त्रिगुण माया (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी) के द्वारा मिलने वाले क्षणिक लाभ के कारण इन्हीं की पूजा करके अपना कल्याण मानते हैं, इनसे ऊपर किसी शक्ति को नहीं मानते अर्थात् जिनकी बुद्धि इन्हीं तीन प्रभुओं (त्रिगुणमयी माया) तक सीमित है वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म करने वाले, मूर्ख मुझे भी नहीं पूजते। इससे तो सिद्ध हुआ कि श्री विष्णु (सतगुण) आदि पूजा के योग्य नहीं है तथा अपनी साधना के विषय में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में कहा है कि मेरी (गति) पूजा भी (अनुत्तमाम्) अति घटिया है। इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4, अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम सतलोक चला जाएगा। जहाँ जाने के पश्चात् साधक का जन्म-मृत्यु का चक्र सदा के लिए छूट जाएगा। वह साधक फिर लौट कर संसार में नहीं आता अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। उस परमात्मा के विषय में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि मैं नहीं जानता। उसके विषय में पूर्ण (तत्त्व) ज्ञान तत्त्वदर्शी संतों से पूछो। जैसे वे कहें वैसे साधना करो। प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में। श्री नानक जी से परमेश्वर कबीर साहेब जी ने कहा कि क्या वह तत्त्वदर्शी संत आपको मिला है जो पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि बताएगा ? श्री नानक जी ने कहा नहीं मिला। परमेश्वर कबीर जी ने कहा जो भक्ति आप कर रहे हो यह तो पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है। उस पूर्ण परमात्मा के विषय में पूर्ण ज्ञान रखने वाला मैं ही वह तत्त्वदर्शी संत हूँ। बनारस (काशी) में धाणक (जुलाहे) का कार्य करता हूँ। गीता ज्ञान दाता प्रभु स्वयं को नाशवान कह रहा है, जब स्वर्ग तथा महास्वर्ग (ब्रह्मलोक) भी नहीं रहेगा तो साधक का क्या होगा ? जैसे आप ने बताया कि श्रीमद् भगवत गीता में लिखा है कि ओ3म मंत्र के जाप से स्वर्ग प्राप्ति हो जाती है। वहाँ स्वर्ग में साधक जन कितने दिन रह सकते हैं?
श्री नानक जी ने उत्तर दिया जितना भजन तथा दान के आधार पर उनका स्वर्ग का समय निर्धारित होगा उतने दिन स्वर्ग में आनन्द से रह सकते हैं।
उत्तर (नानक जी का) - फिर इस मृत लोक में आना होता है तथा कर्माधार पर अन्य योनियाँ भी भोगनी पड़ती हैं।
उत्तर (श्री नानक जी का) - नहीं, गीता में कहा है अर्जुन तेरे मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं और आगे भी होंगे अर्थात् जन्म-मरण बना रहेगा(गीता अध्याय 2 श्लोक 12 तथा अध्याय 4 श्लोक 5)। शुभ कर्म ज्यादा करने से स्वर्ग का समय अधिक हो जाता है।
गीता अध्याय न. 8 के श्लोक न. 16 में लिखा है कि ब्रह्मलोक से लेकर सर्वलोक नाशवान हैं। उस समय कहाँ रहोगे? जब न पृथ्वी रहेगी, न श्री विष्णु रहेगा, न विष्णुलोक, न स्वर्ग लोक तथा पूरे ब्रह्मण्ड का विनाश होगा। इसलिए गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि किसी तत्त्वदर्शी संत की खोज कर, फिर जैसे उस पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति की विधि वह संत बताए उसके अनुसार साधना कर। उसके पश्चात् उस परम पद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए, जहाँ पर जाने के पश्चात् साधक का फिर जन्म-मृत्यु कभी नहीं होता अर्थात् फिर लौट कर संसार में नहीं आते। जिस परमेश्वर से सर्व ब्रह्मण्डों की उत्पत्ति हुई है। मैं (गीता ज्ञान दाता) भी उसी पूर्ण परमात्मा की शरण में हूँ (गीता अध्याय 4 श्लोक 34, अध्याय 15 श्लोक 4) इसलिए कहा है कि अर्जुन सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सतलोक स्थान अर्थात् सच्चखण्ड में चला जाएगा (गीता अध्याय 18 श्लोक 62)। उस पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का ओम-तत्-सत् केवल यही मंत्र है (गीता अध्याय 17 श्लोक 23)।
उत्तर नानक जी का - इसके बारे में मुझे ज्ञान नहीं।
जिन्दा फकीर (कबीर साहेब) ने श्री नानक जी को बताया कि यह सर्व काल की कला है।
गीता अध्याय न. 11 के श्लोक न. 32 में स्वयं गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि मैं काल हूँ और सभी को खाने के लिए आया हूँ। वही निरंकार कहलाता है। उसी काल का ओंकार (ओम्) मंत्र है।
गीता अध्याय न. 11 के श्लोक न. 21 में अर्जुन ने कहा है कि आप तो ऋषियों को भी खा रहे हो, देवताओं को भी खा रहे हो जो आपका ही स्मरण स्तुति वेद विधि अनुसार कर रहे हैं। इस प्रकार काल वश सर्व साधक साधना करके उसी के मुख में प्रवेश करते रहते हैं।
आपने इसी काल (ब्रह्म) की साधना करते करते असंख्यों युग हो गए। साठ हजार जन्म तो आपके महर्षि तथा महान भक्त रूप में हो चुके हैं। फिर भी काल के लोक में जन्म-मृत्यु के चक्र में ही रहे हो।
सर्व सृष्टि रचना सुनाई तथा श्री ब्रह्मा (रजगुण), श्री विष्णु (सतगुण) तथा श्री शिव (तमगुण) की स्थिति बताई। श्री देवी महापुराण तीसरा स्कंद (पृष्ठ 123, गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित, मोटा टाईप) में स्वयं विष्णु जी ने कहा है कि मैं (विष्णु) तथा ब्रह्मा व शिव तो नाशवान हैं, अविनाशी नहीं हैं। हमारा तो आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) होता है। आप (दुर्गा/अष्टांगी) हमारी माता हो। दुर्गा ने बताया कि ब्रह्म (ज्योति निरंजन) आपका पिता है। श्री शंकर जी ने स्वीकार किया कि मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर भी आपका पुत्र हूँ तथा ब्रह्मा भी आपका बेटा है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे नानक जी! आप इन्हें अविनाशी, अजन्मा, इनके कोई माता-पिता नहीं हैं आदि उपमा दे रहे हो। यह दोष आप का नहीं है। यह दोष दोनों धर्मों (हिन्दू तथा मुसलमान) के ज्ञानहीन गुरुओं का है जो अपने-अपने धर्म के सद्ग्रन्थों को ठीक से न समझ कर अपनी-अपनी अटकल से दंत कथा (लोकवेद) सुना कर वास्तविक भक्ति मार्ग के विपरीत शास्त्र विधि रहित मनमाना आचरण (पूजा) का ज्ञान दे रहे हैं। दोनों ही पवित्र धर्मों के पवित्र शास्त्र एक पूर्ण प्रभु का(मेरा) ही ज्ञान करा रहे हैं। र्कुआन शरीफ में सूरत फुर्कानि 25 आयत 52 से 59 में भी मुझ कबीर का वर्णन है।
श्री नानक जी ने कहा कि यह तो आज तक किसी ने नहीं बताया। इसलिए मन स्वीकार नहीं कर रहा है। तब जिन्दा फकीर जी (कबीर साहेब जी) श्री नानक जी की अरूचि देखकर चले गए। उपस्थित व्यक्तियों ने श्री नानक जी से पूछा यह भक्त कौन था जो आप को गुरुदेव कह रहा था? नानक जी ने कहा यह काशी में रहता है, नीच जाति का जुलाहा (धाणक) कबीर था। बेतुकी बातें कर रहा था। कह रहा था कि कृष्ण जी तो काल के चक्र में है तथा मुझे भी कह रहा था कि आपकी साधना ठीक नहीं है। तब मैंने बताना शुरू किया तब हार मान कर चला गया। {इस वार्ता से सिक्खों ने श्री नानक जी को परमेश्वर कबीर साहेब जी का गुरु मान लिया।}
श्री नानक जी प्रथम वार्ता पूज्य कबीर परमेश्वर के साथ करने के पश्चात् यह तो जान गए थे कि मेरा ज्ञान पूर्ण नहीं है तथा गीता जी का ज्ञान भी उससे कुछ भिन्न ही है जो आज तक हमें बताया गया था। इसलिए हृदय से प्रतिदिन प्रार्थना करते थे कि वही संत एक बार फिर आए। मैं उससे कोई वाद-विवाद नहीं करूंगा, कुछ प्रश्नों का उत्तर अवश्य चाहूँगा। परमेश्वर कबीर जी तो अन्तर्यामी हैं तथा आत्मा के आधार व आत्मा के वास्तविक पिता हैं, अपनी प्यारी आत्माओं को ढूंढते रहते हैं। कुछ समय के उपरान्त जिन्दा फकीर रूप में कबीर जी ने उसी बेई नदी के किनारे पहुँच कर श्री नानक जी को राम-राम कहा। उस समय श्री नानक जी कपड़े उतार कर स्नान के लिए तैयार थे। जिन्दा महात्मा केवल श्री नानक जी को दिखाई दे रहे थे अन्य को नहीं। श्री नानक जी से वार्ता करने लगे। कबीर जी ने कहा कि आप मेरी बात पर विश्वास करो। एक पूर्ण परमात्मा है तथा उसका सतलोक स्थान है जहाँ की भक्ति करने से जीव सदा के लिए जन्म-मरण से छूट सकता है। उस स्थान तथा उस परमात्मा की प्राप्ति की साधना का केवल मुझे ही पता है अन्य को नहीं तथा गीता अध्याय न. 18 के श्लोक न. 62, अध्याय 15 श्लोक 4 में भी उस परमात्मा तथा स्थान के विषय में वर्णन है।
पूर्ण परमात्मा गुप्त है उसकी शरण में जाने से उसी की कृपा से तू (शाश्वतम्) अविनाशी अर्थात् सत्य (स्थानम्) लोक को प्राप्त होगा। गीता ज्ञान दाता प्रभु भी कह रहा है कि मैं भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर नारायण की शरण में हूँ। श्री नानक जी ने कहा कि मैं आपकी एक परीक्षा लेना चाहता हूँ। मैं इस दरिया में छिपुंगा और आप मुझे ढूंढ़ना। यदि आप मुझे ढूंढ दोगे तो मैं आपकी बात पर विश्वास कर लूँगा। यह कह कर श्री नानक जी ने बेई नदी में डुबकी लगाई तथा मछली का रूप धारण कर लिया। जिन्दा फकीर (कबीर पूर्ण परमेश्वर) ने उस मछली को पकड़ कर जिधर से पानी आ रहा था उस ओर लगभग तीन किलो मीटर दूर ले गए तथा श्री नानक जी बना दिया।
(प्रमाण श्री गुरु ग्रन्थ साहेब सीरी रागु महला पहला, घर 4 पृष्ठ 25) -
तू दरीया दाना बीना, मैं मछली कैसे अन्त लहा।
जह-जह देखा तह-तह तू है, तुझसे निकस फूट मरा।
न जाना मेऊ न जाना जाली। जा दुःख लागै ता तुझै समाली।1।रहाऊ।।
नानक जी ने कहा कि मैं मछली बन गया था, आपने कैसे ढूंढ लिया? हे परमेश्वर! आपतो दरिया के अंदर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म वस्तु को जानने वाले हो। मुझे तो जाल डालने वाले(जाली) ने भी नहीं जाना तथा गोताखोर(मेऊ) ने भी नहीं जाना अर्थात् नहीं जान सका। जबसे आप के सतलोक से निकल कर अर्थात् आप से बिछुड़ कर आए हैं तब से कष्ट पर कष्ट उठा रहा हूँ। जब दुःख आता है तो आपको ही याद करता हूँ, मेरे कष्टों का निवारण आप ही करते हो? (उपरोक्त वार्ता बाद में काशी में प्रभु के दर्शन करके हुई थी)।
तब नानक जी ने कहा कि अब मैं आपकी सर्व वार्ता सुनने को तैयार हूँ।
कबीर परमेश्वर ने वही सृष्टि रचना पुनः सुनाई तथा कहा कि मैं पूर्ण परमात्मा हूँ मेरा स्थान सच्चखण्ड (सत्यलोक) है। आप मेरी आत्मा हो। काल (ब्रह्म) आप सर्व आत्माओं को भ्रमित ज्ञान से विचलित करता है तथा नाना प्रकार से प्राणियों के शरीर में बहुत परेशान कर रहा है। मैं आपको सच्चानाम (सत्यनाम/वास्तविक मंत्र जाप) दूँगा जो किसी शास्त्र में नहीं है। जिसे काल (ब्रह्म) ने गुप्त कर रखा है।
श्री नानक जी ने कहा कि मैं अपनी आँखों अकाल पुरूष तथा सच्चखण्ड को देखूँ तब आपकी बात को सत्य मानूँ। तब कबीर साहेब जी श्री नानक जी की पुण्यात्मा को सत्यलोक ले गए। सचखण्ड में श्री नानक जी ने देखा कि एक असीम तेजोमय मानव सदृश शरीर युक्त प्रभु तख्त पर बैठे थे। अपने ही दूसरे स्वरूप पर कबीर साहेब जिन्दा महात्मा के रूप में चंवर करने लगे। तब श्री नानक जी ने सोचा कि अकाल मूर्त तो यह रब है जो गद्दी पर बैठा है। कबीर तो यहाँ का सेवक होगा। उसी समय जिन्दा रूप में परमेश्वर कबीर साहेब उस गद्दी पर विराजमान हो गए तथा जो तेजोमय शरीर युक्त प्रभु का दूसरा रूप था वह खड़ा होकर तख्त पर बैठे जिन्दा वाले रूप पर चंवर करने लगा। फिर वह तेजोमय रूप नीचे से गये जिन्दा (कबीर) रूप में समा गया तथा गद्दी पर अकेले कबीर परमेश्वर जिन्दा रूप में बैठे थे और चंवर अपने आप ढुरने लगा। तब नानक जी ने कहा कि वाहे गुरु, सत्यनाम से प्राप्ति तेरी। इस प्रक्रिया में तीन दिन लग गए। नानक जी की आत्मा को साहेब कबीर जी ने वापस शरीर में प्रवेश कर दिया। तीसरे दिन श्री नानक जी होश में आऐ।
उधर श्री जयराम जी ने (जो श्री नानक जी का बहनोई था) श्री नानक जी को दरिया में डूबा जान कर दूर तक गोताखोरों से तथा जाल डलवा कर खोज करवाई। परन्तु कोशिश निष्फल रही और मान लिया कि श्री नानक जी दरिया के अथाह वेग में बह कर मिट्टी के नीचे दब गए। तीसरे दिन जब नानक जी उसी नदी के किनारे सुबह-सुबह दिखाई दिए तो बहुत व्यक्ति एकत्रित हो गए, बहन नानकी तथा बहनोई श्री जयराम भी दौड़े गए, खुशी का ठिकाना नहीं रहा तथा घर ले आए।
श्री नानक जी अपनी नौकरी पर चले गए। मोदी खाने का दरवाजा खोल दिया तथा कहा जिसको जितना चाहिए, ले जाओ। पूरा खजाना लुटा कर शमशान घाट पर बैठ गए। जब नवाब को पता चला कि श्री नानक खजाना समाप्त करके शमशान घाट पर बैठा है। तब नवाब ने श्री जयराम की उपस्थिति में खजाने का हिसाब करवाया तो सात सौ साठ रूपये अधिक मिले। नवाब ने क्षमा याचना की तथा कहा कि नानक जी आप सात सौ साठ रूपये जो आपके सरकार की ओर अधिक हैं ले लो तथा फिर नौकरी पर आ जाओ। तब श्री नानक जी ने कहा कि अब सच्ची सरकार की नौकरी करूँगा। उस पूर्ण परमात्मा के आदेशानुसार अपना जीवन सफल करूँगा। वह पूर्ण परमात्मा है जो मुझे बेई नदी पर मिला था।
नवाब ने पूछा वह पूर्ण परमात्मा कहाँ रहता है तथा यह आदेश आपको कब हुआ?
श्री नानक जी ने कहा वह सच्चखण्ड में रहता हेै। बेई नदी के किनारे से मुझे स्वयं आकर वही पूर्ण परमात्मा सचखण्ड (सत्यलोक) लेकर गया था। वह इस पृथ्वी पर भी आकार में आया हुआ है। उसकी खोज करके अपना आत्म कल्याण करवाऊँगा। उस दिन के बाद श्री नानक जी घर त्याग कर पूर्ण परमात्मा की खोज पृथ्वी पर करने के लिए चल पड़े।
श्री नानक जी सतनाम तथा वाहिगुरु की रटना लगाते हुए बनारस पहुँचे। इसीलिए अब पवित्र सिक्ख समाज के श्रद्धालु केवल सत्यनाम श्री वाहिगुरु कहते रहते हैं। सत्यनाम क्या है तथा वाहिगुरु कौन है यह मालूम नहीं है। जबकि सत्यनाम(सच्चानाम) गुरु ग्रन्थ साहेब में लिखा है, जो अन्य मंत्र है।
जैसा कि कबीर साहेब ने बताया था कि मैं बनारस (काशी) में रहता हूँ। धाणक (जुलाहे) का कार्य करता हूँ। मेरे गुरु जी काशी में सर्व प्रसिद्ध पंडित रामानन्द जी हैं। इस बात को आधार रखकर श्री नानक जी ने संसार से उदास होकर पहली उदासी यात्रा बनारस (काशी) के लिए प्रारम्भ की (प्रमाण के लिए देखें ‘‘जीवन दस गुरु साहिब‘‘ (लेखक:- सोढ़ी तेजा सिंह जी, प्रकाशक=चतर सिंघ, जीवन सिंघ) पृष्ठ न. 50 पर।)।
परमेश्वर कबीर साहेब जी स्वामी रामानन्द जी के आश्रम में प्रतिदिन जाया करते थे। जिस दिन श्री नानक जी ने काशी पहुँचना था उससे पहले दिन कबीर साहेब ने अपने पूज्य गुरुदेव रामानन्द जी से कहा कि स्वामी जी कल मैं आश्रम में नहीं आ पाऊँगा। क्योंकि कपड़ा बुनने का कार्य अधिक है। कल सारा दिन लगा कर कार्य निपटा कर फिर आपके दर्शन करने आऊँगा।
काशी(बनारस) में जाकर श्री नानक जी ने पूछा कोई रामानन्द जी महाराज है। सबने कहा वे आज के दिन सर्व ज्ञान सम्पन्न ऋषि हैं। उनका आश्रम पंचगंगा घाट के पास है। श्री नानक जी ने श्री रामानन्द जी से वार्ता की तथा सच्चखण्ड का वर्णन शुरू किया। तब श्री रामानन्द स्वामी ने कहा यह पहले मुझे किसी शास्त्र में नहीं मिला परन्तु अब मैं आँखों देख चुका हूँ, क्योंकि वही परमेश्वर स्वयं कबीर नाम से आया हुआ है तथा मर्यादा बनाए रखने के लिए मुझे गुरु कहता है परन्तु मेरे लिए प्राण प्रिय प्रभु है। पूर्ण विवरण चाहिए तो मेरे व्यवहारिक शिष्य परन्तु वास्तविक गुरु कबीर से पूछो, वही आपकी शंका का निवारण कर सकता है।
श्री नानक जी ने पूछा कि कहाँ हैं (परमेश्वर स्वरूप) कबीर साहेब जी ? मुझे शीघ्र मिलवा दो। तब श्री रामानन्द जी ने एक सेवक को श्री नानक जी के साथ कबीर साहेब जी की झोपड़ी पर भेजा। उस सेवक से भी सच्चखण्ड के विषय में वार्ता करते हुए श्री नानक जी चले तो उस कबीर साहेब के सेवक ने भी सच्चखण्ड व सृष्टि रचना जो परमेश्वर कबीर साहेब जी से सुन रखी थी सुनाई। तब श्री नानक जी ने आश्चर्य हुआ कि मेरे से तो कबीर साहेब के चाकर (सेवक) भी अधिक ज्ञान रखते हैं। इसीलिए गुरुग्रन्थ साहेब पृष्ठ 721 पर अपनी अमृतवाणी महला 1 में श्री नानक जी ने कहा है कि -
“हक्का कबीर करीम तू, बेएब परवरदीगार। नानक बुगोयद जनु तुरा, तेरे चाकरां पाखाक”
जिसका भावार्थ है कि हे कबीर परमेश्वर जी मैं नानक कह रहा हूँ कि मेरा उद्धार हो गया, मैं तो आपके सेवकों के चरणों की धूर तुल्य हूँ।
गुरू ग्रन्थ साहेब के पृष्ठ 731 पर कहा है कि:-
नीच जाति प्रदेशी मेरा, खिन आवै तिल जावै। जाकि संगत नानक रहेंदा, क्यूंकर मौंडा पावै।।
जब नानक जी ने देखा यह धाणक (जुलाहा) वही परमेश्वर है जिसके दर्शन सत्यलोक (सच्चखण्ड) में किए तथा बेई नदी पर हुए थे। वहाँ यह जिन्दा महात्मा के वेश में थे यहाँ धाणक (जुलाहे) के वेश में हैं। यह स्थान अनुसार अपना वेश बदल लेते हैं परन्तु स्वरूप (चेहरा) तो वही है। वही मोहिनी सूरत जो सच्चखण्ड में भी विराजमान था। वही करतार आज धाणक रूप में बैठा है। श्री नानक जी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। आँखों में आँसू भर गए।
तब श्री नानक जी अपने सच्चे स्वामी अकाल मूर्ति को पाकर चरणों में गिरकर सत्यनाम (सच्चानाम) प्राप्त किया। तब शान्ति पाई तथा अपने प्रभु की महिमा देश विदेश में गाई।
पहले श्री नानकदेव जी एक ओंकार(ओम) मन्त्र का जाप करते थे तथा उसी को सत मान कर कहा करते थे एक ओंकार। उन्हें बेई नदी पर कबीर साहेब ने दर्शन दे कर सतलोक(सच्चखण्ड) दिखाया तथा अपने सतपुरुष रूप को दिखाया। जब सतनाम का जाप दिया तब नानक जी की काल लोक से मुक्ति हुई। नानक जी ने कहा कि:
इसी का प्रमाण गुरु ग्रन्थ साहिब के राग ‘‘सिरी‘‘ महला 1 पृष्ठ नं. 24 पर शब्द नं. 29
शब्द - एक सुआन दुई सुआनी नाल, भलके भौंकही सदा बिआल
कुड़ छुरा मुठा मुरदार, धाणक रूप रहा करतार।।1।।
मै पति की पंदि न करनी की कार। उह बिगड़ै रूप रहा बिकराल।।
तेरा एक नाम तारे संसार, मैं ऐहो आस एहो आधार।
मुख निंदा आखा दिन रात, पर घर जोही नीच मनाति।।
काम क्रोध तन वसह चंडाल, धाणक रूप रहा करतार।।2।।
फाही सुरत मलूकी वेस, उह ठगवाड़ा ठगी देस।।
खरा सिआणां बहुता भार, धाणक रूप रहा करतार।।3।।
मैं कीता न जाता हरामखोर, उह किआ मुह देसा दुष्ट चोर।
नानक नीच कह बिचार, धाणक रूप रहा करतार।।4।।
इसमें स्पष्ट लिखा है कि एक(मन रूपी) कुत्ता तथा इसके साथ दो (आशा-तृष्णा रूपी) कुतिया अनावश्यक भौंकती(उमंग उठती) रहती हैं तथा सदा नई-नई आशाएँ उत्पन्न(ब्याती हैं) होती हैं। इनको मारने का तरीका(जो सत्यनाम तथा तत्त्व ज्ञान बिना) झूठा(कुड़) साधन(मुठ मुरदार) था। मुझे धाणक के रूप में हक्का कबीर (सत कबीर) परमात्मा मिला। उन्होनें मुझे वास्तविक उपासना बताई। नानक जी ने कहा कि उस परमेश्वर(कबीर साहेब) की साधना बिना न तो पति(साख) रहनी थी और न ही कोई अच्छी करनी(भक्ति की कमाई) बन रही थी। जिससे काल का भयंकर रूप जो अब महसूस हुआ है उससे केवल कबीर साहेब तेरा एक(सत्यनाम) नाम पूर्ण संसार को पार(काल लोक से निकाल सकता है) कर सकता है। मुझे(नानक जी कहते हैं) भी एही एक तेरे नाम की आश है व यही नाम मेरा आधार है। पहले अनजाने में बहुत निंदा भी की होगी क्योंकि काम क्रोध इस तन में चंडाल रहते हैं। मुझे धाणक(जुलाहे का कार्य करने वाले कबीर साहेब) रूपी भगवान ने आकर सतमार्ग बताया तथा काल से छुटवाया। जिसकी सुरति(स्वरूप) बहुत प्यारी है मन को फंसाने वाली अर्थात् मन मोहिनी है तथा सुन्दर वेश-भूषा में(जिन्दा रूप में) मुझे मिले उसको कोई नहीं पहचान सकता। जिसने काल को भी ठग लिया अर्थात् दिखाई देता है धाणक(जुलाहा) फिर बन गया जिन्दा। काल भगवान भी भ्रम में पड़ गया भगवान(पूर्णब्रह्म) नहीं हो सकता। इसी प्रकार परमेश्वर कबीर साहेब अपना वास्तविक अस्तित्व छुपा कर एक सेवक बन कर आते हैं। काल या आम व्यक्ति पहचान नहीं सकता। इसलिए नानक जी ने उसे प्यार में ठगवाड़ा कहा है और साथ में कहा है कि वह धाणक(जुलाहा कबीर) बहुत समझदार है। दिखाई देता है कुछ परन्तु है बहुत महिमा(बहुता भार) वाला जो धाणक जुलाहा रूप में स्वयं परमात्मा पूर्ण ब्रह्म(सतपुरुष) आया है। प्रत्येक जीव को आधीनी समझाने के लिए अपनी भूल को स्वीकार करते हुए कि मैंने(नानक जी ने) पूर्णब्रह्म के साथ बहस(वाद-विवाद) की तथा उन्होनें (कबीर साहेब ने) अपने आपको भी (एक लीला करके) सेवक रूप में दर्शन दे कर तथा(नानक जी को) मुझको स्वामी नाम से सम्बोधित किया। इसलिए उनकी महानता तथा अपनी नादानी का पश्चाताप करते हुए श्री नानक जी ने कहा कि मैं(नानक जी) कुछ करने कराने योग्य नहीं था। फिर भी अपनी साधना को उत्तम मान कर भगवान से सम्मुख हुआ(ज्ञान संवाद किया)। मेरे जैसा नीच दुष्ट, हरामखोर कौन हो सकता है जो अपने मालिक पूर्ण परमात्मा धाणक रूप(जुलाहा रूप में आए करतार कबीर साहेब) को नहीं पहचान पाया? श्री नानक जी कहते हैं कि यह सब मैं पूर्ण सोच समझ से कह रहा हूँ कि परमात्मा यही धाणक (जुलाहा कबीर) रूप में है।
भावार्थ:- श्री नानक साहेब जी कह रहे हैं कि यह फाँसने वाली अर्थात् मनमोहिनी शक्ल सूरत में तथा जिस देश में जाता है वैसा ही वेश बना लेता है, जैसे जिंदा महात्मा रूप में बेई नदी पर मिले, सतलोक में पूर्ण परमात्मा वाले वेश में तथा यहाँ उतर प्रदेश में धाणक(जुलाहे) रूप में स्वयं करतार (पूर्ण प्रभु) विराजमान है। आपसी वार्ता के दौरान हुई नोंक-झोंक को याद करके क्षमा याचना करते हुए अधिक भाव से कह रहे हैं कि मैं अपने सत्भाव से कह रहा हूँ कि यही धाणक(जुलाहे) रूप में सत्पुरुष अर्थात् अकाल मूर्त ही है।
दूसरा प्रमाण:- नीचे प्रमाण है जिसमें कबीर परमेश्वर का नाम स्पष्ट लिखा है। श्री गु.ग्र.पृष्ठ नं. 721 राग तिलंग महला पहला में है।
और अधिक प्रमाण के लिए प्रस्तुत है ‘‘राग तिलंग महला 1‘‘ पंजाबी गुरु ग्रन्थ साहेब पृष्ठ नं. 721
यक अर्ज गुफतम पेश तो दर गोश कुन करतार। हक्का कबीर करीम तू बेएब परवरदिगार।।
दूनियाँ मुकामे फानी तहकीक दिलदानी। मम सर मुई अजराईल गिरफ्त दिल हेच न दानी।।
जन पिसर पदर बिरादराँ कस नेस्त दस्तं गीर। आखिर बयफ्तम कस नदारद चूँ शब्द तकबीर।।
शबरोज गशतम दरहवा करदेम बदी ख्याल। गाहे न नेकी कार करदम मम ई चिनी अहवाल।।
बदबख्त हम चु बखील गाफिल बेनजर बेबाक। नानक बुगोयद जनु तुरा तेरे चाकरा पाखाक।।
सरलार्थ:-- (कुन करतार) हे शब्द स्वरूपी कर्ता अर्थात् शब्द से सर्व सृष्टि के रचनहार (गोश) निर्गुणी संत रूप में आए (करीम) दयालु (हक्का कबीर) सत कबीर (तू) आप (बेएब परवरदिगार) निर्विकार परमेश्वर हैं। (पेश तोदर) आपके समक्ष अर्थात् आपके द्वार पर (तहकीक) पूरी तरह जान कर (यक अर्ज गुफतम) एक हृदय से विशेष प्रार्थना है कि (दिलदानी) हे महबूब (दुनियां मुकामे) यह संसार रूपी ठिकाना (फानी) नाशवान है (मम सर मूई) जीव के शरीर त्यागने के पश्चात् (अजराईल) अजराईल नामक फरिश्ता यमदूत (गिरफ्त दिल हेच न दानी) बेरहमी के साथ पकड़ कर ले जाता है। उस समय (कस) कोई (दस्तं गीर) साथी (जन) व्यक्ति जैसे (पिसर) बेटा (पदर) पिता (बिरादरां) भाई चारा (नेस्तं) साथ नहीं देता। (आखिर बेफ्तम) अन्त में सर्व उपाय (तकबीर) फर्ज अर्थात् (कस) कोई क्रिया काम नहीं आती (नदारद चूं शब्द) तथा आवाज भी बंद हो जाती है (शबरोज) प्रतिदिन (गशतम) गसत की तरह न रूकने वाली (दर हवा) चलती हुई वायु की तरह (बदी ख्याल) बुरे विचार (करदेम) करते रहते हैं (नेकी कार करदम) शुभ कर्म करने का (मम ई चिनी) मुझे कोई (अहवाल) जरीया अर्थात् साधन (गाहे न) नहीं मिला (बदबख्त) ऐसे बुरे समय में (हम चु) हमारे जैसे (बखील) नादान (गाफील) ला परवाह (बेनजर बेबाक) भक्ति और भगवान का वास्तविक ज्ञान न होने के कारण ज्ञान नेत्र हीन था तथा ऊवा-बाई का ज्ञान कहता था। (नानक बुगोयद) नानक जी कह रहे हैं कि हे कबीर परमेश्वर आपकी कृपा से (तेरे चाकरां पाखाक) आपके सेवकों के चरणों की धूर डूबता हुआ (जनु तुरा) बंदा पार हो गया।
केवल हिन्दी अनुवाद:- हे शब्द स्वरूपी राम अर्थात् शब्द से सर्व सृष्टि रचनहार दयालु ‘‘सतकबीर‘‘ आप निर्विकार परमात्मा हैं। आपके समक्ष एक हृदय से विनती है कि यह पूरी तरह जान लिया है हे महबूब यह संसार रूपी ठिकाना नाशवान है। हे दाता! इस जीव के मरने पर अजराईल नामक यम दूत बेरहमी से पकड़ कर ले जाता है कोई साथी जन जैसे बेटा पिता भाईचारा साथ नहीं देता। अन्त में सभी उपाय और फर्ज कोई क्रिया काम नहीं आता। प्रतिदिन गश्त की तरह न रूकने वाली चलती हुई वायु की तरह बुरे विचार करते रहते हैं। शुभ कर्म करने का मुझे कोई जरीया या साधन नहीं मिला। ऐसे बुरे समय कलियुग में हमारे जैसे नादान लापरवाह, सत मार्ग का ज्ञान न होने से ज्ञान नेत्र हीन था तथा लोकवेद के आधार से अनाप-सनाप ज्ञान कहता रहता था। नानक जी कहते हैं कि मैं आपके सेवकों के चरणों की धूर डूबता हुआ बन्दा नानक पार हो गया।
भावार्थ - श्री गुरु नानक साहेब जी कह रहे हैं कि हे हक्का कबीर (सत् कबीर)! आप निर्विकार दयालु परमेश्वर हो। आप से मेरी एक अर्ज है कि मैं तो सत्यज्ञान वाली नजर रहित तथा आपके सत्यज्ञान के सामने तो निरूत्तर अर्थात् जुबान रहित हो गया हूँ। हे कुल मालिक! मैं तो आपके दासों के चरणों की धूल हूँ, मुझे शरण में रखना।
इसके पश्चात् जब श्री नानक जी को पूर्ण विश्वास हो गया कि पूर्ण परमात्मा तो गीता ज्ञान दाता प्रभु से अन्य ही है। वही पूजा के योग्य है। पूर्ण परमात्मा की भक्ति तथा ज्ञान के विषय में गीता ज्ञान दाता प्रभु भी अनभिज्ञ है। परमेश्वर स्वयं ही तत्त्वदर्शी संत रूप से प्रकट होकर तत्त्वज्ञान को जन-जन को सुनाता है। जिस ज्ञान को वेद भी नहीं जानते वह तत्त्वज्ञान केवल पूर्ण परमेश्वर (सतपुरुष) ही स्वयं आकर ज्ञान करवाता है। श्री नानक जी का जन्म पवित्र हिन्दू धर्म में होने के कारण पवित्र गीता जी के ज्ञान पर पूर्ण रूपेण आश्रित थे। फिर स्वयं प्रत्येक हिन्दू श्रद्धालु तथा ब्राह्मण गुरुओं, आचार्यों से गीता जी के सात श्लोकों के विषय में पूछते थे। सर्व गुरुजन निरुत्तर हो जाते थे, परन्तु श्री नानक जी के विरोधी हो जाते थे। उस समय शिक्षा का अभाव था। उन झूठे गुरुओं की दाल गलती रही। गुरुजन जनता को यह कह कर श्री नानक जी के विरुद्ध भड़काते थे कि श्री नानक झूठ कह रहा है। गीता जी में ऐसा नहीं लिखा है कि श्री कृष्ण जी से ऊपर कोई शक्ति है। कबीर प्रभु से तत्त्वज्ञान से परिचित होकर श्री नानक जी पवित्र मुसलमान धर्म के श्रद्धालुओं तथा काजी व मुल्लाओं तथा पीरों (गुरुओं) से पूछा करते थे कि पवित्र र्कुआन शरीफ की सूरत फुर्कानि स. 25 आयत 19, 21, 52 से 58, 59 में र्कुआन शरीफ बोलने वाला प्रभु (अल्लाह) कह रहा है कि सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार, सर्व पाप (गुनाहों) का नाश (क्षमा) करने वाला जिसने छः दिन में सृष्टि रचना की तथा सातवें दिन तख्त पर जा विराजा, जो सर्व के पूजा(इबादिह कबीरा) योग्य है, वह कबीर परमेश्वर है। काफिर लोग (अल्लाह कबीर) कबीर प्रभु को समर्थ नहीं मानते, आप उनकी बातों में मत आना। मेरे द्वारा दिए इस र्कुआन शरीफ के ज्ञान पर विश्वास रखकर उनके साथ ज्ञान चर्चा रूपी संघर्ष करना। उस अल्लाहु अकबिर् अर्थात् अल्लाहु अकबर (कबीर प्रभु) की भक्ति तथा प्राप्ति के विषय में मैं (र्कुआन शरीफ का ज्ञान दाता प्रभु) नहीं जानता। उसके विषय में किसी तत्त्वदर्शी संत (बाखबर) से पूछो। पवित्र मुसलमान धर्म के मार्ग दर्शकों से पूछा कि यह स्पष्ट है कि श्री र्कुआन शरीफ के ज्ञान दाता प्रभु (जिसे हजरत मुहम्मद जी अपना अल्लाह मानते थे) के अतिरिक्त कोई और समर्थ परमेश्वर है जिसने सारे संसार की रचना की है। वही पूजा के योग्य है। र्कुआन शरीफ का ज्ञान दाता प्रभु अपनी साधना के विषय में तो बता चुका है कि पाँच समय नमाज करो, रोजे रखो, बंग दो। फिर वही प्रभु किसी अन्य समर्थ प्रभु की पूजा के लिए कह रहा है। क्या वह बाखबर(तत्त्वदर्शी) संत आप किसी को मिला है ? यदि मिला होता तो यह साधना नहीं करते। इसलिए आपकी पूजा वास्तविक नहीं है। क्योंकि पूजा के योग्य पूर्ण मोक्ष दायक पाप विनाशक तो केवल कबीर नामक प्रभु है। आप प्रभु को निराकार कहते हो। र्कुआन शरीफ में सूरत फुर्कानि स. 25 आयत 58-59 में स्पष्ट किया है कि कबीर अल्लाह (कबीर प्रभु) ने छः दिन में सृष्टि रची तथा ऊपर तख्त पर जा बैठा। इससे तो स्पष्ट हुआ कि कबीर नामक अल्लाह साकार है। क्योंकि निराकार के विषय में एक स्थान पर बैठना नहीं कहा जाता। इसी की पुष्टि ‘पवित्र बाईबल‘ उत्पत्ति विषय में कहा है कि प्रभु ने छः दिन में सृष्टि की रचना की तथा सातवें दिन विश्राम किया अर्थात् आकाश में जा बैठा तथा प्रभु ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया। इससे भी स्वसिद्ध है कि परमात्मा का शरीर भी मनुष्य जैसा है अर्थात् प्रभु साकार है। आपकी र्कुआन शरीफ सही है परन्तु आप न समझ कर अपना तथा अपने अनुयाईयांे का जीवन व्यर्थ कर रहे हो। आओ आपको अल्लाह कबीर सशरीर दिखाता हूँ। बहुत से श्रद्धालु श्री नानक जी के साथ पूज्य कबीर परमेश्वर की झोपड़ी के पास गए। श्री नानक जी ने कहा कि यही है वह अल्लाहु अकबर, मान जाओ मेरी बात। परन्तु भ्रमित ज्ञान में रंगे श्रद्धालुओं को विश्वास नहीं हुआ। मुल्ला, काजी तथा पीरों ने कहा कि नानक जी झूठ बोल रहे हैं, र्कुआन शरीफ में उपरोक्त विवरण कहीं नहीं लिखा। क्योंकि सर्व समाज अशिक्षित था, वही अज्ञान अंधेरा अभी तक छाया रहा, अब तत्त्वज्ञान रूपी सूर्य उदय हो चुका है। गुरु ग्रन्थ साहेब, राग आसावरी, महला 1 के कुछ अंश -
साहिब मेरा एको है। एको है भाई एको है।
आपे रूप करे बहु भांती नानक बपुड़ा एव कह।। (पृ. 350)
जो तिन कीआ सो सचु थीआ, अमृत नाम सतगुरु दीआ।। (पृ. 352)
गुरु पुरे ते गति मति पाई। (पृ. 353)
बूडत जगु देखिआ तउ डरि भागे।
सतिगुरु राखे से बड़ भागे, नानक गुरु की चरणों लागे।। (पृ. 414)
मैं गुरु पूछिआ अपणा साचा बिचारी राम। (पृ. 439)
उपरोक्त अमृतवाणी में श्री नानक साहेब जी स्वयं स्वीकार कर रहे हैं कि साहिब (प्रभु) एक ही है तथा मेरे गुरु जी ने मुझे उपदेश नाम मन्त्रा दिया, वही नाना रूप धारण कर लेता है अर्थात् वही सतपुरुष है वही जिंदा रूप बना लेता है। वही धाणक रूप में भी विराजमान होकर आम व्यक्ति अर्थात् भक्त की भूमिका करता है। शास्त्रविरुद्ध पूजा करके सारे जगत् को जन्म-मृत्यु व कर्मफल की आग में जलते देखकर जीवन व्यर्थ होने के डर से भागकर मैंने गुरुजी के चरणों में शरण ली।
बलिहारी गुरु आपणे दिउहाड़ी सदवार।
जिन माणस ते देवते कीए करत न लागी वार।
आपीनै आप साजिओ आपीनै रचिओ नाउ।
दुयी कुदरति साजीऐ करि आसणु डिठो चाउ।
दाता करता आपि तूं तुसि देवहि करहि पसाउ।
तूं जाणोइ सभसै दे लैसहि जिंद कवाउ करि आसणु डिठो चाउ। (पृ. 463)
भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा जिंदा का रूप बनाकर बेई नदी पर आए अर्थात् जिंदा कहलाए तथा स्वयं ही दो दुनियाँ ऊपर(सतलोक आदि) तथा नीचे(ब्रह्म व परब्रह्म के लोक) को रचकर ऊपर सत्यलोक में आकार में आसन पर बैठ कर चाव के साथ अपने द्वारा रची दुनियाँ को देख रहे हो तथा आप ही स्वयम्भू अर्थात् माता के गर्भ से जन्म नहीं लेते, स्वयं प्रकट होते हो। यही प्रमाण पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 मं. 8 में है कि कविर् मनीषि स्वयम्भूः परिभू व्यवधाता, भावार्थ है कि कबीर परमात्मा सर्वज्ञ है (मनीषि का अर्थ सर्वज्ञ होता है) तथा अपने आप प्रकट होता है। वह सनातन (परिभू) अर्थात् सर्वप्रथम वाला प्रभु है। वह सर्व ब्रह्मण्डों का (व्यवधाता)अर्थात् भिन्न-भिन्न सर्व लोकों का रचनहार है।
एहू जीउ बहुते जनम भरमिआ, ता सतिगुरु शबद सुणाइया।। (पृ. 465)
भावार्थ है कि श्री नानक साहेब जी कह रहे हैं कि मेरा यह जीव बहुत समय से जन्म तथा मृत्यु के चक्र में भ्रमता रहा अब पूर्ण सतगुरु ने वास्तविक नाम प्रदान किया।
श्री नानक जी के पूर्व जन्म - सतयुग में राजा अम्ब्रीष, त्रेतायुग में राजा जनक हुए थे और फिर नानक जी हुए तथा अन्य योनियों के जन्मों की तो गिनती ही नहीं है।
इस निम्न लेख में प्रमाणित है कि कबीर साहेब तथा नानक जी की वार्ता हुई है। यह भी प्रमाण है कि राजा जनक विदेही भी श्री नानक जी थे तथा श्री सुखदेव जी भी राजा जनक का शिष्य हुआ था।
(पंजाबी लीपी में) संपादक: डाॅ. जगजीत सिह खानपुरी पब्लिकेशन ब्यूरो पंजाबी युनिवर्सिटी, पटियाला। प्रकाशित सन् 1961 के पृष्ठ न. 399 से सहाभार
गोष्टी बाबे नानक और कबीर जी की
(कबीर जी)उह गुरु जी चरनि लागि करवै, बीनती को पुन करीअहु देवा।
अगम अपार अभै पद कहिए, सो पाईए कित सेवा।।
मुहि समझाई कहहु गुरु पूरे, भिन्न-भिन्न अर्थ दिखावहु।
जिह बिधि परम अभै पद पाईये, सा विधि मोहि बतावहु।
मन बच करम कपा करि दीजै, दीजै शब्द उचारं।।
कहै कबीर सुनहु गुरु नानक, मैं दीजै शब्द बीचारं।।1।।
(नानक जी)नानक कह सुनों कबीर जी, सिखिया एक हमारी।
तन मन जीव ठौर कह ऐकै, सुंन लागवहु तारी।।
करम अकरम दोऊँ तियागह, सहज कला विधि खेलहु।
जागत कला रहु तुम निसदिन, सतगुरु कल मन मेलहु।।
तजि माया र्निमायल होवहु, मन के तजहु विकारा।
नानक कह सुनहु कबीर जी, इह विधि मिलहु अपारा।।2।।
(कबीर जी)गुरु जी माया सबल निरबल जन तेरा, क्युं अस्थिर मन होई।
काम क्रोध व्यापे मोकु, निस दिन सुरति निरत बुध खोई।।
मन राखऊ तवु पवण सिधारे, पवण राख मन जाही।
मन तन पवण जीवैं होई एकै, सा विधि देहु बुझााई।।3।।
(नानक जी) दिृढ करि आसन बैठहु वाले, उनमनि ध्यान लगावहु।
अलप-अहार खण्ड कर निन्द्रा, काम क्रोध उजावहु।।
नौव दर पकड़ि सहज घट राखो, सुरति निरति रस उपजै।
गुरु प्रसादी जुगति जीवु राखहु, इत मंथत साच निपजै।।4।।
(कबीर जी) (कबीर कवन सुखम कवन स्थूल कवन डाल कवन है मूल)
गुरु जी किया लै बैसऊ, किआ लेहहु उदासी।
कवन अग्नि की धुणी तापऊ कवन मड़ी महि बासी।।5।।
(नानक जी) (नानक ब्रह्म सुखम सुंन असथुल, मन है पवन डाल है मूल)
करम लै सोवहु सुरति लै जागहु, ब्रह्म अग्नि ले तापहु।
निस बासर तुम खोज खुजावहु, संुन मण्डल ले डूम बापहु।।6।।
(सतगुरु कहै सुनहे रे चेला, ईह लछन परकासे)
(गुरु प्रसादि सरब मैं पेखहु, सुंन मण्डल करि वासे)
(कबीर जी) सुआमी जी जाई को कहै, ना जाई वहाँ क्या अचरज होई जाई।
मन भै चक्र रहऊ मन पूरे, सा विध देहु बताई।।7।।
(अपना अनभऊ कहऊ गुरु जी, परम ज्योति किऊं पाई।)
(नानक जी) ससी अर चड़त देख तुम लागे, ऊहाँ कीटी भिरणा होता।
नानक कह सुनहु कबीरा, इत बिध मिल परम तत जोता।।8।।
(कबीर जी) धन धन धन गुरु नानक, जिन मोसो पतित उधारो।
निर्मल जल बतलाइया मो कऊ, राम मिलावन हारो।।9।।
(नानक जी) जब हम भक्त भए सुखदेवा, जनक विदेह किया गुरुदेवा।
कलि महि जुलाहा नाम कबीरा, ढूंड थे चित भईआ न थीरा।।
बहुत भांति कर सिमरन कीना, इहै मन चंचल तबहु न भिना।
जब करि ज्ञान भए उदासी, तब न काटि कालहि फांसी।।
जब हम हार परे सतिगुरु दुआरे, दे गुरु नाम दान लीए उधारे।।10।।
(कबीर जी) सतगुरु पुरुख सतिगुरु पाईया, सतिनाम लै रिदै बसाईआ।
जात कमीना जुलाहा अपराधि, गुरु कपा ते भगति समाधी।।
मुक्ति भइआ गुरु सतिगुरु बचनी, गईया सु सहसा पीरा।
जुग नानक सतिगुरु जपीअ, कीट मुरीद कबीरा।।11।।
सुनि उपदेश सम्पूर्ण सतगुरु का, मन महि भया अनंद।
मुक्ति का दाता बाबा नानक, रिंचक रामानन्द।।12।।
ऊपर लिखी वाणी ‘प्राण संगली‘ नामक पुस्तक से लिखी हैं। इसमें स्पष्ट लिखा है कि वाणी संख्या 9 तक दोहों में पूरी पंक्ति के अंतिम अक्षर मेल खाते हैं। परन्तु वाणी संख्या 10 की पाँच पंक्तियां तथा वाणी संख्या 11 की पहली दो पंक्तियां चौपाई रूप में हैं तथा फिर दो पंक्तियां दोहा रूप में है तथा फिर वाणी संख्या 12 में केवल दो पंक्तियां हैं जो फिर दोहा रूप में है। इससे सिद्ध है कि वास्तविक वाणी को निकाला गया है जो वाणी कबीर साहेब जी के विषय में श्री नानक जी ने सतगुरु रूप में स्वीकार किया होगा। नहीं तो दोहों में चलती आ रही वाणी फिर चौपाईयों में नहीं लिखी जाती। फिर बाद में दोहों में लिखी है। यह सब जान-बूझ कर प्रमाण मिटाने के लिए किया है। वाणी संख्या 10 की पहली पंक्ति ‘जब हम भक्त भए सुखदेवा, जनक विदेही किया गुरुदेवा‘ स्पष्ट करती है कि श्री नानक जी कह रहे हैं कि मैं जनक रूप में था उस समय मेरा शिष्य (भक्त) श्री सुखदेव ऋषि हुए थे। इस वाणी संख्या 10 को नानक जी की ओर से कही मानी जानी चाहिए तो स्पष्ट है कि नानक जी कह रहे है कि मैं हार कर गुरू कबीर के चरणों में गिर गया उन्होंने नाम दान देकर उद्धार किया। वास्तव में यह 10 नं. वाणी कही अन्य वाणी से है। यह पंक्ति भी परमेश्वर कबीर साहेब जी की ओर से वार्ता में लिख दिया है। क्योंकि परमेश्वर कबीर साहेब जी ने अपनी शक्ति से श्री नानक जी को पिछले जन्म की चेतना प्रदान की थी। तब नानक जी ने स्वीकार किया था कि वास्तव में मैं जनक था तथा उस समय सुखदेव मेरा भक्त हुआ था।
वाणी संख्या 11 में चार पंक्तियां हैं जबकि वाणी संख्या 10 में पाँच पंक्तियां लिखी हैं। वास्तव में प्रथम पंक्ति ‘जब हम भक्त भए सुखदेवा ..‘ वाली में अन्य तीन पंक्तियां थी, जिनमें कबीर परमेश्वर को श्री नानक जी ने गुरु स्वीकार किया होगा। उन्हें जान बूझ कर निकाला गया लगता है। वाणी संख्या 1 व 2 में 6.6 पंक्तियाँ हैं। वाणी संख्या 3 व 4 में 4-4 पंक्तियाँ हैं। वाणी संख्या 5 व 6 में 3-3 पंक्तियाँ हैं। वाणी संख्या 7 में 4 पंक्तियाँ हैं। वाणी संख्या 8 में 3 पंक्तियाँ हैं। वाणी संख्या 9 में 2 पंक्तियाँ हैं। वाणी संख्या 10 में 5 पंक्तियाँ हैं। वाणी संख्या 11 में 4 पंक्तियाँ हैं तथा वाणी संख्या 12 में 2 पंक्तियाँ हैं। यदि ये वाणी पूरी होती तो सर्व वाणियों (कलियों) में एक जैसी वाणी संख्या होती।
श्री नानक जी ने दोनों की वार्ता जो प्रभु कबीर जी से हुई थी, लिखी थी। परन्तु बाद में प्राण संगली तथा गुरु ग्रन्थ साहिब में उन वाणियों को छोड़ दिया गया जो कबीर परमेश्वर जी को श्री नानक जी का गुरुदेव सिद्ध करती थी। इसी का प्रमाण कृप्या निम्न देखें। दो शब्दों में प्रत्यक्ष प्रमाण है(श्री गुरू ग्रन्थ साहेब पृष्ठ 1189, 929, 930 पर)।
आगे श्री गुरु ग्रन्थ पष्ठ नं. 1189
राग बसंत महला 1
चंचल चित न पावै पारा, आवत जात न लागै बारा।
दुख घणों मरीअै करतारा, बिन प्रीतम के कटै न सारा।।1।।
सब उत्तम किस आखवु हीना, हरि भक्ति सचनाम पतिना(रहावु)।
औखद कर थाकी बहुतेरे, किव दुख चुकै बिन गुरु मेरे।।
बिन हर भक्ति दुःख घणोरे, दुख सुख दाते ठाकुर मेरे।।2।।
रोग वडो किंवु बांधवु धिरा, रोग बुझै से काटै पीरा।
मैं अवगुण मन माहि सरीरा, ढँूढ़त खोजत गुरिू मेले बीरा।।3।।
नोट:- यहाँ पर स्पष्ट है कि अक्षर कबीरा की जगह ‘गुरु मेले बीरा‘ लिखा है। जबकि लिखना था ‘ढूँढ़त खोजत गुरि मेले कबीरा‘
गुरु का शब्द दास हर नावु, जिवै तू राखहि तिवै रहावु।
जग रोगी कह देखि दिखाऊ, हरि निमाईल निर्मल नावु।।4।।
घट में घर जो देख दिखावै, गुरु महली सो महलि बुलावै।
मन में मनुवा चित्त में चीता, अैसे हर के लोग अतीता।।5।।
हरख सोग ते रहैहि निरासा, अमृत चाख हरि नामि निवासा।।
आप पीछाणे रह लिव लागा, जनम जीति गुरुमति दुख भागा।।6।।
गुरु दिया सच अमत पिवैऊ, सहज मखु जीवत ही जीवऊ।
अपणे करि राखहु गुरु भावै, तुमरो होई सु तुझहि समावै।।8।।
भोगी कऊ दुःख रोग बिआपै, घटि-घटि रवि रहिया प्रभु आपै।
सुख दुःख ही तै गुरु शब्द अतीता, नानक राम रमै हरि चीता।।9(4)।।
इस ऊपर के शब्द में प्रत्यक्ष प्रमाण है कि श्री नानक जी का कोई आकार रूप में गुरु था जिसने सच्चनाम (सतनाम) दिया तथा उस गुरुदेव को ढूंढ़ते-खोजते काशी में कबीर गुरु मिला तथा वह सतनाम प्राणियों को कर्म-कष्ट रहित करता है तथा हरदम गुरु के वचन में रह कर गुरुदेव द्वारा दिए सत्यनाम (सच्चनाम) का जाप करते रहना चाहिए।
राग रामकली महला 1 दखणी औंकार
गुरु ग्रन्थ पष्ठ नं. 929-30
औंकार ब्रह्मा उत्पत्ति। औंकार किया जिन चित।।
औंकार सैल जुग भए। औंकार वेद निरमए।।
औंकार शब्द उधरे। औंकार गुरु मुख तरे।।
ओंम अखर सुन हुँ विचार। ओम अखर त्रिभूवण सार।।
सुण पाण्डे किया लिखहु जंजाला, लिख राम नाम गुरु मुख गोपाला।।1।।रहाऊ।।
ससै सभ जग सहज उपाइया, तीन भवन इक जोती।
गुरु मुख वस्तु परापत होवै, चुण लै मानक मोती।।
समझै सुझै पड़ि-पड़ि बुझै अति निरंतर साचा।
गुरु मुख देखै साच समाले, बिन साचे जग काचा।।2।।
धधै धरम धरे धरमा पुरि गुण करी मन धीरा। {ग्रन्थ साहेब में एक ही पंक्ति है।}
यहाँ पंक्ति अधूरी (अपूर्ण) छोड़ रखी है। प्रत्येक पंक्ति में अंतिम अक्षर दो एक जैसे है। जैसे ऊपर लिखी वाणी में ‘‘ज्योति‘‘ फिर दूसरी में ‘‘मोती‘‘। फिर ‘‘साचा‘‘ दूसरी में ‘‘काचा‘‘। यहाँ पर ‘‘धीरा‘‘ अंतिम अक्षर वाली एक ही पंक्ति है। इसमें साहेब कबीर का नाम प्रत्यक्ष था जो कि मान वस होकर ग्रन्थ की छपाई करते समय निकाल दी गई है(छापाकारों ने काटा होगा, संत कभी ऐसी गलती नहीं करते) क्योंकि कबीर साहेब जुलाहा जाति में माने जाते हैं जो उस समय अछूत जानी जाती थी। कहीं गुरु नानक जी का अपमान न हो जाए कि एक जुलाहा नानक जी का पूज्य गुरु व भगवान था।
फिर प्रमाण है ‘‘राग बसंत महला पहला‘‘ पौड़ी नं. 3 आदि ग्रन्थ(पंजाबी) पष्ठ नं. 1188 नानक हवमों शब्द जलाईया, सतगुरु साचे दरस दिखाईया।।
इस वाणी से भी अति स्पष्ट है कि नानक जी कह रहे हैं कि सत्यनाम (सत्यशब्द) से विकार-अहम् (अभिमान) जल गया तथा मुझे सच्चे सतगुरु ने दर्शन दिए अर्थात् मेरे गुरुदेव के दर्शन हुए। स्पष्ट है कि नानक जी को कोई सतगुरु आकार रूप में अवश्य मिला था। वह ऊपर तथा नीचे पूर्ण प्रमाणित है। स्वयं कबीर साहेब पूर्ण परमात्मा (अकाल मूर्त) स्वयं सच्चखण्ड से तथा दूसरे रूप में काशी बनारस से आकर प्रत्यक्ष दर्शन देकर सच्चखण्ड (सत्यलोक) भ्रमण करवा के सच्चा नाम उपदेश काशी (बनारस) में प्रदान किया।
आदरणीय गरीबदास जी महाराज {गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर(हरियाणा)} को भी परमेश्वर कबीर जिन्दा महात्मा के रूप में जंगल में मिले थे। इसी प्रकार सतलोक दिखा कर वापिस छोड़ा था। परमेश्वर ने बताया कि मैंने ही श्री नानक जी तथा श्री दादू जी को पार किया था। जब श्री नानक जी ने पूर्ण परमात्मा को सतलोक में भी देखा तथा फिर बनारस (काशी) में जुलाहे का कार्य करते देखा तब उमंग में भरकर कहा था ‘‘वाहेगुरु सत्यनाम‘‘ वाहेगुरु-वाहेगुरु तथा इसी उपरोक्त वाक्य का उच्चारण करते हुए काशी से वापिस आए। जिसको श्री नानक जी के अनुयाईयों ने जाप मंत्र रूप में जाप करना शुरु कर दिया कि यह पवित्र मंत्र श्री नानक जी के मुख कमल से निकला था, परन्तु वास्तविकता को न समझ सके। अब उनसे कौन छुटाए, इस नाम के जाप को जो सही नहीं है। क्योंकि वास्तविक मंत्र को बोलकर नहीं सुनाया जाता। उसका सांकेतिक मंत्र ‘सत्यनाम‘ है तथा वाहे गुरु कबीर परमेश्वर को कहा है। इसी का प्रमाण संत गरीबदास साहेब ने अपने सतग्रन्थ साहेब में फुटकर साखी का अंग पृष्ठ न. 386 पर दिया है।
गरीब, झांखी देख कबीर की, नानक कीती वाह। वाह सिक्खों के गल पड़ी, कौन छुटावै ताह।।
गरीब, हम सुलतानी नानक तारे, दादू कुं उपदेश दिया। जाति जुलाहा भेद ना पाया, कांशी माहे कबीर हुआ।।
प्रमाण के लिए ‘‘जीवन दस गुरु साहिबान‘‘ पृष्ठ न. 42 से 44 तक (लेखक - सोढी तेजा सिंघ जी) - (प्रकाशक - चतर सिंघ जीवन सिंघ)
”जीवन दस गुरु साहेब से ज्यों का त्यों सहाभार“
गुरु जी प्रत्येक प्रातः बेई नदी में जो कि शहर सुलतानपुर के पास ही बहती है, स्नान करने के लिए जाते थे। एक दिन जब आपने पानी में डुबकी लगाई तो फिर बाहर न आए। कुछ समय ऊपरान्त आप जी के सेवक ने, जो कपड़े पकड़ कर नदी के किनारे बैठा था, घर जाकर जै राम जी को खबर सुनाई कि नानक जी डूब गए हैं तो जै राम जी तैराकों को साथ लेकर नदी पर गए। आप जी को बहुत ढूंढा किन्तु आप नहीं मिले। बहुत देखने के पश्चात् सब लोग अपने अपने घर चले गए।
भाई जैराम जी के घर बहुत चिन्ता और दुःख प्रकट किया जा रहा था कि तीसरे दिन सवेरे ही एक स्नान करने वाले भक्त ने घर आकर बहिन जी को बताया कि आपका भाई नदी के किनारे बैठा है। यह सुनकर भाईआ जैराम जी बेई की तरफ दौड़ पड़े और जब जब पता चलता गया और बहुत से लोग भी वहाँ पहुँच गए। जब इस तरह आपके चारों तरफ लोगों की भीड़ लग गई आप जी चुपचाप अपनी दुकान पहुँच गए। आप जी के साथ स्त्री और पुरूषों की भीड़ दुकान पर आने लगी। लोगों की भीड़ देख कर गुरु जी ने मोदीखाने का दरवाजा खोल दिया और कहा जिसको जिस चीज की जरूरत है वह उसे ले जाए। मोदीखाना लुटाने के पश्चात् गुरु जी फकीरी चोला पहन कर शमशानघाट में जा बैठे। मोदीखाना लुटाने और गुरु जी के चले जाने की खबर जब नवाब को लगी तो उसने मुंशी द्वारा मोदीखाने की किताबों का हिसाब जैराम को बुलाकर पड़ताल करवाया। हिसाब देखने के पश्चात् मुंशी ने बताया कि गुरु जी के सात सौ साठ रूपये सरकार की तरफ अधिक हैं। इस बात को सुनकर नवाब बहुत खुश हुआ। उसने गुरु जी को बुलाकर कहा कि उदास न हो। अपना फालतू पैसा और मेरे पास से ले कर मोदीखाने का काम जारी रखें। पर गुरु जी ने कहा अब हमने यह काम नहीं करना हमें कुछ और काम करने का भगवान् की तरफ से आदेश हुआ है। नवाब ने पूछा क्या आदेश हुआ है ? तब गुरु जी ने मूल-मंत्र उच्चारण किया।
1 ओंकार सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरू अकाल मूरति अजूनी सब गुरप्रसादि।
नवाब ने पूछा कि यह आदेश आपके भगवान् ने कब दिया ? गुरु जी ने बताया कि जब हम बेई में स्नान करने गए थे तो वहाँ से हम सच्चखण्ड अपने स्वामी के पास चले गए थे वहाँ हमें आदेश हुआ कि नानक जी यह मंत्र आप जपो और बाकियों को जपा कर कलयुग के लोगों को पार लगाओ। इसलिए अब हमें अपने मालिक के इस हुक्म की पालना करनी है। इस सन्दर्भ को भाई गुरदास जी वार 1 पउड़ी 24 में लिखते हैं:
बाबा पैधा सचखण्ड नउनिधि नाम गरीबी पाई।।
अर्थात्बा बा नानक जी सचखण्ड गए। वहाँ आप को नौनिधियों का खजाना नाम और निर्भयता प्राप्त हुई। यहाँ बेई किनारे जहाँ गुरु जी बेई से बाहर निकल कर प्रकट हुए थे, गुरु द्वारा संत घाट अथवा गुरुद्वारा बेर साहिब, बहुत सुन्दर बना हुआ है। इस स्थान पर ही गुरु जी प्रातः स्नान करके कुछ समय के लिए भगवान् की तरफ ध्यान करके बैठते थे।
भाई बाले वाली ‘‘जन्म साखी’’ एक मान्य ग्रन्थ है जो गुरू ग्रन्थ की तरह ही सत्यज्ञान का प्रतीक माना जाता है जिसके ज्ञान को सिक्ख समाज परम सत्य मानता है क्योंकि यह जन्म साखी भाई बाला जी द्वारा आँखों देखा कानों सुना ज्ञान है जो श्री नानक देव साहेब जी ने बोला था तथा बाला जी ने बताया तथा दूसरे गुरू श्री अंगद जी ने लिखा था। जन्म साखी के पृष्ठ 299-300 पर ‘‘साखी कूना पर्वत की चली‘‘ में ‘‘गोष्टि सिद्धां नाल होई‘‘ है। इसमें प्रकरण है कि श्री गुरू नानक जी कूना पर्वत पर गए। उनके साथ भाई बाला जी तथा मर्दाना जी थे। कूना पर्वत की गुफा में कुछ सिद्ध पुरूष नाथ पंथ के रहते थे। उनके साथ ज्ञान गोष्ठी में श्री नानक जी ने प्रश्न के उत्तर में कहा था कि ‘‘ऐकंकार हमारा नाबं अपने गुरू की बलि जाऊँ।‘‘ (मर्दाने ने पूछा कि हे गुरू जी! क्या आपका भी कोई गुरू जी है?) तब नानक जी ने कहा कि हे मर्दाना! मेरा इतना बड़ा गुरू है जो बिना करतार की कृपा के अपनी दृष्टि में नहीं आता।
इससे आगे ‘‘साखी और चली‘‘ मीना पर्वत चले गए। तब मर्दाने ने पूछा कि हे गुरू जी! हम तो आपके साथ ही रहे हैं। आप जी को वह गुरू जी कब मिला था? गुरू नानक जी ने उत्तर दिया कि उस समय तक तुम मेरे पास नहीं आए थे। जब हम मिलने गए थे। तब मर्दाने ने कहा कि जी! कब मिलने गए थे? तब श्री नानक जी ने कहा कि जब सुल्तानपुर में बेई नदी में डुबकी लगाई थी। तब तीन दिन उसी के साथ रहे थे। हे मर्दाना! भाई बाला जानता है। हे मर्दाना! ऐसा गुरू है जिसकी सत्ता संपूर्ण संसार में आश्रय दे रही है। उसको जिन्दा बाबा कहते हैं। हे मर्दाना! जिन्दा उसी को कहते हैं जो काल के आधीन न आवै। अपितु काल उसके आधीन है।
एक मुगल पठान ने पूछा कि आपका गुरू कौन है? श्री नानक जी ने उत्तर दिया कि जिन्दा पीर है। वह परमेश्वर ही गुरू रूप में आया था। उसका शिष्य सारा जहाँ है। फिर ‘‘साखी रूकनदीन काजी के साथ होई’’ जन्म साखी के पृष्ठ 183 पर कुछ वाणी इस प्रकार हैं:-
नानके आखे रूकनदीन सच्चा सुणहू जवाब। खालक आदम सिरजिया आलम बड़ा कबीर।
कायम दायम कुदरती सिर पिरां दे पीर। सजदे करे खुदाई नू आलम बड़ज्ञ कबीर।।
भावार्थ:- श्री नानक जी ने कहा है कि रूकनदीन काजी! जिस खुदा ने आदम जी की उत्पत्ति की है। वह बड़ा परमात्मा कबीर है। वह ही पृथ्वी पर सतगुरू की भूमिका करता है। वह सिर पीरां दे पीर यानि सब गुरूओं का सिरताज है। सब से उत्तम ज्ञान रखता है। वह कायम यानि श्रेष्ठ दायम यानि समर्थ परमात्मा (कुदरती) है। मुसलमान अल्लाह कबीर कहते हैं। कबीर का अर्थ बड़ा करके बड़ा अल्लाह अर्थ करते हैं। श्री नानक जी ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह बड़ा आलम कबीर है। मुसलमान जिसे अल्लाह कबीर कहते हैं यानि बड़ा अल्लाह कहते हैं। जन्म साखी में कबीर तथा बड़ा दोनों शब्द लिखे हैं जिससे कबीर का अर्थ कबीर ही रहेगा तथा बड़ा शब्द भी रहेगा। इसलिए स्पष्ट हुआ कि बड़ा परमात्मा कबीर है। वह बड़ा आलम कबीर है जो धाणक रूप में काशी में लीला करके गया है जिसका प्रमाण श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी के पृष्ठ 24, 721, 731 पर पूर्व में लिख दिया है। उसमें स्पष्ट है तथा कबीर सागर पवित्र ग्रन्थ भी भाई बाला जी ने जैसे प्रत्यक्ष सुना लिखा है, ऐसे ही धनी धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से सुना ज्ञान लिखा है जो पहले भी पढ़ा, अब नीचे पढ़ें।
“पवित्र कबीर सागर में प्रमाण”
विशेष विचार:- पूरे गुरु ग्रन्थ साहेब में कहीं प्रमाण नहीं है कि श्री नानक जी, परमेश्वर कबीर जी के गुरु जी थे। जैसे गुरु ग्रन्थ साहेब आदरणीय तथा प्रमाणित है, ऐसे ही पवित्र कबीर सागर भी आदरणीय तथा प्रमाणित सद्ग्रन्थ है तथा श्री गुरुग्रन्थ साहेब से पहले का है। इसीलिए तो सैंकड़ों वाणी ‘कबीर सागर‘ सद्ग्रन्थ से गुरु ग्रन्थ साहिब में ली गई हैं।
पवित्र कबीर सागर में विस्तृत विवरण है नानक जी तथा परमेश्वर कबीर साहेब जी की वार्ता का तथा श्री नानक जी के पूज्य गुरुदेव कबीर परमेश्वर जी थे। कृप्या निम्न पढ़ें।
विशेष प्रमाण के लिए कबीर सागर (स्वसमबेदबोध) पृष्ठ न. 158 से 159 से सहाभार:-
नानकशाह कीन्हा तप भारी। सब विधि भये ज्ञान अधिकारी।।
भक्ति भाव ताको समिझाया। तापर सतगुरु कीनो दाया।।
जिंदा रूप धरयो तब भाई। हम पंजाब देश चलि आई।।
अनहद बानी कियौ पुकारा। सुनिकै नानक दरश निहारा।। सुनिके अमर लोककी बानी। जानि परा निज समरथ ज्ञानी।।
नानक वचन
आवा पुरूष महागुरु ज्ञानी। अमरलोकी सुनी न बानी।।
अर्ज सुनो प्रभु जिंदा स्वामी। कहँ अमरलोक रहा निजधामी।।
काहु न कही अमर निजबानी। धन्य कबीर परमगुरु ज्ञानी।।
कोई न पावै तुमरो भेदा। खोज थके ब्रह्मा चहुँ वेदा।।
जिन्दा वचन
नानक तुम बहुतै तप कीना। निरंकार बहुते दिन चीन्हा।।
निरंकारते पुरूष निनारा। अजर द्वीप ताकी टकसारा।।
पुरूष बिछोह भयौ तव(त्व) जबते। काल कठिन मग रोंक्यौ तबते।।
इत तव(त्व) सरिस भक्त नहिं होई। क्यों कि परमपुरूष न भेटेंउ कोई।।
जबते हमते बिछुरे भाई। साठि हजार जन्म भक्त तुम पाई।।
धरि धरि जन्म भक्ति भलकीना। फिर काल चक्र निरंजन दीना।।
गहु मम शब्द तो उतरो पारा। बिन सत शब्द लहै यम द्वारा।।
तुम बड़ भक्त भवसागर आवा। और जीवकी कौन चलावा।।
निरंकार सब सृष्टि भुलावा। तुम करि भक्तिलौटि क्यों आवा।।
नानक वचन
धन्य पुरूष तुम यह पद भाखी। यह पद हमसे गुप्त कह राखी।।
जबलों हम तुमको नहिं पावा। अगम अपार भर्म फैलावा।।
कहो गोसाँई हमते ज्ञाना। परमपुरूष हम तुमको जाना।।
धनि जिंदा प्रभु पुरूष पुराना। बिरले जन तुमको पहिचाना।।
जिन्दा वचन
भये दयाल पुरूष गुरु ज्ञानी। दियो पान परवाना बानी।।
भली भई तुम हमको पावा। सकलो पंथ काल को ध्यावा।।
तुम इतने अब भये निनारा। फेरि जन्म ना होय तुम्हारा।।
भली सुरति तुम हमको चीन्हा। अमर मंत्र हम तुमको दीन्हा।।
स्वसमवेद हम कहि निज बानी। परमपुरूष गति तुम्हैं बखानी।।
नानक वचन
धन्य पुरूष ज्ञानी करतारा। जीवकाज प्रकटे संसारा।।
धनि (धन्य) करता तुम बंदी छोरा। ज्ञान तुम्हार महाबल जोरा।।
दिया नाम दान किया उबारा। नानक अमरलोक पग धारा।।
भावार्थ:- परम पूज्य कबीर प्रभु एक जिन्दा महात्मा का रूप बना कर श्री नानक जी से मिलने पंजाब में गए तब श्री नानक साहेब जी से वार्ता हुई। तब परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि आप जैसी पुण्यात्मा जन्म-मृत्यु का कष्ट भोग रहे हो फिर आम जीव का कहाँ ठिकाना है? जिस निरंकार को आप प्रभु मान कर पूज रहे हो पूर्ण परमात्मा तो इससे भी भिन्न है। वह मैं ही हूँ। जब से आप मेरे से बिछुड़े हो साठ हजार जन्म तो अच्छे-2 उच्च पद भी प्राप्त कर चुके हो (जैसे सतयुग में यही पवित्र आत्मा राजा अम्ब्रीष तथा त्रेतायुग में राजा जनक(जो सीता जी के पिता जी थे) हुए तथा कलियुग में श्री नानक साहेब जी हुए।) फिर भी जन्म मृत्यु के चक्र में ही हो। मैं आपको सतशब्द अर्थात् सच्चा नाम जाप मन्त्रा बताऊँगा उससे आप अमर हो जाओगे। श्री नानक साहेब जी ने प्रभु कबीर से कहा कि आप बन्दी छोड़ भगवान हो, आपको कोई बिरला सौभाग्यशाली व्यक्ति ही पहचान सकता है।
कबीर सागर के अध्याय ‘‘अगम निगम बोध’’ में पृष्ठ नं. 44 पर शब्द है:-
।।नानक वचन।।
।।शब्द।।
वाह वाह कबीर गुरु पूरा है।
पूरे गुरु की मैं बलि जावाँ जाका सकल जहूरा है।। अधर दुलिच परे है गुरुनके शिव ब्रह्मा जह शूरा है।। श्वेत ध्वजा फहरात गुरुनकी बाजत अनहद तूरा है।। पूर्ण कबीर सकल घट दरशै हरदम हाल हजूरा है।। नाम कबीर जपै बड़भागी नानक चरण को धूरा है।।
विशेष विवेचन:- बाबा नानक जी ने उस कबीर जुलाहे (धाणक) काशी वाले को सत्यलोक (सच्चखण्ड) में आँखों देखा तथा फिर काशी में धाणक (जुलाहे) का कार्य करते हुए तथा बताया कि वही धाणक रूप (जुलाहा) सत्यलोक में सत्यपुरुष रूप में भी रहता है तथा यहाँ भी वही है। श्री नानक जी ने बचपन में श्री बृजलाल पाण्डे जी से गीता जी को समझा था। पूर्ण परमेश्वर कबीर जी के दर्शन के पश्चात् उन्हीं से प्राप्त तत्त्वज्ञान के आधार से उसी पाण्डे से गीता जी के सात श्लोकों के विषय में पूछा। श्री बृजलाल पाण्डे निरूतर हो गया। अपनी बेइज्जती जान कर श्री नानक जी से ईष्र्या करने लगा तथा श्री नानक जी के माता-पिता को तथा अन्य हिन्दुओं को कहा कि श्री नानक तो अपने भगवानों का अपमान करता है। जिससे लोगों ने श्री नानक जी की बातों को ध्यान से नहीं सुना। वे सात श्लोक निम्न हैं -
श्री बृजलाल पाण्डे से श्री नानक जी ने पूछा आप कहते हो कि गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने बोला तथा श्री कृष्ण जी ही श्री विष्णु अवतार हैं। श्री विष्णु जी अजन्मा, सर्वेश्वर, अविनाशी हैं। इनके कोई माता-पिता नहीं हैं। आप यह भी कहते हो कि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव है। यही त्रिगुण माया है। परन्तु गीता ज्ञान दाता प्रभु (1). गीता अध्याय 2 श्लोक 12 में तथा (2). अध्याय 4 श्लोक 5 में अपने आप को नाशवान कह रहा है कि मेरे तो जन्म तथा मृत्यु होते हैं तथा (3). अध्याय 15 श्लोक 4 तथा (4). अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता प्रभु किसी अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कह रहा है तथा उसी की साधना से सर्व सुख तथा पूर्ण मोक्ष संभव है। मैं (गीता ज्ञान दाता) भी उसी की शरण में हूँ। (5). गीता अध्याय 7 श्लोक 15 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि जिनका ज्ञान त्रिगुण माया के द्वारा हरा जा चुका है।
भावार्थ है कि जो साधक तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) की पूजा करते हैं। इनसे अन्य प्रभु की साधना नहीं करते। जिनकी बुद्धि इन्हीं तक सीमित है वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म करने वाले, मूर्ख मुझे नहीं भजते। उपरोक्त तीनों प्रभुओं (गुणों) की पूजा मना है। फिर गीता ज्ञान दाता ब्रह्म (काल) (6). अध्याय 7 श्लोक 18 में अपनी साधना को (अनुत्तमाम्) अति घटिया कह रहा है। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि पूर्ण मोक्ष तथा परम शान्ति के लिए उस परमेश्वर की शरण में जा, (7). गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में प्रमाण है कि उसके लिए किसी तत्त्वदर्शी संत की खोज कर। मैं उस परमात्मा के विषय में पूर्ण जानकारी नहीं रखता। उसी तत्त्वदृष्टा संत द्वारा बताए ज्ञान अनुसार उस परमेश्वर की भक्ति कर। यही प्रश्न परमेश्वर कबीर साहेब जी ने श्री नानक जी से बेई दरिया के किनारे किया था। जिस तत्त्वज्ञान को समझ कर तथा कबीर परमेश्वर के सतपुरुष रूप में सतलोक (सच्चखण्ड) में तथा धाणक रूप में बनारस (काशी में) दर्शन करके समर्पण करके तत्त्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया तथा पूर्ण मोक्ष प्राप्त किया।
विशेष:- पवित्र सिक्ख समाज इस बात से सहमत नहीं है कि श्री नानक साहेब जी के गुरु जी काशी वाला धाणक (जुलाहा) कबीर साहेब जी थे। इसके विपरीत श्री नानक साहेब जी को पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब जी का गुरु जी कहा है। परन्तु श्री नानक साहेब जी के पूज्य गुरु जी का नाम क्या है? इस विषय में पवित्र सिक्ख समाज मौन है, जबकि स्वयं श्री गुरु नानक साहेब जी श्री गुरु ग्रन्थ साहेब जी में महला 1 की अमृतवाणी में स्वयं स्वीकार करते हैं कि मुझे गुरु जी जिंदा रूप में आकार में मिले। वही धाणक (जुलाहा) रूप में सत् कबीर (हक्का कबीर) नाम से पृथ्वी पर भी थे तथा ऊपर अपने सच्चखण्ड में भी वही विराजमान है जिन्होंने मुझे अमृत नाम प्रदान किया।
आदरणीय श्री नानक साहेब जी का आविर्भाव सन् 1469 तथा सतलोक वास सन् 1539 ‘‘पवित्र पुस्तक जीवनी दस गुरु साहिबान‘‘। आदरणीय कबीर साहेब जी धाणक रूप में मृतमण्डल में सन् 1398 में सशरीर प्रकट हुए तथा सशरीर सतलोक गमन सन् 1518 में ‘‘पवित्र कबीर सागर‘‘। दोनों महापुरुष 49 वर्ष तक समकालीन रहे। श्री गुरु नानक साहेब जी का जन्म पवित्र हिन्दू धर्म में हुआ। प्रभु प्राप्ति के बाद कहा कि ‘‘न कोई हिन्दू न मुसलमाना‘‘ अर्थात् अज्ञानतावश दो धर्म बना बैठे। सर्व एक परमात्मा सतपुरुष के बच्चे हैं। श्री नानक देव जी ने कोई धर्म नहीं बनाया, बल्कि धर्म की बनावटी जंजीरों से मानव को मुक्त किया तथा शिष्य परम्परा चलाई। जैसे गुरुदेव से नाम दीक्षा लेने वाले भक्तों को शिष्य बोला जाता है, उन्हें पंजाबी भाषा में सिक्ख कहने लगे। जैसे आज इस दास के लाखों शिष्य हैं, परन्तु यह धर्म नहीं है। सर्व पवित्र धर्मों की पुण्यात्माऐं आत्म कल्याण करवा रही हैं। यदि आने वाले समय में कोई धर्म बना बैठे तो वह दुर्भाग्य ही होगा। भेदभाव तथा संघर्ष की नई दीवार ही बनेगी, परन्तु लाभ कुछ नहीं होगा।
विशेष:- केवल एक ही बात को ‘‘कि कौन किसका गुरु तथा कौन किसका शिष्य है‘‘ वाद-विवाद का विषय न बना कर सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए। कुछ देर के लिए श्री नानक साहेब जी को परमात्मा कबीर साहेब (कविर्देव) जी का गुरु जी मान लें। यह विचार करें कि इन महापुरुषों ने गुरु-शिष्य की भूमिका करके हमें कितनी अनमोल वाणी रच कर दी हैं तथा हम कितना उनका अनुशरण कर पा रहे हैं।
आज किसी व्यक्ति का जन्म पवित्र हिन्दू धर्म में है, वह अपनी साधना तथा ईष्ट को सर्वोच्च मान रहा है। मृत्यु उपरान्त उसी पुण्यात्मा का जन्म पवित्र सिक्ख धर्म में हुआ तो फिर वह उसी साधना को उत्तम मान कर निश्चिंत हो जाएगा, फिर पवित्र मुसलमान धर्म में जन्म मिला तो उपरोक्त साधनाओं के विपरीत पूजा पर आरूढ़ होगा तथा फिर पवित्र ईसाई धर्म में जन्म हुआ तो केवल उसी पूजा पर आधारित हो जाएगा। फिर कभी पवित्र आर्य समाज में वही पुण्यात्मा जन्म लेगी तो केवल हवन यज्ञ करने को ही मुक्ति मार्ग कहेगा। यदि वही पुण्यात्मा पवित्र जैन धर्म में पहुँचेगी तो हो सकता है निवस्त्र रह कर या मुख पर कपड़ा बांध कर नंगे पैरों चलना ही मुक्ति का अन्तिम साधन होगा। उपरोक्त जन्म पूर्ण परमात्मा की भक्ति न मिलने तक होते रहेंगे, क्योंकि द्वापर युग तक अपने पूर्वज एक ही थे तथा वेदों अनुसार पूजा करते थे, अन्य धर्मों की स्थापना नहीं हुई थी। जब श्री गुरु गोबिन्द साहेब जी ने पाँच प्यारों को चुना उनमें से 1. श्री दयाराम जी लाहौर के खत्री परिवार से हिन्दू थे। 2. श्री धर्मदास जी इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) के जाट (हिन्दू) थे। 3. भाई मुहकम चन्द जी ‘छीबे‘ हिन्दू द्वारका वासी 4. भाई साहिब चन्द जी ‘नाई‘ हिन्दू बीदर निवासी 5. भाई हिम्मतमल जी ‘झींवर‘ हिन्दू जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) निवासी थे (‘‘जीवन दस गुरु साहिबान‘‘ लेखक सोढ़ी तेजा सिंह, प्रकाशक भाई चतर सिंघ, जीवन सिंघ अमृतसर, पृष्ठ नं 343-344)।
इसलिए अपने संस्कार मिले-जुले हैं। भले ही उपरोक्त पंच प्यारे उस समय अपनी भक्ति साधना गुरूग्रन्थ साहेब के अनुसार गुरूओं की आज्ञा अनुसार कर रहे थे परन्तु सर्व हिन्दू समाज से सम्बन्ध रखते थे। उस समय गुरूओं के अनुयाईयों को सिक्ख कहते थे। हिन्दी भाषा में शिष्य कहते हैं। इस कारण से एक अलग भक्ति मार्ग पर चलने वाले जन समूह को सिक्ख कहने लगे। अब यह एक अलग धर्म का रूप धारण कर गया है। जैसे वर्तमान में कई पंथों के लाखों अनुयाई हैं। उनको भी अन्य नामों से सम्बोधित किया जाता है। जैसे राधास्वामी पंथ के अनुयाईयों को कहते हैं ये तो राधास्वामी हैं। परन्तु ये सर्व धर्मों के व्यक्त्यिों का समूह है। हो सकता है आने वाले समय में यह एक अलग धर्म का रूप धारण करले परन्तु वर्तमान में अधिकतर हिन्दू समाज और सिक्ख समाज के व्यक्ति हैं।
जो व्यक्ति मांस आहार, मदिरापान तथा अन्य नशीली वस्तु जैसे तम्बाकु(बीड़ी, सिगरेट, हुक्का आदि में) सेवन करता है तथा लूट-खसौट, जीव हिंसा करता है तथा बहन-बेटियों को बुरी नजर से देखता है वह न तो हिन्दू है - न मुसलमान - न सिक्ख - न ईसाई।
क्या उपरोक्त बुराई करने का सर्व पवित्र धर्मों के सद्ग्रन्थों में विवरण है? नहीं। उपरोक्त बुराई युक्त व्यक्ति कभी प्रभु प्राप्ति नहीं कर सकता तथा न ही वह धार्मिक हो सकता।
एक समय यह दास एक दोस्त सिक्ख अधिकारी के साथ किसी सिक्ख की शादी में गया। वहाँ पर श्री गुरु ग्रन्थ साहेब जी के अखण्ड पाठ का भोग पड़ा। सर्व उपस्थित व्यक्तियों ने प्रसाद लिया। फिर खाना खाने के लिए साथ में ही लगे टैंट में प्रवेश हुए। जहाँ पवित्र अमृतवाणी का भोग पड़ा था तथा जहाँ खाना खाया, दोनों के बीच केवल कनात (कपड़ा) लगी थी। खाने को मांस तथा पीने को मदिरा सरे आम थी। जो पाठ कर रहे थे वे भी सर्व प्रथम उसी आहार को प्रेम पूर्वक कर रहे थे। इसलिए सर्व प्रथम हिन्दू तो हिन्दू बनें, मुसलमान बनें मुसलमान, ईसाई बनें ईसाई तथा सिक्ख बनें सिक्ख। फिर हम प्रभु भक्ति करने योग्य होंगे। प्रभु साधना भी अपने सद्ग्रन्थों में वर्णित विधि अनुसार करने से प्रभु प्राप्ति होगी अन्यथा मानव शरीर व्यर्थ हो जाएगा।
हम एक कुल मालिक की संतान हैं। सत्ज्ञान न होने से हिन्दू-मुसलमान के झगड़े, हिन्दू-सिक्ख के झगड़े, मुसलमान-ईसाई के झगड़े धर्म के श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता के कारण हैं। विश्व युद्ध में भी इतना रक्तपात नहीं हुआ होगा, जितना धर्म के खतरे की आड़ में हो चुका है। धार्मिकता के खतरे की तरफ ध्यान न देने से अनेक बुराईयां सर्व पवित्र धर्मों में घर कर चुकी हैं। सर्व पवित्र धर्मों में एक प्रतिशत व्यक्ति होते हैं जो 99 प्रतिशत को आपस में लड़वा कर मरवा देते हैं। इसके विपरीत हिन्दू-हिन्दू को मार रहा है, सिक्ख-सिक्ख को काट रहा है, मुसलमान - मुसलमान को परेशान कर रहा है, ईसाई - ईसाई का दुश्मन बना हुआ है, आर्य समाजी - आर्य समाजी पर ही मुकद्मे किए बैठा है, कबीर पंथी - कबीर पंथियों के दुश्मन बने हैं तथा अन्य आश्रमों तथा डेरों के महन्तों व सन्तों के आपस में कत्ले आम तथा मुकद्में तत्त्वज्ञान के अभाव के कारण ही हो रहे हैं।
मुझ दास का जन्म पवित्र हिन्दू धर्म में हुआ तथा वर्तमान में जो भी पूजाऐं उपलब्ध थी सभी कर रहा था। 17 फरवरी 1988 (फाल्गुन मास की अमावस्या विक्रमी संवत् 2045) को तत्त्वदर्शी संत परम पूज्य स्वामी रामदेवानन्द जी महाराज के दर्शन हुए। उन्होंने जब मुझे यह शास्त्र आधारित तत्त्वज्ञान सुनाया, प्रथम बार ऐसा लगा जैसे किसी नास्तिक से मिलन हो गया हो और मन में आया कि ऐसे व्यक्ति के तो दर्शन भी व्यर्थ होते हैं जो हमारे देवी-देवताओं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश तथा ब्रह्म से भी ऊपर कोई शक्ति बता रहा है। जब इस दास ने महाराज जी के द्वारा बताए शास्त्रों का अध्ययन उनकी पोल खोलने के लिए किया तो मेरी ही पोल खुल गई कि मैं सर्व साधना अपने ही पवित्र शास्त्रों (पवित्र गीता जी व पवित्र वेदों) के विरूद्ध ही कर रहा था। अब दास की प्रार्थना है कि सर्व भक्तजनों को एक बार अवश्य खेद होगा, परन्तु उपरोक्त सद्ग्रन्थों को प्रभु को साक्षी रख कर पुनः पढें तथा मुझ दास के पास सर्व पवित्र धर्मों के सदग्रन्थों के आधार पर वास्तविक भक्ति मार्ग है। निःशुल्क उपदेश प्राप्त करके अपना तथा अपने प्यारे परिवार का कल्याण करवायें।
जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमारा। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा।।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, आपस में हैं भाई-भाई। आर्य, जैनी और बिश्नोई, एक प्रभु के बच्चे सोई।।
कबीरा खड़ा बाजार में, सब की माँगे खैर। ना काहूँ से दोस्ती, ना काहूँ से बैर।।
स्वस्मबेद बोध पृष्ठ160-171
स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 160 से 162 पर सामान्य ज्ञान है।
स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 163 का सारांश:-
‘‘मृत्यु के समय जीव जिस रास्ते से जाता है, उसके भविष्य का ज्ञान‘‘
‘‘अथ जीव के अंत काल वाली वाणी‘‘
अंतकाल जब जिवको आवै। यथा कर्म तस देही पावै।।
हेठ (गुदा) द्वार जब जीव निकाशा। नरक खानिमें ताको बासा।।
गिरे नरक शीस बल जाई। ताही में पुनि रहै समाई।।
नाभिद्वार जो प्रान चलाना। जलचर योनि माहिं प्रकटाना।।
मुत्रद्वार कर जीव पयाना। पशु योनिमें तासु ठिकाना।।
मुख द्वारते जिव कढ़ि आवै। अन्न खानि में बासा पावै।।
श्वास द्वारते जिव जब जाता। अंडज खानि में सो प्रकटाता।।
नेत्र द्वार जब जीव सिधारा। मक्खी आदिक तन सो धारा।।
श्रवण द्वारते जिव जब चाला। प्रेत देह पावै ततकाला।।
दशमद्वारते निकसै प्राना। राजा होय भोग विधि नाना।।
रंभ द्वारते जिव जब जाता। परम पुरूष के लोक समाता।।
इन वाणियों में ‘‘नाभि द्वार’’ का भी वर्णन है। इसको संत गरीबदास जी ने कहा है ‘‘बड़वानल का द्वार है नाभि-नाभि के नीचे’’ अन्य दस द्वार तो सामान्य संत-भक्त भी जानता है, परंतु बारहवें द्वार का ज्ञान केवल इस लेखक (रामपाल दास) को है। अन्य को नहीं है। नाभि द्वार शरीर के अंदर ही खुलता है। इसलिए इसको मुख्य द्वारों में नहीं गिना जाता।
पृष्ठ 164 से 170 तक चार मुक्तियों तथा कबीर परमेश्वर का अंतध्र्यान होने का गलत प्रकरण है। ठीक पढ़ें इसी पुस्तक में कबीर चरित्र बोध के सारांश में।
स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 165 पर सतनाम का कुछ सांकेतिक वर्णन है।
तीन अंश आगे परमाना। ओहं-सोहं को अस्थाना।।
आठ अंश तहवां उपजाए। अंश बंश अस्थान बनाए।।
ओहं-सोहं होत उचारा। जन्म रोगा का यही उपचारा।।
स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 171 का सारांश:-
इस पृष्ठ पर वह अमृतवाणी लिखी है जिसमें महापुरूष कलयुग के पाँच हजार पाँच सौ पाँच (5505) वर्ष बीत जाने के पश्चात् यथार्थ कबीर पंथ प्रारम्भ होगा और जो महापुरूष उस पंथ का संचालक-प्रवर्तक होगा, वह अपने ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाएगा। परमेश्वर कबीर जी का ज्ञान संसार में फैलेगा तथा सारा संसार भक्ति करेगा।
स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 170 पर कुछ वाणी लिखी हैं:-
‘‘स्वस्मबेद बोध की स्फुट वार्ता-चौपाई‘‘
एक लाख असी हजारा। पीर पैगंबर और औतारा।।
सो सब आही निरंजन बंशा। तन धर करें निज पिता प्रशंसा।।670
दश औतार निरंजन केरे। राम कृष्ण सब मांही बडेरे।।
पूरण आप निरंजन होई। यामें फेर फार नहीं कोई।।
भावार्थ:- जो मुसलमान धर्म में एक लाख अस्सी हजार पैगंबर माने गए हैं। हजरत मुहम्मद जी अंतिम नबी (पैगम्बर) माने गए हैं। ये तथा अन्य अवतार जो हिन्दू धर्म में माने जाते हैं। ये सबके सब काल निरंजन के अंश थे और संसार में जन्म लेकर काल की महिमा बताकर काल के पंथ का प्रचार करने आए थे। हिन्दू धर्म में दश अवतार माने गए हैं। उनमें से मुख्य श्री रामचन्द्र तथा श्री कृष्ण चन्द्र जी हैं। काल निरंजन इनमें सर्व शक्तिशाली है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि मैं जो कह रहा हूँ, इसमें कोई हेरफेर नहीं है अर्थात् यह सत्य है। पृष्ठ 171 पर अंकित वाणियों में कहा है कि पूर्ण परमात्मा का यथार्थ ज्ञान देने के लिए मेरा भेजा हुआ मेरा अंश उस समय आएगा, जब कलयुग पाँच हजार पाँच सौ पाँच (5505) वर्ष बीत जाएगा। वह मेरी सत्य साधना का फरमान (संदेश) लेकर आएगा। उस समय हिन्दू तुर्क यानि मुसलमान या अन्य सब धर्मों में जितने जीव संसार में हैं, वे सत्यनाम की महिमा से परिचित होकर निर्वाण (मोक्ष) मार्ग को ग्रहण करेंगे। जितने भी धर्म के नाम के पंथ हैं तथा काल द्वारा भ्रमित करके परमेश्वर कबीर जी के नाम से 12 पंथ चलाए गए हैं, वे सब तत्त्वज्ञान जो वह महापुरूष प्रमाणित करके बताएगा, उसको सुनकर तथा समझकर उस महापुरूष द्वारा चलाए गए तेरहवें यथार्थ कबीर पंथ में स्वतः आकर ऐसे मिल जाएंगे जैसे सरित गण यानि दरियाओं का समूह अपने आप विवश हुआ समुद्र में मिलकर एक हो जाते हैं। इसी प्रकार सर्व धर्म समूह एक हो जाएंगे। जब तक वह निर्धारित समय नहीं आता (5505 वर्ष कलयुग का) तब तक मनुष्यों में छल-कपट, चतुराई करके कर्म खराब करना बना रहेगा और जो यह ज्ञान मैं स्वस्मबेद बोध में कह रहा हूँ, यह भी निराधार लगेगा। जब वह समय आएगा, सब ही स्त्राी-पुरूष शुद्ध आचरण वाले होकर कपट-चतुराई त्यागकर कबीर परमेश्वर जी की शरण प्राप्त करेंगे।
जो धर्म के नाम पर भ्रमित करके काल द्वारा चलाए गए अनेकों पंथ हैं। ये सब फिर से एक हो जाएंगे। उस महापुरूष से सतनाम आदि सर्व मंत्रों की दीक्षा लेकर सब दीक्षित हंस सत्यलोक को जाएंगे। घर-घर में मेरे ज्ञान की चर्चा होगी। कृपा पढ़ें निम्न वाणियाँ:-
‘‘स्वसमबेद बोध‘‘ पृष्ठ 171 से कुछ वाणियाँ:-
दोहा-पांच सहंस अरू पाँच सौ पाँच, जब कलियुग बीत जाय।
महापुरूष फरमान तब, जग तारन को आय।।
हिन्दु तुर्क आदिक सबै, जेते जीव जहान।
सत्य नाम की साख गहि, पावैं पद निर्बान।।
यथा सरितगण आपही, मिलैं सिन्धु में धाय।
सत्य सुकृत के मध्ये तिमि, सबही पंथ समाय।।
जब लगि पूरण होय नहीं, ठीके को तिथि वार।
कपट चातुरी तबहिलों, स्वसमबेद निरधार।।
सबहिं नारि नर शुद्ध तब, जब ठीके का दिन आवन्त।
कपट चातुरी छोड़ि के, शरण कबीर गहंत।।
एक अनेक ह्नै गयो, पुनि अनेक हो एक।
हंस चलै सतलोक सब, सत्यनाम की टेक।।
घर-घर बोध विचार हो, दुमर्ति दूर बहाय।
कलयुग में सब एक होई। बरतें सहज सुभाय।।
कहाँ उगर कहाँ शुद्र हो। हरै सबकी भव पीर (पीड़)।
सो समान समदृष्टि है। समरथ सत्य कबीर।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि मेरी महिमा के ज्ञान की घर-घर चर्चा चलेगी। सबकी दुर्मति समाप्त हो जाएगी। सब परमात्मा से डरने वाले होंगे, कोई शराब, तम्बाकू, माँस का सेवन नहीं करेगा। चोरी, जारी (व्याभिचार), डाके डालना, रिश्वत लेना पाप जानकर सब छोड़ देंगे। शुद्ध होकर सहज स्वभाव से रहा करेंगे। माया जोड़ने की प्रवृति समाप्त हो जाएगी। चाहे कोई डाकू हो, चाहे अन्य मलीन कर्म करने वाला व्यक्ति हो, वह सब बुरे कर्म त्यागकर उस पंथ में दीक्षा लेंगे। सब साधकों की भवपीर यानि संसारिक कष्ट हरेगा यानि सर्व दुःख दूर करेगा। उस पंथ का प्रवर्तक स्वयं कबीर परमेश्वर समान भक्ति-शक्ति समर्थ होगा। सबको समान दृष्टि से देखेगा यानि ऊँच-नीच जाति आधार से किसी में अंतर नहीं करेगा, न राजा तथा रंक में कोई अंतर रहेगा। राजा भी अपने को जनता का सेवक मानकर अपना कर्तव्य करेगा तथा भक्ति को प्राथमिकता देकर जीवन सफल करने के उद्देश्य से कार्य करेगा। इस प्रकार सर्व संसार मोक्ष प्राप्ति का उद्देश्य लेकर जीया करेगा। सबका मोक्ष होगा जो उस संत से दीक्षा लेकर आजीवन मर्यादा में रहकर भक्ति करेगा। स्वस्मवेद बोध अध्याय का सारांश सम्पूर्ण हुआ।
कबीर सागर के अध्याय ‘‘स्वस्मवेद बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।