कबीर सागर का प्रथम अध्याय ‘‘ज्ञान सागर‘‘ है। वास्तव में प्रथम अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ होना चाहिए। यह जिल्द बाँधने वालों से गलती हुई है और वर्तमान तक चली आ रही है। हमें अमृत ज्ञान ग्रहण करना है, वह करते हैं।
इस ‘‘ज्ञान सागर‘‘ अध्याय में परमेश्वर कबीर जी ने अपने निवास स्थान ‘‘सत्यलोक‘‘ तथा उसमें रहने वाले हंस आत्माओं की सतलोक में विशेष स्थिति बताई है जो काल ब्रह्म के लोक में नहीं है।
अथ ज्ञान सागर प्रारम्भ (सारांश)
चौपाई (पृष्ठ 1 से कुछ वाणियाँ)
मुक्ति भेद मैं कहूं विचारी। ता कहं नहीं जानत संसारी।।
बहु आनन्द होत तिहिं ठाऊं। संशय रहित अमरपुर गाऊँ।।
(पृष्ठ 2)
तहंवा रोग शोग नहीं कोई। क्रीड़ा विनोद करें सब कोई।।
चंद्र न सूर दिवस नहीं राती। वर्ण भेद नहीं जाति-अजाति।।
तहंवा जरा-मरण नहीं होई। बहुत आनन्द करें सब कोई।।
पुष्पक विमान सदा उजियारा। अमृत भोजन करत अहारा।।
काया सुंदर ताहि प्रमाना। उदित भये मानो षोड़श भाना।।
इतनौं एक हंस उजियारा। शोभित-शोभित सबै जनु तारा।।
विमल बांस तहां बिगसाई। योजन चार लौं सुबांस उड़ाई।।
सदा मनोहर छत्र सिर छाजा। बूझ न परै रंक और राजा।।
नहीं तहां काल वचन की खानी। अमृत वचन बोलत भल बानी।।
आलस निन्द्रा नहीं प्रकाशा। बहुत प्रेम सुं सुख करै विलासा।।
साखी:- अस सुख है हमारे घर कह कबीर समुझाय।
सत शब्द को जानि के अस्थिर बैठे जाय।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने अपने घर यानि सत्यलोक का वर्णन करते हुए बताया है कि मैं जो पूर्ण मोक्ष मार्ग का भेद बता रहा हूँ। उसको संसार में कोई नहीं जानता। मेरे द्वारा बताए गए मोक्ष मंत्र की साधना करने वाला उस अमरपुर अर्थात् अविनाशी स्थान (सनातन परम धाम) को प्राप्त हो जाता है। (जिसका वर्णन गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में है।) वहाँ पर बहुत आनन्द है। वहाँ पर अमर शरीर प्राप्त होता है जिसमें कभी कोई रोग नहीं लगता। वहाँ पर कोई शोक (चिंता) नहीं है। सर्व मोक्ष प्राप्त आत्माऐं आनन्द करते हैं। उस सत्यलोक में कोई चाँद-सूरज तथा दिन-रात नहीं हैं। वहाँ पर चार वर्ण (ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रीय, शुद्र) नहीं हैं। इसलिए वहाँ जाति भेदभाव नहीं है। हमारे अमरलोक में जरा (वृद्व अवस्था) तथा मरण (मृत्यु) नहीं होता।
{गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक जरा यानि वृद्ध अवस्था तथा मरण (मृत्यु) से मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है, जो इस संसार के किसी वैभव की इच्छा नहीं रखते, वे तत् ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को तथा सर्व कर्मों को जानते हैं। (गीता अध्याय 7 श्लोक 29)
गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने प्रश्न किया कि तत् ब्रह्म क्या है? आध्यात्म, अधिभूत किसे कहते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) ने गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 3 में दिया है। कहा है कि वह परम अक्षर ब्रह्म है। इसी के विषय में गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 8, 9, 10, 19 तथा 20, 21, 22 में और अध्याय 18 श्लोक 46ए 61.62 आदि-आदि अनेकों श्लोकों में वर्णन किया है। इसी मुक्ति का वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी है।}
परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि वहाँ पर वृद्ध अवस्था यानि बुढ़ापे का कष्ट नहीं है। सदा युवा अवस्था रहती है, मृत्यु नहीं होती। सर्व सतलोक निवासी आनन्द से रहते हैं। जिस पुष्पक विमान का वर्णन रामायण में आता है कि जिस समय श्री राम जी लंका के राजा रावण पर विजय प्राप्त करके, रावण को मारकर सीता जी के साथ पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या नगरी आए थे। ऐसे पुष्पक विमान सत्यलोक में प्रत्येक हंस (सत्यलोक में जीव नहीं हंस कहा जाता है) के महल के सामने खड़ा है। जब चाहें उस पर बैठकर घूम सकते हैं। उस सत्यलोक में सदा प्रकाश रहता है। वह सतलोक स्वप्रकाशित है। करोड़ों सूर्यों जितना प्रकाश उस सत्यलोक की धरती का अपना है जिसमें गर्मी नहीं है। इसलिए वहाँ सूर्य की आवश्यकता नहीं है और इसी कारण से दिन-रात भी नहीं हैं। सत्यलोक में प्रत्येक हंस (मानव) के शरीर का सोलह सूर्यों जितना प्रकाश है। यहाँ पर उन हंसों का वर्णन है जो सत्य पुरूष के साथ वाले क्षेत्र में निवास करते हैं। वहाँ केवल नर हैं। जैसा कि सत्यलोक को तीन भागों में बाँटा है। दूसरे भाग में नर तथा नारी रूप में परिवार के साथ हंस रहते हैं। वहाँ पर नर तथा नारी के शरीर का प्रकाश तो सोलह सूर्यों के प्रकाश के समान है, मनोहर छवि है, परंतु विकार किसी में व्याप्त नहीं होते।
अमृत भोजन सब सतलोकवासी करते हैं। सबकी सुंदर काया यानि सुंदर शरीर है जैसे सोलह सूर्य शरीर में उदय हो गए हैं। एक हंस यानि सत्यलोक में मानव के शरीर की इतनी (सोलह सूर्यों जितनी) शोभा है। वहाँ सत्यलोक तथा सत्यपुरूष के प्रकाश में प्रत्येक हंस (देव स्वरूप आत्माऐं) ऐसे दिखाई देते हैं जैसे तारे होते हैं यानि परमेश्वर के शरीर के प्रकाश के सामने थोड़े प्रकाशयुक्त परंतु चमक फिर भी दिखाई देती है। वहाँ पर सबको दिव्य नेत्र प्राप्त होते हैं जो सूक्ष्म से सूक्ष्म को भी देख लेते हैं। सत्यलोक में बहुत अच्छी सुगंध सदैव उठती रहती है। उसकी महक चार योजन यानि 16 कोस तक है। (एक योजन 4 कोस का होता है और एक कोस 3 कि.मी. का होता है, इस प्रकार एक योजन 12 कि.मी. का है।)
सत्यलोक में प्रत्येक देवात्मा (हंस-हंसनी) के सिर के ऊपर दैवीय शक्ति से अपने आप छत्र शोभित रहता है। यदि छत्र लगाना चाहें तो इच्छा करते ही छत्र सिर पर होता है। जब न चाहें तो सिर से हटकर अपने स्थान पर चला जाएगा जो महल में ही होता है। वहाँ पर केवल एक सत्यपुरूष राजा है। अन्य सब प्रजा है। प्रजाजन की शोभा पृथ्वी के राजाओं से असँख्यों गुणा अधिक है। वहाँ कोई रंक (निर्धन) और राजा का अंतर नहीं है। वहाँ पर काल ब्रह्म के वचन यानि भाषा वाली जनता नहीं है जहाँ अपने से निर्बल को कुवचन बोल देते हैं, डाँट लगाते हैं। वहाँ सत्यलोक (सतलोक) में आलस तथा निन्द्रा किसी को नहीं आती, सब बहुत प्रेम से सुख भोगते हैं।
कबीर परमेश्वर जी ने सेठ धर्मदास जी को बताया कि हमारे घर यानि सतलोक में ऐसा सुख है, मैं तेरे को समझाकर कह रहा हूँ। मेरे पास वह सत्य शब्द (सतनाम) है जिसको समझकर स्मरण करके अमर लोक में स्थाई निवास प्राप्त करता है।
अध्याय ज्ञान सागर का सारांश लिखा जा रहा है:- पृष्ठ 2 से 56 तक पुराणों और रामायण तथा श्रीमद् भागवत सुधासागर वाला ज्ञान है। श्री राम की जीवनी, श्री कृष्ण लीला तथा पांडव यज्ञ जो सुपच सुदर्शन जी से संपूर्ण हुआ था, का संक्षिप्त सटीक वर्णन है।
कुछ विशेष जानने योग्य:-
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को सर्व पुराणों, रामायण, गीता तथा सुधा सागर का ज्ञान इसलिए बताया कि धर्मदास यह न समझे कि यह कबीर अपने-अपने ज्ञान को बता रहा है जिसका कोई प्रमाण नहीं और कबीर जी को गीता, पुराण, रामायण, सुधासागर (जिसको भागवत कहते हैं) का ज्ञान नहीं है क्योंकि ये सब संस्कृत में लिखी हैं और कबीर जी अशिक्षित हैं। परमेश्वर कबीर जी के मुख से सत्यज्ञान सुनकर धर्मदास जी परमेश्वर कबीर जी के मुख कमल की ओर देखता ही रह गया। मन में यह निश्चय हो गया कि ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। पृष्ठ 2 से 56 तक के प्रकरण में एक प्रसंग आया है।
कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप जी को पता है कि श्री कृष्ण जी की 8 स्त्रियां तो वे थी जिनसे विवाह किया था, 16 हजार वे स्त्रिायां थी जिनको एक राजा से युद्ध करके छीनकर लाए थे तथा अन्य जो मथुरा-वृंदावन की गोपियां थी, इन सबके साथ श्री कृष्ण जी भोग-विलास (sex) करते थे। एक दुर्वासा ऋषि थे, वे निराहार रहते थे। दिन में केवल एक तिनका दूब घास का खाते थे, दूब को दुर्वा भी कहते हैं। केवल दूब के घास मात्रा तिनके पर आधारित रहने के कारण ऋषि का नाम ‘दुर्वासा‘ प्रसिद्ध हुआ। एक समय कुछ गोपियों को दुर्वासा ऋषि के दर्शन करने की इच्छा हुई, परंतु दुर्वासा ऋषि का आश्रम यमुना (जमना) दरिया के उस पार था। गोपियों ने श्री कृष्ण जी से दुर्वासा ऋषि के दर्शन करने तथा उनको भोजन करवाकर साधुभोज का पुण्य लेने की इच्छा व्यक्त की। श्री कृष्ण जी ने कहा कि बहुत अच्छा उद्देश्य है, जाओ। गोपियों ने समस्या बताई कि यमुना नदी में अथाह जल बह रहा है, कैसे पार करेंगी? श्री कृष्ण जी ने कहा कि तुम जमना नदी के किनारे खड़ी होकर ये शब्द कहना कि ‘‘हे जमना दरिया! यदि श्री कृष्ण जती हैं और हमारे साथ भोग-विलास नहीं किया है तो हमें रास्ता दे दो। जब वापिस आओ तो जमना के किनारे कहना ‘‘हे यमुना दरिया! यदि दुर्वासा ऋषि पवन आहारी हैं तो हमें रास्ता दे दो।‘‘ सैंकड़ों गोपियाँ भोजन के थाल लेकर चली। यमुना नदी के किनारे जब ये शब्द बोले कि ‘‘यदि कृष्ण गोपाल जती हैं और हमारे साथ भोग-विलास नहीं किया है (जती दो प्रकार के होते हैं, एक तो जिसने कभी स्त्री भोग नहीं किया हो, दूसरा जिसने अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्री से कभी मिलन न किया हो। इसी प्रकार स्त्री भी दो प्रकार की सती होती है। स्त्रिायों में तीसरे प्रकार की सती उसे कहा जाता है जो अपने पति की मृत्यु होने पर उसके साथ चिता में जिंदा जल जाती थी, मर जाती थी। जैसे सीता जी को सती कहते हैं, उसने रावण को नहीं स्वीकारा, केवल अपने पति श्री रामचन्द्र पर आश्रित रही। कहते हैं ‘‘जती-सती का जोड़ा, कभी नहीं दुख का फोड़ा) तो हमें रास्ता दे दो। उसी समय जमुना नदी का पानी घुटनों तक आए, इतना गहरा रह गया। सब गोपियाँ नदी पार कर गई, फिर से जमुना दरिया किनारों तक भरकर बहने लगी। यह देखकर सर्व गोपियों ने विचार किया कि श्री कृष्ण जी ने हमारे साथ अनेकों बार विलास किया है, यह कैसा अचरज है? सब गोपियाँ यह विचार करती हुई दुर्वासा ऋषि के आश्रम में पहुँची। ऋषि दुर्वासा के सामने भोजन का थाल रखकर भोजन खाने की प्रार्थना की। ऋषि जी ने कहा, देवियो! मैं आहार नहीं करता, केवल वायु पर या एक तिनका दूब घास खा लेता हूँ। उपस्थित सर्व अनुयाईयों ने यही बताया। तब गोपियों ने कहा, ऋषि जी! हम बड़ी श्रद्धा के साथ भोजन बनाकर लाई हैं। आप भोग नहीं लगाओगे तो हमारा दिल टूट जाएगा। यह कहकर बार-बार विनय करने लगी। तब ऋषि दुर्वासा जी ने सबका भोजन सारा का सारा खा लिया। गोपियों को आश्चर्य भी हुआ और अपने भोजन को खाने से मिलने वाले पुण्य से खुशी भी हुई और अपने गाँव को चल पड़ी। यमुना दरिया पर आकर उनको याद आया कि क्या शब्द कहना है? उन्होंने कहा कि ‘‘हे जमुना दरिया! यदि दुर्वासा जी पवन आहारी हैं तो हमें रास्ता दे दो।‘‘ उसी समय यमुना दरिया का पानी घुटनों तक रह गया। सर्व गोपियाँ दरिया पार कर गई। फिर से यमुना दरिया उसी तरह भरकर वेग से बहने लगी।
कृष्ण जी ने गोपियों से पूछा, कहो कैसा रहा सफर? सब गोपियाँ मुस्करवाकर अपने-अपने घर चली गई और बोली आपको सब पता है।
इस कथा का क्या सारांश है?
संत गरीबदास जी (गाँव=छुड़ानी, जिला-झज्जर, हरियाणा वाले) को परमेश्वर कबीर जी ऐसे ही मिले थे जैसे सेठ धर्मदास जी को मिले थे। उनको भी सतलोक ले जाकर वापिस छोड़ा था। उनको भी तत्त्वज्ञान बताया था। उनका ज्ञान योग खोला था। संत गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी में कहा है:-
गरीब, कृष्ण गोपिका भोग कर, फेर जती कहाया। जाकि गति पाई नहीं, ऐसे त्रिभुवन राया।।
भावार्थ:- श्री कृष्ण जी की रूचि स्त्री भोग करने की नहीं थी। यह कोई पूर्व का संस्कार था। उसका निर्वाह किया था। कृष्ण जी विद्वान थे, जान-बूझकर विलास करना उनका उद्देश्य नहीं था।
ऋषि दुर्वासा तप करे, दुर्वा करे आहार। प्रेम भोज गोपियन का खाया, तनिक न लाई वार।।
दुर्वासा पवन आहारी थे, सब भोजन खाया। श्रद्धालु की श्रद्धा पूर्ण कीनी, ताते भोग लगाया।।
भावार्थ:- ऋषि दुर्वासा जी ने गोपियों की श्रद्धावश भोजन किया। उनकी रूचि खाने की नहीं थी। ऐसा करने से व्रत भंग नहीं हुआ।
श्रीमद्भगवत गीता में लिखा है कि योगी कर्म करता हुआ भी अकर्मी होता है। वास्तव में यह सब काल का जाल है। मन काल का सूक्ष्म रूप है। काल ने प्रत्येक प्राणी को धोखे में रखकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए सौ छल-कपट किए हैं। श्री कृष्ण में प्रवेश करके अनेकों रूप बनाकर काल ब्रह्म स्वयं भोग-विलास करता था। भार श्री कृष्ण जी के सिर पर रख देता था। महिमा श्री कृष्ण जी, श्री राम जी तथा अन्य अपने द्वारा भेजे अवतारों की बनाता है, कार्य स्वयं करता है। सब प्राणी अवतारों को समर्थ मानकर उनके फैन (प्रशंसक) होकर उनकी पूजा करके काल जाल में रह जाते हैं।
ज्ञान सागर के पृष्ठ 56 पर यह भी स्पष्ट किया है कि जिस समय महाप्रलय काल निरंजन करेगा, उस समय ब्रह्मलोक को छोड़कर सब नष्ट हो जाऐंगे। फिर ब्रह्मलोक भी नष्ट होगा।(यहाँ पर अस्पष्ट वर्णन है। प्रलय का वास्तविक ज्ञान पढ़ें।)
महाप्रलय तीन प्रकार की होती है
एक तो काल (ज्योति निरंजन) करता है। महाकल्प के अंत में जिस समय ब्रह्मा जी की मृत्यु होती है {ब्रह्मा की रात्रि एक हजार चतुर्युग की होती है तथा इतना ही दिन होता है। तीस दिन-रात्रि का एक महीना, 12 महीनों का एक वर्ष, सौ वर्ष का एक ब्रह्मा का जीवन। यह एक महाकल्प कहलाता है}
दूसरी महा प्रलय:- सात ब्रह्मा जी की मृत्यु के बाद एक विष्णु जी की मृत्यु होती है, सात विष्णु जी की मृत्यु के उपरान्त एक शिव की मृत्यु होती है। इसे दिव्य महाकल्प कहते हैं उसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव सहित इनके लोकों के प्राणी तथा स्वर्ग लोक, पाताल लोक, मृत्यु लोक आदि में अन्य रचना तथा उनके प्राणी नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल ब्रह्मलोक बचता है जिसमें यह काल भगवान (ज्योति निरंजन) तथा दुर्गा तीन रूपों महाब्रह्मा-महासावित्री, महाविष्णु-महालक्ष्मी और महाशंकर-महादेवी (पार्वती) के रूप, में तीन लोक बना कर रहता है। इसी ब्रह्मलोक में एक महास्वर्ग बना है, उसमें चैथी मुक्ति प्राप्त प्राणी रहते हैं। {मार्कण्डेय, रूमी ऋषि जैसी आत्मा जो चैथी मुक्ति प्राप्त हैं जिन्हें ब्रह्म लीन कहा जाता है वे यहाँ के तीनों लोकों के साधकांे की दिव्य दृष्टि की क्षमता (रेंज) से बाहर होते हैं। स्वर्ग, मृत्यु व पाताल लोकों के ऋषि उन्हें देख नहीं पाते। इसलिए ब्रह्म लीन मान लेते हैं। परन्तु वे ब्रह्मलोक में बने महास्वर्ग में चले जाते हैं।} फिर दिव्य महाकल्प के आरम्भ में काल (ज्योति निरंजन) भगवान ब्रह्म लोक से नीचे की सृष्टि फिर से रचता है। काल भगवान अपनी प्रकृति (माया-आदि भवानी) महासावित्री, महालक्ष्मी व महादेवी (गौरी)के साथ रति कर्म से अपने तीन पुत्रों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) को उत्पन्न करता है। यह काल भगवान उन्हें अपनी शक्ति से अचेत अवस्था में कर देता है। फिर तीनों को भिन्न-2 स्थानों पर जैसे ब्रह्मा जी को कमल के फूल पर, विष्णु जी को समुद्र में शेष नाग की शैय्या पर, शिव जी को कैलाश पर्वत पर रखता है। तीनों को बारी-बारी सचेत कर देता है। उन्हें प्रकृति (दुर्गा) के माध्यम से सागर मंथन का आदेश होता है। तब यह महामाया (मूल प्रकृति/शेराँवाली) अपने तीन रूप बना कर सागर में छुप जाती है। तीन लड़कियों (जवान देवियों) के रूप में प्रकट हो जाती है। तीनों बच्चे (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) इन्हीं तीनों देवियों से विवाह करते हैं। अपने तीनों पुत्रों को तीन विभाग - उत्पत्ति का कार्य ब्रह्मा जी को व स्थिति (पालन-पोषण) का कार्य विष्णु जी को तथा संहार (मारने) का कार्य शिव जी को देता है जिससे काल (ब्रह्म) की सृष्टि फिर से शुरु हो जाती है। जिसका वर्णन पवित्र पुराणों में भी है जैसे शिव महापुराण, ब्रह्म महापुराण, विष्णु महापुराण, महाभारत, सुख सागर, देवी भागवद् महापुराण में विस्तृत वर्णन किया गया है और गीता जी के चैदहवें अध्याय के श्लोक 3 से 5 में संक्षिप्त रूप से कहा गया है।
तीसरी महाप्रलय:- एक ब्रह्मण्ड में 70000 वार त्रिलोकिय शिव (काल के तमोगुण पुत्र) की मृत्यु हो जाती है तब एक ब्रह्मण्ड की प्रलय होती है तथा ब्रह्मलोक में तीन स्थानों पर रहने वाला काल (महाशिव) अपना महाशिव वाला शरीर भी त्याग देता है। इस प्रकार यह एक ब्रह्मण्ड की प्रलय अर्थात् तीसरी महाप्रलय हुई तथा उस समय एक ब्रह्मलोकिय शिव (काल) की मृत्यु हुई तथा 70000 (सतर हजार) त्रिलोकिय शिव (काल के पुत्र) की मृत्यु हुई अर्थात् एक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्म लोक सहित सर्व लोकों के प्राणी विनाश में आते हैं। इस समय को परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का एक युग कहते हैं। इस प्रकार गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का भावार्थ समझना चाहिए।
‘‘इस प्रकार तीन दिव्य महाप्रलय होती हैं’’:-
जब सौ (100) ब्रह्मलोकिय शिव (काल-ब्रह्म) की मृत्यु हो जाती है तब चारों महाब्रह्मण्डों में बने 20 ब्रह्मण्डों के प्राणियों का विनाश हो जाता है।
तब चारों महाब्रह्मण्डों के शुभ कर्मी प्राणियों (हंसात्माओं) को इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बने नकली सत्यलोक आदि लोकों में रख देता है तथा उसी लोक में निर्मित अन्य चार गुप्त स्थानों पर अन्य प्राणियों को अचेत करके डाल देता है तथा तब उसी नकली सत्यलोक से प्राणियों को खाकर अपनी भूख मिटाता है तथा जो प्रतिदिन खाए प्राणियों को उसी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बने चार गुप्त मुकामों में अचेत करके डालता रहता है तथा वहाँ पर भी ज्योति निरंजन अपने तीन रूप (महाब्रह्मा, महाविष्णु तथा महाशिव) धारण कर लेता है तथा वहाँ पर बने शिव रूप में अपनी जन्म-मृत्यु की लीला करता रहता है, जिससे समय निश्चित रखता है तथा सौ बार मृत्यु को प्राप्त होता है, जिस कारण परब्रह्म के सौ युग का समय इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में पूरा हो जाता है। तत् पश्चात् चारों महाब्रह्मण्डों के अन्दर सृष्टि रचना का कार्य प्रारम्भ करता है। {जिस एक सृष्टि में सौ ब्रह्मलोकिय शिव (काल) की आयु अर्थात् परब्रह्म के सौ युग तक सृष्टि रहती है तथा इतनी ही समय प्रलय रहती है अर्थात् परब्रह्म के दो सौ युग (क्योंकि परब्रह्म के एक युग में एक ब्रह्मलोकिय शिव अर्थात् काल की मृत्यु होती है) में एक दिव्य महाप्रलय जो काल द्वारा की जाती है का क्रम पूरा होता है} यह काल अर्थात् ब्रह्म प्रथम अव्यक्त कहलाता है (गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में)। दूसरा अव्यक्त परब्रह्म तथा इससे भी परे दूसरा सनातन अव्यक्त जो पूर्ण ब्रह्म है, गीता अध्याय 8 श्लोक 20 का भाव समझें।
इस महाप्रलय के पाँच बार हो जाने के पश्चात् द्वितीय दिव्य महाप्रलय होती है। दूसरी दिव्य महाप्रलय परब्रह्म (अविगत पुरुष/अक्षर पुरुष) करता है। उसमें काल अर्थात् ब्रह्म (क्षर पुरूष) सहित सर्व 21 ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है। जिसमें तीनों लोक (स्वर्गलोक-मृत्युलोक-पाताल लोक), ब्रह्मा, विष्णु, शिव व काल (ज्योति निरंजन-ओंकार निरंजन) तथा इनके लोकों (ब्रह्म लोक) अर्थात् सर्व अन्य 21 ब्रह्मण्डों के प्राणी नष्ट हो जाते हैं।
विशेष:- सात त्रिलोकिय ब्रह्मा की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात विष्णु की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव की मृत्यु होती है। 70000 (सतर हजार) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के बाद एक ब्रह्मलोकिय शिव अर्थात् काल (ब्रह्म) की मृत्यु परब्रह्म के एक युग के बाद होती है। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का एक दिन तथा इतनी ही रात्रि होती है। तब प्रकृति (दुर्गा) सहित काल (ज्योति निरंजन) अर्थात् ब्रह्म तथा इसके इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्राणी विनाश में आते हैं। तब परब्रह्म (दूसरे अव्यक्त) का एक हजार युग का दिन समाप्त होता है। इतनी ही रात्रि व्यतीत होने के उपरान्त ब्रह्म को फिर पूर्ण ब्रह्म प्रकट करता है। गीता अ. 8 श्लोक 17 का भाव ऐसे समझें। परन्तु ब्रह्मण्डों व महाब्रह्मण्डों व इनमें बने लोकों की सीमा (गोलाकार दिवार समझो) समाप्त नहीं होती। फिर इतने ही समय के बाद यह काल तथा माया (प्रकृति देवी) को पूर्ण ब्रह्म (सत्यपुरूष) अपने द्वारा पूर्व निर्धारित सृष्टि कर्म के आधार पर पुनः उत्पन्न करता है तथा सर्व प्राणी जो काल के कैदी (बन्दी) हैं, को उनके कर्माधार पर शरीरों में सृष्टि कर्म नियम से रचता है तथा लगता है कि परब्रह्म रच रहा है {यहाँ पर गीता अ. 15 का श्लोक 17 याद रखना चाहिए जिसमें कहा है कि उत्तम प्रभु तो कोई और ही है जो वास्तव में अविनाशी ईश्वर है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण-पोषण करता है तथा गीता अ. 18 के श्लोक 61 में कहा है कि अन्तर्यामी ईश्वर सर्व प्राणियों को यन्त्रा (मशीन) के सदृश कर्माधार पर घुमाता है तथा प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित है।
गीता के पाठकों को फिर भ्रम होगा कि गीता अ. 15 के श्लोक 15 में काल (ब्रह्म) कहता है कि मैं सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ तथा सर्व ज्ञान अपोहन व वेदों को प्रदान करने वाला हूँ।
हृदय कमल में काल भगवान महापार्वती (दुर्गा) सहित महाशिव रूप में रहता है तथा पूर्ण परमात्मा भी जीवात्मा के साथ अभेद रूप से रहता है जेसे वायु रहती है गंध के साथ। दोनों का अभेद सम्बन्ध है परन्तु कुछ गुणों का अन्तर है। गीता अ. 2 के श्लोक 17 से 21 में भी विस्तृत विवरण है। इस प्रकार पूर्ण ब्रह्म भी प्रत्येक प्राणी के हृदय में जीवात्मा के साथ रहता है जैसे सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी उसकी ऊष्णता व प्रकाश का प्रभाव प्रत्येक प्राणी से अभेद है तथा जीवात्मा का स्थान भी हृदय ही है।
विशेष:- एक महाब्रह्माण्ड (जो पाँच ब्रह्माण्डों का समूह है) का विनाश परब्रह्म के 100 वर्षों के उपरान्त होता है। इतने ही वर्षों तक एक महाब्रह्मण्ड में प्रलय रहती है।
काल अर्थात् ब्रह्म (ज्योति निरंजन) को तो ऐसा जानों जैसे गर्मियों के मौसम में राजस्थान-हरियाणा आदि क्षेत्रों में वायु का एक स्तम्भ जैसा (मिट्टी युक्त वायु) आसमान में बहुत ऊँचे तक दिखाई देता है तथा चक्र लगाता हुआ चलता है। जो अस्थाई होता है। परन्तु गंध तो वायु के साथ अभेद रूप में है। इसी प्रकार जीवात्मा तथा परमात्मा का सुक्ष्म सम्बन्ध समझे। ऐसे ही सर्व प्रलय तथा महाप्रलय के क्रम को पूर्ण परमात्मा (सत्यपुरूष, कविर्देव) से ही होना निश्चित समझे। एक हजार युग जो परब्रह्म की रात्रि है उसके समाप्त होने पर काल (ज्योति निरंजन) सृष्टि फिर से सत्यपुरूष कविर्देव की शब्द शक्ति से बनाए समय के विद्यान अनुसार प्रारम्भ होती है। अक्षर पुरुष(परब्रह्म) पूर्ण ब्रह्म (सतपुरूष) के आदेश से काल (ज्योति निरंजन) व माया (प्रकृति अर्थात् दुर्गा) को सर्व प्राणियों सहित काल के इक्कीस ब्रह्मण्ड में भेज देता है तथा पूर्ण ब्रह्म के बनाए विद्यान अनुसार सर्व ब्रह्मण्डों में अन्य रचना प्रभु कबीर जी की कृपा से हो जाती है। माया (प्रकृति) तथा काल (ज्योति निरंजन) के सूक्ष्म शरीर पर नूरी शरीर भी पूर्ण परमात्मा ही रचता है तथा शेष उत्पत्ति ब्रह्म(काल) अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति) के संयोग से करता है। शेष स्थान निरंजन पाँच तत्त्व के आधार से रचता है। फिर काल (ज्योति निरंजन अर्थात् ब्रह्म) की सृष्टि प्रारम्भ होती है। इस प्रकार यह परब्रह्म दूसरा अव्यक्त कहलाता है।}
जैसा कि पूर्वोक्त विवरण में पढ़ा कि सत्तर हजार काल (ब्रह्म) के शिव रूपी पुत्रों की मृत्यु के पश्चात् एक ब्रह्म (महाशिव) की मृत्यु होती है वह समय परब्रह्म का एक युग होता है। इसी के विषय में गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 तथा 9 में, अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि मेरी भी जन्म मृत्यु होती है। बहुत से जन्म हो चुके हैं। जिनको देवता लोग (ब्रह्मा,विष्णु तथा शिव सहित) व महर्षि जन भी नहीं जानते क्योंकि वे सर्व मुझ से ही उत्पन्न हुए हैं। गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में कहा है कि मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। परब्रह्म के एक युग में काल भगवान सदाशिव वाला शरीर त्यागता है तथा पुनः अन्य ब्रह्मण्ड में अन्य तीन रूपों में विराजमान हो जाता है। यह लीला स्वयं करता है। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का होता है इतनी ही रात्रि होती है। तीस दिन-रात का एक महीना, बारह महीनों का एक वर्ष तथा सौ वर्ष की परब्रह्म (द्वितीय अव्यक्त) की आयु होती है। उस समय परब्रह्म की मृत्यु होती है। यह तीसरी दिव्य महाप्रलय कहलाती है। तीसरी दिव्य महा प्रलय में सर्व ब्रह्मण्ड तथा अण्ड जिसमें ब्रह्म (काल) के इक्कीस ब्रह्मण्ड तथा परब्रह्म के सात शंख ब्रह्मण्ड व अन्य असंख्यों ब्रह्मण्ड नाश में आवेंगे। धूंधूकार का शंख बजेगा। सर्व अण्ड व ब्रह्मण्ड नाश में आवेंगे परंतु वह तीसरी दिव्य महा प्रलय बहुत समय प्रयन्त होगी। वह तीसरी (दिव्य) महा प्रलय सतपुरुष का पुत्र अचिंत अपने पिता पूर्ण ब्रह्म (सतपुरूष) की आज्ञा से सृष्टि कर्म नियम से जो पूर्णब्रह्म ने निर्धारित किया हुआ है करेगा और फिर सृष्टि रचना होगी। परंतु सतलोक में गए हंस दोबारा जन्म-मरण में नहीं आऐंगे। इस प्रकार न तो अक्षर पुरुष (परब्रह्म) अमर है, न काल निरंजन (ब्रह्म) अमर है, न ब्रह्मा (रजगुण), विष्णु (सतगुण), शिव (तमगुण) अमर हैं। फिर इनके पूजारी (उपासक) कैसे पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं? अर्थात् कभी नहीं। इसलिए पूर्णब्रह्म की साधना करनी चाहिए जिसकी उपासना से जीव सतलोक (अमरलोक) में चला जाता है। फिर वह कभी नहीं मरता, पूर्ण मुक्त हो जाता है। वह पूर्ण ब्रह्म (कविर्देव) तीसरा सनातन अव्यक्त है। जो गीता अ. 8 के श्लोक 20,21 में वर्णन है।
‘‘अमर करुं सतलोक पठाऊं, तातैं बन्दी छोड़ कहांउ‘‘
उसी पूर्ण परमात्मा का प्रमाण गीता जी के अध्याय 2 के श्लोक 17 में, अध्याय 3 के श्लोक 14,15 में, अध्याय 7 के श्लोक 13 और 19 में, अध्याय 8 के श्लोक 3, 4, 8, 9, 10, 20, 21, 22 में, अध्याय 13 श्लोक 12 से 17 तथा 22 से 24, 27, 28, 30-31 व 34 तथा अध्याय 4 श्लोक 31-32, अध्याय 6 श्लोक 7, 19-20, 25 से 27 में तथा अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62 में भी विशेष रूप से प्रमाण दिया गया है कि उस पूर्ण परमात्मा की शरण में जा कर जीव फिर कभी जन्म मरण में नहीं आता है।
{विशेष:- यह काल कला समझने के लिए यह विवरण ध्यान रखें कि त्रिलोक में एक शिव जी है। जो इस काल का पुत्र है जो 7 त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु तथा 49 त्रिलोकिय ब्रह्मा जी की मृत्यु के उपरान्त मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐसे ही काल भगवान एक ब्रह्मण्ड में बने ब्रह्मलोक में महाशिव रूप में भी रहता है। परमेश्वर द्वारा बनाए समय के विद्यान अनुसार सृष्टि क्रम का समय बनाए रखने के लिए यह ब्रह्मलोक वाला महाशिव (काल) भी मृत्यु को प्राप्त होता है। जब त्रिलोकिय 70000 (सतर हजार) ब्रह्म काल के पुत्र शिव मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं तब एक ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्म/क्षर पुरुष) पूर्ण परमात्मा द्वारा बनाए समय के विद्यान अनुसार परवश हुआ मरता तथा जन्मता है। यह ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्म/काल) की मृत्यु का समय परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का एक युग होता है। इसीलिए गीता जी के अ. 2 के श्लोक 12, गीता अ. 4 श्लोक 5, गीता अ. 10 श्लोक 2 में कहा है कि मेरे तथा तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। मैं जानता हूँ तू नहीं जानता। मेरे जन्म अलौकिक (अद्भुत) होते हैं।}
अद्भुत उदाहरण:- आदरणीय गरीबदास साहेब जी सन् 1717 (संवत् 1774) में श्री बलराम जी के घर पर माता रानी जी के गर्भ से जन्म लेकर 61 वर्ष तक शरीर में गांव छुड़ानी जिला झज्जर में रहे तथा सन् 1778 (विक्रमी संवत् 1835) में शरीर त्याग गए। आज भी उनकी स्मृति में एक यादगार बनी है जहाँ पर शरीर को जमीन में सादर दबाया गया था। जिसको छतरी साहेब के नाम से जाना जाता है। छः महीने के उपरान्त वैसा ही शरीर धारण करके आदरणीय गरीबदास साहेब जी 35 वर्ष तक अपने पूर्व शरीर के शिष्य श्री भक्त भूमड़ सैनी जी के पास शहर सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में रह कर शरीर त्याग गए। वहाँ भी आज उनकी स्मृति में यादगार बनी है। स्थान है:- चिलकाना रोड़ से कलसिया रोड़ निकलता है, कलसिया रोड़ पर आधा किलोमीटर चल कर बाएँ तरफ यह अद्वितीय पवित्र यादगार विद्यमान है तथा उस पर एक शिलालेख भी लिखा है, जो प्रत्यक्ष साक्षी है। उसी के साथ में बाबा लालदास जी का बाड़ा भी बना है।
ज्ञान सागर के पृष्ठ 57 से 70 तक तीन युगों में प्रकट होने का प्रकरण है जो पूर्ण रूप से गलत उलट-पटांग करके लिखा है जिसका कोई सिर-पैर नहीं है। यथार्थ ज्ञान पढ़ें कबीर चरित्र बोध के सारांश में इसी पुस्तक के पृष्ठ 473 से 516 तक।
ज्ञान सागर के पृष्ठ 71 से आगे कलयुग में कबीर नाम से प्रकट होने का प्रकरण है। राजा बीर सिंह बघेल, बिजली खान पठान तथा राजा सिकंदर को शरण में लेने का अपुष्ट और पूर्ण रूप से गलत है। पृष्ठ 72 पर नीरू को नूरी लिखा है। कलयुग में प्रकट होने का वास्तविक ज्ञान आप जी कबीर चरित्र बोध के सारांश में पढ़ें।
अन्य प्रकरण बीर सिंह को शरण में लेने का पूर्ण विवरण कबीर सागर के आठवें अध्याय में लिखा है। ज्ञान सागर अध्याय की कोई आवश्यकता नहीं थी। यह काल प्रेरित व्यक्तियों का कारनामा है। 40 अध्याय बनाए हैं। कबीर सागर में ये कुल 9 या 10 अध्याय हैं जिनको बार-बार घटा-बढ़ाकर व्यर्थ का ग्रन्थ विस्तार किया है। अधिकतर अध्यायों में वही प्रकरण बार-बार लिखा है।
प्रमाण:- परमेश्वर कबीर जी के कलयुग में प्रकाट्य को कई अध्यायों में लिखा है। वह भी अपुष्ट (अधूरा) तथा कुछ बनावटी लिखा है।
कंवारी गाय (बछिया) का दूध पीना:-
‘‘ज्ञान सागर‘‘ पृष्ठ 74, फिर ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1794 से 1796, ‘‘स्वसमवेद बोध‘‘ पृष्ठ 134
कबीर जी के नाम से 12 पंथों का चलना:-
‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 134, 136, 137, ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1870, 1835, स्वसमवेद बोध पृष्ठ 155 पर लिखे हैं।
कबीर परमेश्वर द्वारा चार गुरू निर्धारित करना:-
‘‘अम्बुसागर‘‘ पृष्ठ 63, ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1863 से 1866, ‘‘ज्ञान बोध‘‘ 35, अनुराग सागर पृष्ठ 104, 105, 113
विवेचन:- कबीर सागर के अध्याय ‘‘ज्ञान बोध‘‘ के पृष्ठ 35 पर लिखा है कि कबीर जी ने बताया है, हे धर्मदास! चारों युगों में एक-एक आत्मा को मैंने गुरू पद प्रदान किया है। भावार्थ है कि परमेश्वर जी प्रत्येक युग में प्रकट होते हैं और एक-एक अच्छी आत्मा को मिलते हैं। उनको अपना परिचय कराते हैं जैसे धर्मदास जी को करवाया है।
सतजुग शिष्य सहते जी कहाये। द्वापर चतुर्भुज नाम सुनाये।।
त्रोता शिष्य वकेजी भाई। कलयुग में धर्मदास गुसाईंं।।
यह प्रकरण सही है। यही प्रमाण ‘‘अनुराग सागर‘‘ पृष्ठ 104, 105 तथा 113 पर भी है। उसमें भी धर्मदास जी को चैथा गुरू लिखा है। हनुमान बोध पृष्ठ 132 पर पंक्ति नं. 10 में लिखा है कि हनुमान को समझाकर त्रोतायुग में ही चतुर्भुज को मिला, फिर मिलावट करके वाणी बनाई है। पंक्ति नं. 12 में लिखा है कि चतुर्भुज को दरभंगा में गुरू पद दिया। त्रोता का वर्णन है, कलयुग से जोड़ने की कुचेष्टा की है, मिलावट है और जो ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1863.1866 तथा ‘‘अम्बु सागर‘‘ पृष्ठ 63 पर कहा है कि:-
चार गुरू हैं जग कड़िहारा। सुकृत अंश आदि अधिकारा।।
वंके जी, चतुर्भुज और सहते जी। सुकृति जग में चैथे भेजी।।
जग में नाम होंहि धर्मदासु। जीवन ले राखे सुख वासु।।
भावार्थ:- इस उल्लेख में स्पष्ट है कि श्री धर्मदास जी को ‘‘सुकृति‘‘ कहा है जो चैथे नम्बर पर भेजा है यानि पहले तीन पुण्यात्माओं को गुरूवाई मिल चुकी थी। तब चैथे सुकृति (धर्मदास जी) को परमेश्वर कबीर जी ने गुरूवाई सौंपी है। यह विवरण ‘‘ज्ञान बोध‘‘ पृष्ठ 35 तथा ‘‘अनुराग सागर‘‘ पृष्ठ 104, 105, 113 वाले से मेल करता है जो ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1862-1863 पर कबीर पंथी दामाखेड़ा वालों ने मनघड़न्त कथा बनाई है कि कलयुग में कबीर जी ने चार जनों को गुरू पद सौंपा है। पहले धर्मदास जी हैं और शेष तीन अभी आए नहीं हैं। 2. चतुर्भुज 3. वंके जी 4. सहत जी। यह भी लिखा है कि अभी तक केवल धर्मदास जी ही प्रकट हैं, अन्य आने शेष हैं। यह प्रकरण गद्य भाग में कहानी की तरह मनघड़न्त बनाकर लिखा है जबकि पृष्ठ 1864 (कबीर चरित्र बोध) पर ‘‘चारों गुरूओं की प्रशंसा-उर्दू सेर‘‘ लिखा है जो मनघड़न्त है। उसी के आधार से मनमुखी कथा बनाई है। इस प्रकार कबीर जी के वास्तविक साहित्य की बुरी दशा हुई है। फिर भी सच्चाई प्रत्यक्ष दिखाई देती है।
यह पृष्ठ 1865 -1866 पर धर्मदास जी की आने वाली संतान से जो गुरू पद प्राप्त करेंगे, उनके आगे साहब लिखा है। यदि ये सेर कबीर साहेब जी ने कहे होते तो साहब कभी नहीं लगाते। सुदर्शन साहब, कमलनाम साहब, धीरजनाम साहब, फिर लिखा है कि चैदहवीं गद्दी वाला करूनाम साहब होगा जबकि वर्तमान में गद्दी पर चैदहवें गुरू श्री प्रकाश मुनि नाम साहब बैठे हैं।
15वें का कोई नाम नहीं, 16वां उदित नाम साहब लिखा है। पाठकों को सहज में ज्ञान हो जाएगा कि सत्य क्या है?
कबीर सागर के अध्याय ‘‘अनुराग सागर‘‘ के पृष्ठ 138 से 141 पर और ‘‘अमर मूल‘‘ पृष्ठ 243 पर:-
विवेचन:- अनुराग सागर पृष्ठ 140 पर परमात्मा ने बताया है कि चुड़ामणि (मुक्तामणि) तेरा बिंद पुत्र है। उससे तेरी वंश गुरू गद्दी प्रारम्भ होगी। फिर छठी पीढ़ी तेरी आएगी। उसको ‘‘टकसारी पंथ‘‘ वाला नकली कबीर पंथी भ्रमित करेगा। वह छठी पीढ़ी वाला वास्तविक नाम तथा क्रिया छोड़कर टकसारी वाली (पान प्रवाना) दीक्षा लेगा। टकसारी पंथ में चल रही चैंका आरती करेगा जो हमारे वास्तविक भक्ति मार्ग से विपरीत होने से व्यर्थ होगा। बहुत जीवों को चैरासी लाख के चक्र में डालेगा। धर्मदास जी ने कहा है कि हे परमात्मा! आप एक और तो कह रहे थे कि तेरे बयालिस पीढ़ी वाले बिन्द यानि वंश वालों से सबका कल्याण होगा। अब कह रहे हो कि छठी पीढ़ी के पश्चात् काल वाली साधना चलेगी और मोक्ष मार्ग से भटक जाऐंगे। यह बात समझाऐं।
अनुराग सागर पृष्ठ 140 से ऊपर से वाणी पंक्ति नं. 1 से 12 तक:-
नाद बिंद जो पंथ चलावै। चुरामणि हंसन मुक्तावै।।1
धर्मदास तव बंश अज्ञाना। चीन्हैं नहीं अंश सहिदाना।।2
जस कछु आगे होई है भाई। सो चरित्र तोहि कहों बुझाई।।3
छटे पीढ़ी बिन्द तव होई। भूले वंश बिन्दु तव सोई।।4
टकसारी को ले है पाना। अस तव बिन्द होय अज्ञाना।।5
चाल हमारी बंश तव झाड़ै। टकसारी का मत सब मांडै।।6
चैंका तैसे करै बनाई। बहुत जीव चैरासी जाई।।7
आपा हंस अधिक होया ताही। नाद पुत्र से झगर कराही।।8
होवे दुर्मति वंश तुम्हारा। बचन बंश रोके बटपारा।।9
भावार्थ:- कबीर जी ने श्री चुड़ामणि पुत्र सेठ धर्मदास जी को दीक्षा दी थी। इस कारण से चुड़ामणि को नाद तथा बिन्द दोनों नामों से संबोधित किया है। बिन्द तो धर्मदास का पुत्र होने से कहा है। बताया है कि चुरामणि (चुड़ामणि) से तेरे वंश वालों की गुरू पीढ़ी प्रारम्भ होगी, परंतु जो कुछ आगे तेरे वंश गद्दी वालों के साथ काल का छल होगा, वह बताता हूँ, सुन। हे धर्मदास! तेरा वंश अज्ञानी है जो छठी पीढ़ी वाला गद्दीनशीन होगा, वह मेरे द्वारा बताया यथार्थ भक्ति मार्ग त्यागकर टकसारी वाले नकली कबीर पंथी महंत वाली भक्ति विधि ग्रहण करेगा, उसी तरह आरती चैका किया करेगा। इस प्रकार आगे आने वाली तेरी वंश परंपरा वाले महंतों से दीक्षा लेकर बहुत सारे जीव चैरासी लाख के चक्र में चले जाऐंगे। उनका जीवन नष्ट हो जाएगा। यदि कोई मेरे पंथ को नाद (शिष्य परंपरा) वाला आगे बढ़ाएगा। उसके साथ तेरे वंश गद्दी वाले झगड़ा करेंगे। हे धर्मदास! तेरा वंश दुर्मति को प्राप्त हो जाएगा और वह ठग होकर वचन (नाद) वाले पंथ को रोकेगा।
धर्मदास वचन
अब तो संशय भयो अधिकाई। निश्चय वचन करो मोहि साईं।।10
प्रथम आप वचन असभाषा निर संशय महां ब्यालीस राखा।।11
अब कहहु काल बश परि हैं। दोई बात किहि विधि निस्तरी है।।12
भावार्थ:- धर्मदास जी ने कबीर परमेश्वर से कहा कि अब तो मेरे को और अधिक शंका हो गई। मुझे विश्वास दिलाओ। पहले तो आपने ऐसे कहा कि तेरे वंश वालों से सर्व मानव का कल्याण होगा। अब आप कह रहे हो कि तेरी छठी पीढ़ी वाला भ्रमित होकर काल साधना करेगा-कराएगा। ये दोनों बातें कैसे सत्य हो सकती हैं?
कबीर वचन
परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि मैंने तेरे पुत्र को दीक्षा देकर आगे दीक्षा देने का अधिकार दे दिया है। यदि आगे आने वाले गुरू गद्दी वाले सत्य साधना त्यागकर काल साधना करेंगे तो फिर मेरा क्या दोष है? फिर मैं तो अपना कोई नाद (शिष्य) भेजूंगा जो मेरे पंथ को बढ़ाएगा। यथार्थ भक्ति मार्ग से भ्रमित जगत को सत्य भक्ति मार्ग दृढ़ करेगा। जब-जब तेरे बिन्द (वंश) वालों को काल छलेगा। तब मैं सहायता करूँगा। मैं नाद हंस (शिष्य परंपरा) प्रकट करूँगा। नाद पुत्र यानि शिष्य रूपी पुत्र जो हमारा होगा, उससे मेरे पंथ का प्रकाश होगा। हे धर्मदास! अपने वचन वंश को समझा दो यानि चुड़ामणि को समझा दो कि वह सबको बताए कि कभी काल झटका दे जाए तो नाद वंश वाले से दीक्षा लेकर अपना मोक्ष करा लें।
विशेष:- वर्तमान में मेरे (रामपाल) द्वारा चलाया गया यह तेरहवां पंथ है। यह दास (रामपाल दास) अंतिम सतगुरू है। नामदान प्रकाश पुंज शरीर (electronic body) यानि DVD से दिया जाएगा। अब के बाद नाद तथा बिंद का कोई चक्कर नहीं रहेगा। पहले भक्ति विधि गलत कर देते थे। जिस कारण से बिंद वाले पंथ भक्ति मार्ग को नष्ट कर देते थे। भक्ति विधि ठीक रहेगी तो साधकों का मोक्ष निश्चित है। अब तो क्टक् से दीक्षा दिलाई जाएगी। उसे वही दिलाएगा जिसको आदेश दिया जाएगा। वह चाहे बिन्द का हो, चाहे नाद का। कल्याण नाम दीक्षा से होना है। पंथ तो अब कोई भी नष्ट नहीं कर सकेगा। कलयुग में सत्य साधना चलेगी। विश्व का कल्याण होगा। जो अहंकारी व काल प्रेरित है, वे अपना कर्म खराब करते रहेंगे। काल के जाल में रह जाऐंगे। वे अपनी महिमा बनाने के लिए मेरे ज्ञान व विधान में त्रुटि निकालकर अपने अज्ञान का परिचय देंगे। मेरे भक्त ज्ञानवान हो चुके हैं। उनके काल जाल में नहीं आऐंगे।
अध्याय ‘‘अनुराग सागर‘‘ पर पृष्ठ 141 पर लिखा है:-
चारहूं युग देखो संवादा। पंथ उजागर कीन्हो नादा।।
कहाँ निर्गुण कहाँ सर्गुण भाई। नाद बिना नहिं चलै पंथाई।।
धर्मनि नाद पुत्र तुम मोरा। ताते दीन्ह मुक्ति का डोरा।।
याह विध हम बयालीस तारैं। जब गिरै वह तबै उभारै।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट कर दिया है कि नाद पुत्र किसे कहते हैं? कहा कि जैसे धर्मदास तुम मेरे वचन के पुत्र हो यानि शिष्य रूप में नाद के पुत्र हो। ऐसे जब नाद वाला मेरा अंश प्रकट होगा, तब यदि तेरे बिन्द वाले भी उस नाद वाले से दीक्षा लेकर नाम जाप करेंगे तो तेरे बिन्द वाले भी पार हो जाऐंगे। इस प्रकार तेरे बयालीस पीढ़ी वालों को पार करूँगा। यदि तेरा बिन्द मेरे नाद के वचन नहीं मानेगा, देखते ही देखते उन जीवों को काल खा जाएगा। कबीर जी ने स्पष्ट कर दिया है कि:-
कहाँ नाद कहाँ बिन्द ने भाई। नाम भक्ति बिन लोक न जाई।।
भावार्थ:- चाहे कोई नाद वाला है, चाहे बिन्द वाला है। यदि नाम की वास्तविक भक्ति है तो सतलोक जा सकेगा।
कबीर सागर के अध्याय ‘‘कबीर बानी’’ में पृष्ठ 132 पर स्पष्ट किया है कि कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! तू हमारा अंश है। मैं तेरे को एक गुप्त वस्तु का भेद बताता हूँ जो मैंने गुप्त रखी है। सात सुरति तो उत्पत्ति करने वाली हैं। तुम आठवीं सुरति हो तथा नौतम (नौंवी) सुरति मैंने गुप्त छुपाई है। नौतम सुरति मेरा निज वचन है यानि उसको पूर्ण मोक्ष मंत्र का अधिकार है जिससे दीक्षा लेने के पश्चात् काल चोर उस जीव को रोक नहीं सकता। धर्मदास जी ने प्रार्थना की कि हे परमात्मा! मुझे वह वचन बताओ जिससे जीव फिर से जन्म-मरण के चक्र में न आए। परमात्मा कबीर जी ने कहा कि आठ बूँद यानि सतलोक में स्त्राी-पुरूष से उत्पन्न हंसों से जीव मुक्त कराने की योजना बनाई थी। तुम आठवीं बूँद हो। परंतु सबको काल ने भ्रमित कर दिया। अब नौंवी बूँद यानि नौतम सुरति से तुम सहित आठों की मुक्ति कराई जाएगी। नौतम सुरति बूँद प्रकाशा यानि नौंवे हंस का जन्म संसार में बूँद यानि माता-पिता से होगा। उस एक बूँद से तेरे बीयालिस बूँद वाले हंस पार कर दिए यानि आशीर्वाद दे दिया है, ऐसा होगा।
वाणी:- वंश बीयालिस बून्द तुम्हारा। सो मैं एक बून्द (वचन) से तारा। (कबीर बानी पृष्ठ 132-133 पर)
अनुराग सागर में पृष्ठ 142 पर:-
बिन्द तुम्हारा नाद संग जावै। देखत दूत मन ही पछतावै।।
भावार्थ:- हे धर्मदास! तेरा वंश नाद वाले के साथ जाएगा यानि नाद वाले से दीक्षा लेगा तो काल के दूत निकट नहीं आऐंगे। वे भाग जाऐंगे, बहुत पश्चाताप करेंगे कि यह तो पार होगा। भावार्थ है कि परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट कर दिया है कि धर्मदास जी की छठी पीढ़ी के पश्चात् काल की साधना चलेगी। टकसारी पंथ (जो नकली बारह कबीर पंथों में से एक है) वाली भक्ति विधि आरती चैंका, उसी नाम वाला मंत्र (अजर नाम, अमर नाम, पाताले सप्त सिंधु नाम आदि-आदि) दीक्षा में दिया जाता है। जो दामाखेड़ा (छत्तीसगढ़) वाले महंत जी दीक्षा दे रहे हैं, वह टकसारी वाली साधना है जो व्यर्थ है।
कबीर सागर के अध्याय ‘‘अमर मूल‘‘ के पृष्ठ 242-243 पर दामाखेड़ा वालों ने मिलावट करके लिखी वाणी में कहा है कि सातवीं पीढ़ी वाला तो अभिमानवश विचलित हो जाएगा, परंतु आठवीं पीढ़ी से पंथ का प्रकाश हो जाएगा, परंतु परमात्मा ने वाणी में स्पष्ट किया है कि:-
जो तेरी वंश पीढ़ी वाले गुरू हैं, उनका नाम तो स्वर्ग तक है। आठवां भी काल अपना दूत भेजेगा। इस प्रकार काल बहुत छल करेगा। तुम्हारे वंश का यह लेखा बता दिया है कि बिना सारशब्द के मुक्ति नहीं हो सकती। सारशब्द केवल धर्मदास जी को दिया था और धर्मदास जी से प्रतिज्ञा करा ली कि यह सारशब्द किसी को नहीं देना। अपने वंश को भी नहीं बताना। हे धर्मदास! तेरे को लाख दुहाई, यह सारशब्द तेरे अतिरिक्त किसी के पास नहीं जाना चाहिए। यदि यह सार शब्द किसी के हाथ लग गया तो वह अन् अधिकारी व्यक्ति सबको भ्रमित कर देगा। सारशब्द को उस समय तक छुपाना है, जब तक 12 पंथों को मिटा न दिया जाए। 12वां (बारहवां) पंथ संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, हरियाणा वाले) का है जिनका जन्म विक्रमी संवत् 1774 (सन् ई. 1717) में हुआ। उनको परमेश्वर कबीर जी धर्मदास जी की तरह मिले थे। उनको भी यही आदेश दिया था कि जब तक कलयुग 5505 वर्ष नहीं बीत जाता, तब तक मूल ज्ञान और मूल शब्द (मूल मंत्र) यानि सार शब्द छुपा कर रखना है। तो वह सार शब्द धर्मदास जी की वंश गद्दी वालों के पास कहाँ से आ गया? वह सार शब्द (मूल शब्द) तथा मूल ज्ञान (तत्त्वज्ञान) मेरे (रामपाल दास के) पास है। विश्व में अन्य किसी के पास नहीं है।
प्रमाण:- कबीर सागर के अध्याय ‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 136-137 तथा कबीर चरित्र बोध पृष्ठ 1835ए 1870 पर तथा ‘‘जीव धर्म बोध‘‘ पृष्ठ 1937 पर है।
कलयुग सन् 1997 को 5505 वर्ष पूरा हो जाता है। सन् 1997 को मुझ दास को परमेश्वर कबीर के दर्शन दिन के 10 बजे हुए थे। सार शब्द (मूल शब्द) तथा मूल ज्ञान को सार्वजनिक करने का सही समय बताकर अन्तध्र्यान हो गये थे। उसी समय से गुरू जी की आज्ञा से सार शब्द अनुयाईयों को प्रदान किया जा रहा है। सबका कल्याण होगा जो मेरे से नाम दीक्षा लेकर मन लगाकर मर्यादा में रहकर भक्ति करेगा, उसका मोक्ष निश्चित है।
इस अध्याय में कुल 106 पृष्ठ हैं। हमने मोती निकालने हैं, सागर भरा रहेगा। हमारे लिए मोती प्राप्त करना अनिवार्य तथा पर्याप्त है। प्रथम तो यह सिद्ध करना चाहूँगा कि ’’अथाह सागर से मोती निकालना मेरे स्तर का कार्य नहीं था। मैं (रामपाल दास) केवल दसवीं तक पढ़ा हूँ। उसके पश्चात् तीन वर्ष का सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया और हरियाणा सरकार के सिंचाई विभाग में 17-02-1977 को जूनियर इंजीनियर (श्रण्म्ण्) के पद पर नौकरी लगा। 17-02-1988 को परम पूज्य गुरूदेव स्वामी रामदेवानन्द जी से दीक्षा प्राप्त हुई। फिर मार्च 1994 को गुरूदेव ने गुरू पद प्रदान किया। कहा कि बेटा तू दीक्षा दे, मैं तेरे को आदेश देता हूँ। उस दिन वही दिन था जिस दिन परमेश्वर कबीर जी अपनी प्यारी आत्मा संत गरीबदास जी को गाँव छुड़ानी के खेतों में मिले थे और दीक्षा दी थी। सत्यलोक ले गए थे, शाम को वापिस छोड़ा था।
बहु आनन्द होत तेहीं ठाऊँ। शोक रहित अमरपुर गांऊँ।।(गाँव)
पृष्ठ 2 = तहँवा रोग शोग नहिं होई, क्रीड़ा विनोद करें सब कोई।।
चन्द न सूर दिवश न राती। वरण भेद नही जाति अजाति।।
तहाँ वहाँ जरा-मरण नहीं होई। बहु आनन्द करे सब कोई।
पुष्पक विमान सदा उजियारा। अमृत भोजन करत आहारा।
काया सुन्दर ताहि प्रमाना। उदित हुए जनु षोडस भाना।।
इतनौ एक हंस उजियारा। शोभित ऐसे जानु गगन में तारा।
विमल बांस तहाँ बिगसाई। योजन चार लग सुबांस उड़ाई।।
सदा मनोहर छत्रा सिर छाजा। बूझ न परै रंक और राजा।।
नही तहाँ काल वचन की खानी। अमृत वचन बोलै भल बानी।।
आलस निद्रा नहीं प्रकाशा। बहुत प्रेम सुख करें विलसा।।
साखी = अस सुख है हमरे घरे। कहै कबीर समुझाय।
सत शब्द को जानिकै, अस्थिर बैठे जाय।।
भावार्थः- परमेश्वर कबीर जी ने अपने प्रिय भक्त धर्मदास जी को बताया कि जिस तरह मुक्ति हो सकती है। वह भेद बताता हूँ और उस मुक्ति को प्राप्त हंस वहाँ चले जाते हैं जहाँ कोई रोग नहीं, कोई शोक नहीं, वहाँ पर सब आत्माऐं आनन्द से खेलती हैं अर्थात सुखमय जीवन जीते हैं, वहाँ पर कोई चाँद-सूर्य नहीं हैं, वहाँ पर वह सतलोक स्वयं प्रकाशित है, सत्य पुरूष के एक रोम का प्रकाश करोड़ों सूर्यों तथा चान्दों से अधिक है। वहाँ एक हंस (मानव) के शरीर का प्रकाश 16 सूर्यों जितना है। वहाँ जाति भेद भी नहीं है। वहाँ हमारे सत्यलोक में जरा-मरण नहीं है। सदा युवा रहते हैं, मृत्यु नहीं है। सब भक्तों (स्त्राी तथा पुरूष) का शरीर सुन्दर है और सोलह सूर्यों जितना प्रकाश एक भक्त के शरीर का है तथा भक्तमति के शरीर का प्रकाश भी सोलह सूर्यों के प्रकाश के समान है। सतलोक में सितारों की तरह चमक रहे हैं। सतलोक में सुगन्ध उठ रही है जो चार योजन यानि 48 कि.मी. तक जाती है। (एक योजन में चार कोस, एक कोस में तीन कि.मी.। इस प्रकार एक योजन में 12 कि.मी., चार योजन में 48 कि.मी. हुए।) सतलोक में प्रत्येक भक्त के पास पुष्पक विमान है। श्री रामचन्द्र जी सीता को लेकर लंका से आए थे। वे पुष्पक विमान में आए थे। वैसा विमान सत्यलोक में प्रत्येक हंस आत्मा के पास है। प्रत्येक भक्त तथा भक्तमति के सिर पर छत्रा शोभा करता है। वहाँ कोई निर्धन और रंक का भेद नहीं है। वहाँ सतलोक में काल लोक के प्राणियों की तरह कराल वचन कोई नहीं बोलता। सदा अमृत जैसी मीठी बोली भली भाषा में बोलते हैं। उस लोक में आलस निन्द्रा नहीं है। बहुत सुखी हैं। बहुत प्रेम से रहते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हमारे घर (सतलोक) में ऊपर वर्णित सुख है। जिनके पास सत्य शब्द (सतनाम) है, वह उस लोक में स्थाई निवास प्राप्त करता है।
पृष्ठ 3 से 27 तक सृष्टि की उत्पत्ति का ज्ञान है, परंतु कांट-छांट कर लिखा है। वास्तविक ज्ञान पूर्व में लिख दिया है, वहाँ से ग्रहण करें।
पृष्ठ 27 से 51 तक श्री रामचन्द्र तथा श्री कृष्ण जी की लीला बताई है और सिद्ध किया है कि यह सब ज्योति निरंजन का षडयंत्रा है। पहले तो अपने अवतारों को शक्ति दे देता है। फिर उनसे पाप करवाता है। फिर उनसे वह शक्ति छीन लेता है, उनका अन्त भी बुरा होता है। जब इसी लोक में ऐसी गति हुई तो ऊपर के लोक में क्या मिलेगा। श्री राम जी ने अन्त में अपने पुत्रों लव तथा कुश से पराजित होकर शर्म के मारे सरयू नदी में समाधि लेनी पड़ी यानि अपनी जीवन लीला सरयू नदी में छलांग लगाकर समाप्त की। पहले बाली तथा रावण जैसे योद्धाओं को मार डाला था। यही दशा श्री कृष्ण जी की हुई थी। उनकी आँखों के सामने उनका पूरा यादव कुल नष्ट हो गया था तथा श्री कृष्ण जी के पैर में विषाक्त तीर एक बालिया नामक शिकारी ने मारा जिससे उनकी मृत्यु हुई। श्री कृष्ण जी ने बाली को त्रोता युग में वृक्ष की ओट लेकर मारा था। उसी आत्मा ने शिकारी बनकर अपना बदला लिया।
पृष्ठ 52 से 53 तक सुदर्शन सुपच द्वारा पाण्ड़वों की यज्ञ पूर्ण करने का वर्णन है, परंतु पूर्ण रूप से गलत लिखा है। पूर्ण वर्णन आगे बताया जाएगा।
पृष्ठ 53 से 70 तक कबीर परमेश्वर जी का सत्ययुग, त्रोतायुग, द्वापर में सतसुकृत, मुनीन्द्र तथा करूणामय नाम से प्रकट होने वाला प्रकरण है जो बिल्कुल ऊट-पटांग तरीके से बताया है। वाणी कांट-छंाट तथा बनावटी-मिलावटी बनाकर अपनी बुद्धि अनुसार व्याख्या की है जो गलत है। वास्तविकता पहले वर्णन कर दी है।
पृष्ठ 71 से 74 तक कलयुग में काशी में प्रकट होने का प्रकरण।
पृष्ठ 74 पर वर्णन है कि बालक कबीर जी ने बछिया का दूध पीया। (कंवारी गाय का दूध पीया।)
पृष्ठ 75 से 76 रामानन्द जी से गुरू दीक्षा लेना आदि-आदि वर्णन है।
पृष्ठ 76 पर सिकंदर राजा को अपनी शरण में लेने वाला प्रकरण है।
उपरोक्त प्रकरण ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ में भी हैं। यथार्थ कबीर जी की लीला इस अध्याय में सम्पूर्ण नहीं है।
पृष्ठ 76 से 86 तक रतना को मिलना तथा अन्य जानकारी है जो ज्ञान प्रकाश में बताई जा चुकी है।
पृष्ठ 86 पर आठ कमलों की जानकारी है।
पृष्ठ 88 से 97 तक सामान्य ज्ञान है जो ज्ञान प्रकाश में बताया जा चुका है।
पृष्ठ 97 से 106 तक अस्पष्ट वर्णन है, इससे अधिक स्पष्ट ज्ञान पहले ज्ञान प्रकाश में धर्मदास को शरण में लेने वाले प्रकरण में पढे़ं।
विशेषः- जैसा कि ज्ञान सागर के सार के प्रारम्भ में लिखा है कि कबीर सागर धनी धर्मदास जी द्वारा लिखा था, वह हस्तलिखित था। बहुत अधिक बड़ा होने के कारण से किसी महंत ने उसमें से अपने विवेक के अनुसार कुछ-कुछ वाणी लेकर कुछ अपनी बनावटी बना-मिलाकर ज्ञान सागर बनाया है। इसी प्रकार अन्य कई अध्यायों में यही देखने को मिला है। बाद में स्वामी युगलानन्द जी भारत पथिक कबीर पंथी ने उन सर्व अध्यायों को कुछ संशोधित करके एक कबीर सागर का रूप दे दिया गया जो अपने को वर्तमान में उपलब्ध है। इसलिए ’’ज्ञान सागर’’ में कोई भिन्न ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान अन्य अध्यायों में विस्तार के साथ है।