अनुराग सागर पवित्र कबीर सागर का तीसरा अध्याय है। इसका अधिकतर प्रकरण अध्याय ज्ञान प्रकाश में लिखा गया है जो सृष्टि रचना से सम्बन्धित है। पृष्ठ 12 से 67 तक तथा इससे आगे ‘‘परमेश्वर कबीर जी का तीन युगों में प्रकट होने वाला वर्णन है। यह ज्ञान प्रकाश बोध' के सारांश में लिखा है।
अनुराग सागर में कुछ त्रुटियां हैं। उनका विवरण भी ज्ञान प्रकाश अध्याय के सारांश में लिखा गया है।
अनुराग सागर पृष्ठ 3 से 5 तक का सारांश:-
पृष्ठ 3 से:- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रश्न किया:-
प्रश्न:- प्रभु! दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर में कैसी आस्था होनी चाहिए?
उत्तर:- परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि जैसे मृग (हिरण) शब्द पर आसक्त होता है, वैसे साधक परमात्मा के प्रति लग्न लगावै।
हिरण (मृग) पकड़ने वाला एक यंत्र से विशेष शब्द करता है जो हिरण को अत्यंत पसंद होता है। जब वह शब्द बजाया जाता है तो हिरण उस ओर चल पड़ता है और शिकारी जो शब्द कर रहा होता है, उसके सामने बैठकर मुख जमीन पर रखकर समर्पित हो जाता है। अपने जीवन को दाॅव पर लगा देता है। इसी प्रकार उपदेशी को परमात्मा के प्रति समर्पित होना चाहिए। अपना जीवन न्यौछावर कर देना चाहिए।
दूसरा उदाहरण:-
पतंग (पंख वाला कीड़ा) को प्रकाश बहुत प्रिय है। अपनी प्रिय वस्तु को प्राप्त करने के लिए वह दीपक, मोमबत्ती, बिजली की गर्म लाईट के ऊपर आसक्त होकर उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से उसके ऊपर गिर जाता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार भक्त को परमात्मा प्राप्ति के लिए मर-मिटना चाहिए। समाज की परंपरागत साधना को तथा अन्य शास्त्रा विरूद्ध रीति-रिवाजों को त्यागने तथा सत्य साधना करने में कठिनाईयां आती हैं। उनका सामना करना चाहिए चाहे कुछ भी कुर्बानी देनी पड़े, पीछे नहीं हटे।
तीसरा उदाहरण:-
पुराने समय में पत्नी से पहले यदि पति की मृत्यु हो जाती थी तो पत्नी अपने पति से इतना प्रेम करती थी कि वह अपने मृत पति के साथ उसी चिता में जलकर मर जाती थी। उस समय घर तथा कुल के व्यक्ति समझाते थे कि तेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। इनका आपके बिना कौन पालन करेगा? चाचे-ताऊ किसी के बच्चों को नहीं पालते। जब तक माता-पिता होते हैं, तब तक कुल के व्यक्ति प्यार की औपचारिकता करते हैं। वास्तव में प्रेम तो अपनों में ही होता है। आप इन छोटे-छोटे बच्चों की ओर देखो। बच्चे पिता के वियोग में रो रहे होते हैं। माता का पल्लु पकड़ रोकते हैं। उस स्त्री को उसके स्वर्ण के आभूषण भी दिखाए जाते हैं। देख इनका क्या होगा? कितने संुदर तथा बहुमुल्य आभूषण हैं। आप अपने बच्चों में रहो। परंतु वह स्त्री प्रेमवश होकर उसी चिता में जिंदा जलकर मर जाती थी। पीछे कदम नहीं हटाती थी। पहले तो इस प्रकार सती होती थी। कोई एक-दो ही होती थी। बाद में यह रीति-रिवाज कुल की मर्यादा का रूप ले गई थी। पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री को जबरन उसी चिता में जलाया जाने लगा था जिससे सती प्रथा का जन्म हुआ। बाद में यह संघर्ष के पश्चात् समाप्त हो गई।
इस कथा का सारांश है कि जैसे एक पत्नी अपने पति के वैराग्य में जिंदा जलकर मर जाती है। मुख से राम-राम कहकर चिता में जल जाती है।
जगत में जीवन दिन-चार का, कोई सदा नहीं रहे। यह विचार पति संग चालि कोई कुछ कहै।।
हे धर्मदास! इसी प्रकार भक्त का विचार होना चाहिए।
ऐसे ही जो सतपुरूष लौ लावै। कुल परिवार सब बिसरावै।।1
नारि सुत का मोह न आने। जगत रू जीवन स्वपन कर जानै।।2
जग में जीवन थोड़ा भाई। अंत समय कोई नहीं सहाई।।3
बहुत प्यारी नारि जग मांही। मात-पिता जा के सम नाहीं।।4
तेही कारण नर शीश जो देही। अंत समय सो नहीं संग देही।।5
एक-आध जलै पति के संगा। फिर दोनों बनैं कीट पतंगा।।6
फिर कोई पशु कोई पक्षी जन्म पावै। बिन सतगुरू दुःख कौन मिटावै।।7
ऐसी नारि बहुतेरी भाई। पति मरै तब रूधन मचाई।।8
काम पूर्ति की हानि विचारै। दिन तेरह ऐसे पुकारै।।9
निज स्वार्थ को रोदन करही। तुरंत ही खसम दूसरो करही।।10
सुत परिजन धन स्वपन स्नेही। सत्यनाम गहु निज मति ऐही।।11
स्व तन सम प्रिय और न आना। सो भी संग नहीं चलत निदाना।।12
ऐसा कोई ना दिख भाई। अंत समय में होय सहाई।।13
आदि अंत का सखा भुलाया। झूठे जग नातों में फिरै उमाहया।।14
अंत समया जम दूत गला दबावै। ता समय कहो कौन छुड़ावै।।15
सतगुरू है एक छुड़ावन हारा। निश्चय कर मानहू कहा हमारा।।16
काल को जीत हंस ले जाही। अविचल देश जहां पुरूष रहाही।।17
जहां जाय सुख होय अपारा। बहुर न आवै इस संसारा।।18
ऐसा दृढ़ मता कराही। जैसे सूरा लेत लड़ाई।।19
टूक-टूक हो मरै रण के मांही। पूठा कदम कबहू हटावै नांही।।20
जैसे सती पति संग जरही। ऐसा दृढ़ निश्चय जो करही।।21
साहेब मिलै जग कीर्ति होई। विश्वास कर देखो कोई।।22
हम हैं राह बतावन हारा। मानै बचन भव उतरै पारा।।23
छल कपट हम नहीं कराहीं। निस्वार्थ परमार्थ करैं भाई।।24
जीव एक जो शरण पुरूष की जावै। प्रचारक को घना पुण्य पावै।।25
कोटि धेनु जो कटत बचाई। एता धर्म मिलै प्रचारक तांही।।26
लावै गुरू शरण दीक्षा दिलावै। आपा ना थापै सब कुछ गुरू को बतावै।।27
जो कोई प्रचारक गुरू बनि बैठै। परमात्मा रूठे काल कान ऐठै।।28
लाख अठाइस झूठे गुरू रोवैं। पड़े नरक में ना सुख सोवैं।।29
अब कहे हैं भूल भई भारी। हे सतगुरू सुध लेवो हमारी।।30
बोऐ बबूल आम कहां खाई। कोटि जीवन को नरक पठाई।।31
ऐसी गलती ना करहूं सुजाना। सत्य वचन मानो प्रमाना।।32
उपरोक्त वाणियों का भावार्थ है कि:-
जब लड़का युवा होता है तो उसका विवाह हो जाता है। विवाह के पश्चात् माता-पिता से भी अधिक लगाव अपनी पत्नी में हो जाता है। फिर बच्चों से ममता हो जाती है। यदि पति की मृत्यु हो जाती है तो पत्नी साथ नहीं जाती। कुछ समय पश्चात् यानि तेरहवीं क्रिया के पश्चात् छोटे-बड़े पति के भाई के साथ सगाई-विवाह कर लेती है। पति को पूर्ण रूप से भूल जाती है। यदि कोई अपने पति के साथ जल मरती है तो अगले जन्म में पक्षी या पशु योनि में दोनों भटक रहे होंगे।
जिस पत्नी के लिए पुरूष अपनी गर्दन तक कटा लेता है। यदि कोई किसी की पत्नी को बुरी नजर से देखता है, मना करने पर भी नहीं मानता है तो पति अपनी पत्नी के लिए लड़-मरता है। फिर वही पत्नी पति की मृत्यु के उपरांत अन्य पुरूष से मिल जाती है। यह भले ही समय की आवश्यकता है, परंतु भक्त के लिए ठोस शिक्षा है।
इसी प्रकार किसी व्यक्ति की पत्नी की मृत्यु हो जाती है तो वह कुछ समय उपरांत दूसरी पत्नी ले आता है। पत्नी अपने पति के लिए अपना घर, भाई-बहन, माता-पिता त्यागकर चली आती है, परंतु पत्नी की मृत्यु के उपरांत स्वार्थ के कारण रोता है। परंतु जब अन्य व्यक्ति विवाह के लिए कहते हैं तो सब भूलकर तैयार हो जाता है।
भावार्थ है कि सब स्वार्थ का नाता है। इसलिए सत्य भक्ति करके उस सत्यलोक में चलो जहाँ पर जरा (वृद्धावस्था) तथा मरण (मृत्यु) नहीं है।
आगे चेतावनी दी है कि हे भक्त! अपने शरीर के समान इंसान को कुछ भी प्रिय नहीं होता। अपने शरीर की रक्षार्थ लाखों रूपये ईलाज (ज्तमंजउमदज) में खर्च कर देता है यह विचार करके कि यदि जीवन बचा तो मेहनत-मजदूरी करके रूपये तो फिर बना लूँगा। यदि रूपये नहीं होते हैं तो संपत्ति को भी यही विचार करके बेच देता है और अपना शरीर बचाता है। परमेश्वर कबीर जी ने समझाया कि हे धर्मदास!
स्व तनु सम प्रिय और न आना। सो भी संग न चलत निदाना।।
अपने शरीर के समान अन्य कुछ वस्तु प्रिय नहीं है, वह शरीर भी आपके साथ नहीं जाएगा। फिर अन्य कौन-सी वस्तु को तू अपना मानकर फूले और भगवान भूले फिर रहे हो। सर्व संपत्ति तथा परिजन एक स्वपन जैसा साथ है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि मेरी अपनी राय यह है कि पूर्ण संत से सत्य नाम (सत्य साधना का मंत्र) लेकर अपने जीव का कल्याण कराओ और जब तक आप स्वपन (संसार) में हैं, तब तक स्वपन देखते हुए पूर्ण संत की शरण में जाकर सच्चा नाम प्राप्त करके अपना मोक्ष कराओ। सर्व प्राणी जीवन रूपी रेलगाड़ी (ज्तंपद) में सफर कर रहे हैं। जिस डिब्बे (ब्वउचंतजउमदज) में बैठे हो, वह आपका नगर है। जिस सीट पर बैठे हो, वह आपका परिवार है। जिस-जिसकी यात्रा पूरी हो जाएगी, वे अपने-अपने स्टेशन पर उतरते जाएंगे। यही दशा इस संसार की है। जैसे यात्रियों को मालूम होता है कि हम कुछ देर के साथी हैं। सभ्य व्यक्ति उस सफर में प्यार से रहते हैं। एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। इसी प्रकार हमने अपने स्वपन वाले समय को व्यतीत करना है। स्वपन टूटेगा यानि शरीर छूटेगा तो पता चलेगा यह क्या था? वह परिवार तथा संपत्ति कहाँ है जिसको संग्रह करने में अनमोल जीवन नष्ट कर दिया। संसार के अंदर परमात्मा के अतिरिक्त ऐसा कोई नहीं है जो मृत्यु के समय में यम के दूत कण्ठ को बंद करेंगे, उस समय आपकी सहायता करे। परमेश्वर उसी की मदद करता है जिसने पूर्ण संत से दीक्षा ले रखी होगी। परमेश्वर उस सतगुरू के रूप में उपदेशी की सहायता करता है। इसलिए सतगुरू जी की शरण में आने के पश्चात् ज्ञानवान साधक परमेश्वर में ऐसी लग्न लगाए जैसी 1) मृग 2) पतंग 3) सती 4) शूरवीर लगाते हैं। अपने उद्देश्य से पीछे नहीं हटते। शूरवीर टुकड़े-टुकड़े होकर पृथ्वी पर गिर जाना बेहतर मानते हैं। पीछे कदम नहीं हटाते। पुराणों में तथा श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 2 श्लोक 38 में कहा है कि अर्जुन! यदि सैनिक युद्ध में मारा जाता है तो स्वर्ग में सुख प्राप्त करता है। भक्त भक्ति मार्ग में संघर्ष करते हुए भक्ति करके शरीर त्याग जाता है तो सतलोक सुख सागर में सदा के लिए सुखी हो जाता है। जन्म-मरण का संकट सदा के लिए समाप्त हो जाता है। जैसे हमारा जन्म पृथ्वी पर हुआ। हमारे को ज्ञान नहीं था कि हम किसके घर पुत्र या पुत्री रूप में जन्म लेंगे। फिर हमारे को नहीं पता था कि हमारा विवाह संयोग किसके साथ होगा? यह भी ज्ञान नहीं था कि हमारे घर बेटा जन्म लेगा या बेटी? यह सब पूर्व जन्म के संस्कारवश होता चला गया। आपस में कितना प्यार तथा अपनापन बन गया। सदा साथ रहने की इच्छा रहती है। कोई ना मरे, यह कामना करते रहते हैं। इस काल ब्रह्म के लोक में कोई सदा नहीं रहेगा। एक-एक करके पहले-पीछे सब मरते जाएंगे। सारे जीवन में जो संपत्ति इकट्ठी की थी, वह यहीं रह जाएगी। जीव खाली हाथ जाएगा। परंतु जो पूर्ण संत से सच्चे नाम की दीक्षा लेकर साधना करेगा, वह सत्यलोक चला जाएगा। वहाँ पर ऐसे ही जन्म होगा जैसे पृथ्वी पर होता है। उसी प्रकार परिवार बनता चला जाएगा। वहाँ पर कोई कर्म नहीं करना पड़ता। सर्व खाद्य पदार्थ प्रचूर मात्रा में सत्यलोक में हैं। सदाबहार पेड़-पौधे, फुलवाड़ी, मेवा (काजू, किशमिश, मनुखा दाख आदि) दूधों के समुद्र (क्षीर समुद्र) हैं। सतलोक में वृद्ध अवस्था नहीं है। मृत्यु भी नहीं है। इसको अक्षय मोक्ष कहते हैं। पूर्ण मुक्ति कहते हैं जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है तथा जिस सिद्धी मोक्ष शक्ति को ‘‘नैष्र्कम्य‘‘ सिद्धि कहा है जिसका वर्णन गीता अध्याय 3 श्लोक 4, अध्याय 18 श्लोक 49 से 62 में है। इस काल ब्रह्म यानि ज्योति निरंजन के इक्कीस ब्रह्माण्डों के क्षेत्र में सर्व प्राणी कर्म करके ही आहार प्राप्ति करते हैं। सत्यलोक में ऐसा नहीं है। वहाँ बिना कर्म किए सर्व सुख पदार्थ प्राप्त होते हैं। जैसे बाग में फलों से लदपद वृक्ष तथा बेल होते हैं। फल तोड़ो और खाओ। सर्व प्रकार का अनाज भी ऐसे ही उगा रहता है। सदा बहार हैं। जो इच्छा है, बनाओ और खाओ। वहाँ पर खाना बनाना नहीं पड़ता। भोजनालय में रखो जो खाना चाहते हो, अपने आप तैयार हो जाता है। यह सब परमेश्वर की शक्ति से होता है। उस सतलोक (शाश्वत स्थान) को प्राप्त करने के लिए आप जी को सती तथा शूरमा की तरह कुर्बान होना पड़ेगा। भावार्थ है कि अपने उद्देश्य यानि पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संसार के सर्व लोभ-लाभ त्यागने पड़ें तो विचारने की आवश्यकता नहीं है। तुरंत छोड़ो और अपने स्मरण ध्यान में मगन रहो। यदि सतगुरू की शरण ग्रहण नहीं की तो जिस समय अंत समय आएगा, तब भक्तिहीन प्राणी के कंठ को यमदूत बंद करते हैं। उन यमदूतों से परिवार का कोई व्यक्ति नहीं छुड़वा सकता। केवल सतगुरू जी उस आपत्ति के समय सहायता करते हैं। इसलिए परमेश्वर कबीर जी ने कहा है किः-
अंत समय जम दूत गला दबावैं। ता समय कहो कौन छुड़ावै।।
सतगुरू एक छुड़ावन हारा। निश्चय कर मानहु कहा हमारा।।
यदि कोई भक्त ज्ञान समझकर दीक्षित होकर अन्य भोले-भूले जीवों को ज्ञान चर्चा करके सत्य ज्ञान प्रचार द्वारा सतगुरू शरण में लाकर दीक्षा दिलाता है तो उसको एक जीव को सत्य भक्ति मार्ग बताकर गुरू से दीक्षा दिलाने का इतना पुण्य होता है जितना एक करोड़ गायों को कसाई से बचाने का मिलता है। एक मानव का जीवन इतना बहुमुल्य तथा इतने पुण्यों से प्राप्त होता है। यदि कोई मूर्ख प्रचारक मान-बड़ाई के वश होकर स्वयं दीक्षा देता है, स्वयं गुरू बन बैठता है तो वह महा अपराधी होता है। उससे परमेश्वर रूष्ट हो जाता है तथा काल उसको कान पकड़कर घसीटकर ले जाता है। जैसे खटिक (कसाई) बकरे-बकरी को ले जाता है। कबीर सागर के अध्याय ‘‘अम्बुसागर‘‘ पृष्ठ 48 पर प्रमाण है कि:-
तब देखा दूतन कहं जाई। चौरासी तहां कुण्ड बनाई।।
कुण्ड-कुण्ड बैठे यमदूता। देत जीवन कहं कष्ट बहुता।।
तहां जाय हम ठाड (खड़े) रहावा। देखत जीव विनय बहुत लावा।।
‘‘झूठे कड़िहार (नकली सतगुरू) की दशा‘‘
पड़ै मार जीव करें बहु शोरा। बाँध-बाँध कुंडन में बोरा।।
लाख अठाइस पड़े कड़िहारा। बहुत कष्ट तहां करत पुकारा।।
हम भूले स्वार्थ संगी। अब हमरे नाहीं अर्धंगी।।
हम तो जरत हैं अग्नि मंझारा। अंग अंग सब जरत हमारा।।
कौन पुरूष अब राखे भाई। करत गुहार चक्षु ढल जाई।।
‘‘ज्ञानी (कबीर जी) वचन‘‘
करूणा देख दया दिल आवा। अरे दूत त्रास भास दिखावा।।
यह वाणी बनावटी है, वास्तविक वाणी नीचे है।
दुर्दशा देख दया दिल आवा। अरे दूत तुम जीवन भ्रमावा।।
जीव तो अचेत अज्ञाना। वाको काल जाल तुम बंधाना।।
चौरासी दूतन कहं बांधा। शब्द डोर चौदह यम सांधा।।
तब हम सबहन कहं मारा। तुम हो जालिम बटपारा।।
हमरे भगतन को तुम भ्रमावा। पल पल सुरति जीवन डिगावा।।
गहि चोटि दूत घसियाए। यम रू दूत विनय तब लाए।।
‘‘दूत (जो नकली कड़िहार बने थे) वचन‘‘
चुक हमारी छमा कर दीजै। मन माने तस आज्ञा कीजै।।
हम तो धनी (काल) कहयो जस कीन्हा। सो वचन मान हम लीन्हा।।
अब नहीं जीव तुम्हारा भ्रमावैं। हम नहीं कबहू गुरू कहावैं।।
‘‘ज्ञानी (कबीर जी) वचन‘‘
सुन ज्ञानी बहुते हंसाई। दूतन दुष्ट बंध न छोड़ो जाई।।
पल इक जीवन सुख दीना। तब संसार गमन हम कीन्हा।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने बताया कि जो झूठे सतगुरू बनकर मान-बड़ाई के वश होकर काल प्रेरणा से भोले जीवों को भ्रमाया करते थे। उनको भी दण्ड मिलता है। उनको भी नरक में डालकर यातनाऐं दी जाती हैं। जब मैं उस नरक के पास गया जिसमें वे मान-बड़ाई के भूखे नकली कड़िहार (संसार से काड़ने वाले यानि सतगुरू) बनकर महिमा बनाए हुए थे। लाखों जीवों को शिष्य बनाकर नरक में ले गए। फिर परमेश्वर के विद्यान अनुसार वे भी अपराधी होने के कारण नरक में पड़े थे। उस नरक क्षेत्र में कुण्ड बने हैं। प्रत्येक कुण्ड में जीव पड़े है तथा यमदूत सता रहे हैं। वे अठाईस लाख नकली सतगुरूओं ने मुझे देखकर अर्जी लगाई कि हमें बचा लो प्रभु! कारण यह था कि जो यमदूत उन्हें नरक में मार-पीट रहे थे, वे सब परमेश्वर कबीर जी की शक्ति के सामने काँपने लगे। इस कारण से उन नकली सतगुरूओं को लगा कि ये कोई परम शक्ति वाले देव हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि तुमने भोले जीवों को भ्रमित किया। अपने आपको पूर्ण सतगुरू सिद्ध किया। तुम्हें पता भी था कि तुम्हारे पास नाम दीक्षा का अधिकार नहीं। तुम्हें पूर्ण मोक्ष का ज्ञान नहीं। अपने स्वार्थवश लाखों मनुष्यों के अनमोल जीवन का नाश कर दिया। वे काल जाल में फंसे रह गए। फिर मैंने उन दूतों (काल के बनाए कड़िहारों) को तथा अन्य यमदूतों को मारा, चोटी पकड़कर घसीटा। फिर नकली सतगुरूओं ने कहा कि हमने तो अपने धनी यानि मालिक काल ब्रह्म की आज्ञा का पालन किया है। अब आप जैसे कहोगे, हम वैसे करेंगे। मैंने कहा कि अब तुमको छोड़ा नहीं जाएगा। जो जीव उन नकली गुरूओं के शिष्य बनकर जीवन नष्ट कर गए थे। वे भी वहीं उनके साथ नरक में पड़े थे। जब तक मैं (कबीर परमेश्वर जी) वहाँ रहा, उन जीवों को नरक का कष्ट नहीं हो रहा था। इस प्रकार उनको कुछ समय का सुख देकर वहाँ से चलकर संसार में आया। मेरे आने के पश्चात् वे नकली गुरूओं तथा उनके भौंदू शिष्यों को फिर से नरक की यातना प्रारम्भ हो गई। इसलिए पूर्वोक्त वाणी में कहा है कि यदि कोई प्रचारक स्वयं गुरू बन बैठा तो परमेश्वर रूष्ट हो जाएगा और काल कान ऐंठेगा अर्थात् कष्ट देगा। इसलिए हे सज्जन पुरूष! कभी ऐसी गलती न करना। मेरे वचन को प्रमाणित मानना।
(अनुराग सागर के पृष्ठ 6 से वाणी नं. 7 से 17)
धर्मदास वचन
मृतक भाव प्रभु कहो बुझाई। जाते मनकी तपनि नसाई।।
केहि विधि मरत कहो यह जीवन। कहो विलोय नाथ अमृतधन।।
कबीर वचन-मृतक के दृष्टांत (उदाहरण)
धर्मदास यह कठिन कहानी। गुरूगम ते कोई विरले जानी।।
भृंगी का दृष्टांत (उदाहरण)
मृतक होय के खोजहिं संता। शब्द विचारि गहैं मगु अन्ता।।
जैसे भृंग कीट के पासा। कीट गहो भृंग शब्द की आशा।।
शब्द घातकर महितिहि डारे। भृंगी शब्द कीट जो धारे।।
तब लैगौ भृंगी निज गेहा। स्वाती देह कीन्हो समदेहा।।
भृंगी शब्द कीट जो माना। वरण फेर आपन करजाना।।
बिरला कीट जो होय सुखदाई। प्रथम अवाज गहे चितलाई।।
कोइ दूजे कोइ तीजे मानै। तन मन रहित शब्द हित जानै।।
भृंगी शब्द कीट ना गहई। तौ पुनि कीट आसरे रहई।।
एक दिन कीट गहेसी भृंग भाषा। वरण बदलै पूरवै आशा।।
मृतक के और दृष्टांत
(अनुराग सागर के पृष्ठ 7 से वाणी नं. 7 से 20)
सुनहु संत यह मृतक सुभाऊ। बिरला जीव पीव मग धाऊ।।
औरै सुनहु मृतक का भेवा। मृतक होय सतगुरू पद सेवा।।
मृतक छोह तजै शब्द उरधारे। छोह तजै तो जीव उबारे।।
पृथ्वी का दृष्टांत
जस पृथ्वी के गंजन होई। चित अनुमान गहे गुण सोई।।
कोई चन्दन कोई विष्टा डारे। कोई कोई कृषि अनुसारे।।
गुण औगुण तिन समकर जाना। तज विरोध अधिक सुखमाना।।
ऊख का दृष्टांत
औरो मृतक भाव सुनि लेहू। निरखि परखि गुरू मगु पगु देहू।।
जैसे ईख किसान उगावै। रती रती कर देह कटावे।।
कोल्हू महँ पुनि ताही पिरावै। पुनि कड़ाह में खूब उँटावे।।
निज तनु दाहे गुड़ तब होई। बहुरि ताव दे खांड विलोई।।
ताहू मांहि ताव पुनि दीन्हा। चीनी तबै कहावन लीन्हा।।
चीनी होय बहुरित तन जारा। ताते मिसरी ह्नै अनुसारा।।
मिसरीते जब कंद कहावा। कहे कबीर सबके मन भावा।।
यही विधिते जो शिष करही। गुरू कृपा सहजे भव तरई।।
भावार्थ:- अनुराग सागर पृष्ठ 6 पर लिखी पंक्ति नं. 7 से 17 तक का भावार्थ है कि धनी धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से विनयपूर्वक प्रश्न किया कि हे प्रभु! मुझे मृतक का स्वभाव समझाओ कैसा होता है? किस प्रकार जीवित मरना होता है। हे अमर परमात्मा! हे स्वामी! कृप्या बिलोय अर्थात् निष्कर्ष निकालकर वह अमृत धन अर्थात् अमर होने का मार्ग बताऐं।
परमेश्वर कबीर वचन = मृतक के दृष्टान्त
परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! यह जो प्रश्न आपने किया है, यह जटिल कथा प्रसंग है। सतगुरू शरण में ज्ञान का इच्छुक ही इसको समझकर खरा उतरता है।
भृंगी का दृष्टांत
संत-साधकजन जीवित मृतक होकर परमात्मा को खोजते हैं। शब्द विचार यानि यथार्थ नाम मंत्रों को समझ विचार करके उस मार्ग के अंत यानि अंतिम छोर तक पहुँचते हैं अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं।
जैसे एक भृंग (पंखों वाला नीले रंग का कीड़ा) होता है जिसे भंभीरी कहते हैं जिसको इन्जनहारी आदि-आदि नामों से जाना जाता है जो भीं-भीं की आवाज करती रहती है। वह अपना परिवार नर-मादा के मिलन वाली विधि से उत्पन्न नहीं करती। वह एक कीट (कीड़े) विशेष के पास जाती है। उसके पास अपनी भीं-भीं की आवाज करती है। जो कीड़ा उसकी आवाज से प्रभावित हो जाता है। उसको उठाकर पहले से तैयार किया मिट्टी के घर में ले जाती है। वह गोल आकार का दो इंच परिधि का एक-दो मुख वाला गारा का बना होता है। फिर दूसरा-तीसरा ले जाती है। फिर उनके ऊपर अपनी भीं-भीं की आवाज करती रहती है। फिर औस के जल को अपने मुख से लाकर उन कीटों के मुख में डालती है। उस भंभीरी यानि भंृग की बार-बार आवाज को सुनकर वह कीट उसी रंग का हो जाता है तथा उसी तरह पंख निकल आते हैं। वह आवाज भी उसी की तरह भीं-भीं करने लगता है। भंभीरी ही बन जाती है। इसी प्रकार पूर्ण संत अपने ज्ञान को भंभीरी की तरह बार-बार बोलकर सामान्य व्यक्ति को भी भक्त बना लेता है। फिर वह भक्त भी सतगुरू से सुने ज्ञान को अन्य व्यक्तियों को सुनाने लगता है। संसार की रीति-रिवाजों को त्याग देने से अन्य व्यक्ति कहते हैं कि इसका रंग-ढ़ंग बदल गया है। यह तो भक्त बन गया है। जैसे भृंग (भंभीरी) कीटों को अपनी आवाज सुनाती है तो कोई शीघ्र सक्रिय हो जाता है, कोई दूसरी, कोई तीसरी बार कोशिश करने से मानता है। इसी प्रकार जब सतगुरू कुछ व्यक्तियों को अपना सत्संग रह-रहकर सुनाते हैं तो कोई अच्छे संस्कार वाला तो शीघ्र मान जाता है, कोई एक-दो बार फिर सत्संग सुनकर मार्ग ग्रहण कर लेता है, दीक्षा ले लेता है। कुछ कीट ऐसे होते हैं, कई दिनों के पश्चात् अपना स्वभाव बदलते हैं। यदि वह कीट भृंगी नहीं बना है और उस भृंग कीट की शरण में रह रहा है तो अवश्य एक दिन परिवर्तन होगा। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! यदि शिष्य इसी प्रकार गुरू जी के विचारों को सुनता रहेगा तो उस भृंग कीट की तरह प्रभावित होकर संसारिक भाव बदलकर भक्त बनकर हंस दशा को प्राप्त होगा।
पृष्ठ 7 से पंक्ति 7 से 20 तक का भावार्थ:-
कबीर जी ने कहा कि हे संतो! सुनो यह मृतक का स्वभाव। इस प्रकार कोई बिरला जीव ही अनुसरण करता है। वह पीव यानि परमात्मा को प्राप्त करने का मग यानि मार्ग प्राप्त करता है। उपरोक्त यानि भृंग वाले उदाहरण के अतिरिक्त और सुनो मृतक का भाव जिससे मृतक यानि जीवित मृतक होकर सतगुरू के पद यानि पद्यति के अनुसार साधना करता है।
पृथ्वी का उदाहरण
जैसे पृथ्वी में सहनशीलता होती है। इसी प्रकार पृथ्वी वाले गुण को जो ग्रहण करेगा, वह जीवित मृतक है और वही सफल होता है। पृथ्वी के ऊपर कोई बिष्टा (टट्टी करता है। डालता है, कोई खेती करता है तो चीरफाड़ करता है। कोई-कोई धरती पूजन करता है। पृथ्वी गुण-अवगुण नहीं देखती। जिसकी जैसी भावना है, वह वैसा ही करता है। यह विचार करके धरती विरोध न करके सुखी रहती है।
भावार्थ है कि जैसे जमीन सहनशील है, वैसे ही भक्त-संत का स्वभाव होना चाहिए। चाहे कोई गलत कहे कि यह क्या कर रहे हो यानि अपमान करे, चाहे कोई सम्मान करे, अपने उद्देश्य पर दृढ़ रहकर भक्त सफलता प्राप्त करता है।
उख (ईख यानि गन्ने) का दृष्टांत
जैसे किसान ईख बीजता है। उस समय गन्ने के एक-एक फुट के टुकड़े करके धरती में दबा देता है। ईख गन्ना बनने के पश्चात् कोल्हु में पीड़ा जाता है। फिर रस को कड़ाहे में अग्नि की आँच में उबाला जाता है। तब गुड़ बनता है। यदि अधिक ताव गन्ने के रस को दिया जाता है तो वह खांड बन जाता है जो गुड़ से भी स्वादिष्ट होती है। और अधिक ताव देने से चीनी बन जाती है। और भी अधिक गर्म किया जाता है तो मिश्री बन जाता है। फिर मिसरी से कंद बन जाता है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! इस प्रकार यदि शिष्य भक्ति मार्ग में कठिनाईयां सहन करता है तो उतना ही परमात्मा का प्रिय बहुमुल्य होता चला जाता है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 8 तथा 9 का सारांश है कि साधक वही है जो अपनी सर्व इन्द्रियों को संयम में रखता है। जैसा मिल जाए, उसी में संतोष करे। रूप को देखकर उस पर आकर्षित नहीं होवे। कुरूप को देखकर घृणा न करे। दोनों को दिव्य ज्ञान की नजरों से देखे कि ऊपर का चाम गोरा-काला है, शरीर में हाड-माँस सब एक जैसा है तथा जरा-सा रोग होने पर गल जाता है, सडांद (बदबू) मारने लगती है। इस प्रकार विवेक से भक्ति करे। यदि कोई सम्मान करता है, प्यार से बोलता है तो खुशी महसूस न करें। यदि कोई कुबोल (कुवचन) कहता है तो दुःख न मानें। उनकी बुद्धि के स्तर को जानकर शांत रहें। यदि कोई अच्छा भोजन खीर-खाण्ड, हलवा-पूरी खिलाता है तो उसी कारण उससे प्रभावित न हों। उसको उसका कर्म का फल मिलेगा। यदि कोई लुखा-सूखा भोजन खिलाए तो उसको अधिक भाव से प्रेम से खाना चाहिए। काम वासना (sex) को महत्व न दें, वही भक्त वास्तव में परमेश्वर प्राप्ति कर सकता है। यदि काम वासना परेशान करे तो उसको भक्ति नाम स्मरण में लगाकर आनंद प्राप्त करें। उसी समय काम वासना मुरझा जाती है। काम वासना का नाश करने का तरीका:-
कबीर, परनारी को देखिये, बहन बेटी का भाव। कह कबीर काम नाश का, यही सहज उपाय।।
जैसे एक अनल पक्षी (अलल पंख) आकाश में रहता है। यह पक्षी अब लुप्त हो चुका है। इसके चार पैर होते थे। आगे वाले छोटे और पीछे वाले बड़े। इसका आकार बहुत बड़ा होता था। लम्बे-लम्बे पंख होते थे। पूरा पक्षी यानि युवा पक्षी चार हाथियों को एक साथ उठाकर आकाश में अपने परिवार के पास ले जाता था।
अनल पक्षी (अलल पक्षी) ऊपर वायु में रहता था। वहीं से मादा अनल अण्डे उत्पन्न कर देती थी। वह अण्डे उस स्थान पर छोड़ती थी जहाँ केले का वन होता था। केले एक-दूसरे में फँसकर गहरा वन बना लेते थे। हाथियों का झुण्ड (समूह) यानि सैंकड़ों हाथी भी केले के वन में रहते थे क्योंकि हाथी केले के पेड़ खा जाता है तथा केले के पेड़ों पर ही लेट जाता है। मस्ती करता रहता है। अलल पक्षी का अण्डा वायुमंडल से गुजरकर नीचे पृथ्वी तक आने में हवा के घर्षण से पककर बच्चा तैयार हो जाता था। वह अण्डा केले के पेड़ों के ऊपर गिरता था। केले के पेड़ों की सघनता के कारण वह अण्डा क्षतिग्रस्त नहीं होता था। केवल इतनी गति से केले के पेड़ों को तोड़कर पृथ्वी पर गिरता था कि अण्डा फूट जाए। अण्डे का आकार बहुत बड़ा होता था। उसका कवर भी सख्त मजबूत होता था। बच्चे के बचाव के लिए अण्डे के कवर तथा बच्चे के बीच में गद्देदार पदार्थ होता था जो पृथ्वी के ऊपर गिरते समय बच्चे को चोट लगने से बचाता था। अनल पक्षी का बच्चा पृथ्वी पर अन्य पक्षियों के बच्चों के साथ रहता था। उनसे मिलकर उड़ता था, परंतु उसकी अंतरआत्मा यह मानती थी कि यह मेरा घर-परिवार नहीं है, मेरा परिवार तो ऊपर है। मैंने ऊपर अपने परिवार में जाना है। यह मेरा संसार नहीं है। वह जब युवा हो जाता है तो हाथियों के झुण्ड पर झपट्टा मारता था। चार हाथियों को चारों पंजों से उठाता था तथा एक हाथी को चैंच से पकड़कर उड़ जाता था। अपने परिवार के पास चला जाता था। साथ में उनके लिए आहार भी ले जाता था।
कबीर परमेश्वर जी ने सटीक उदाहरण बताकर भक्त को मार्गदर्शन किया है कि आप इस संसार के स्थाई वासी नहीं हैं। आपको यह छोड़कर जाना है। आपका परिवार ऊपर सत्यलोक में है। आप इस पृथ्वी के ऊपर गिरे हो। तत्त्वज्ञान प्राप्त भक्त के मन की दशा उस अनल (अलल) पक्षी के बच्चे जैसी होनी चाहिए। जब तक सतलोक जाने का समय नहीं आता तो सांसारिक व्यक्तियों के साथ मिलकर शिष्टाचार से रहो। चलते समय इनमें कोई लगाव नहीं रहना चाहिए। अपनी नाम-स्मरण की कमाई तथा पुण्य धर्म की कमाई साथ लेकर उड़ जाना है। अपने परिवार के पास अपने निज घर सतलोक में जाना है।
अनुराग सागर पृष्ठ 10-14
अनुराग सागर पृष्ठ 10 तथा 11 का सारांश:-
(अनुराग सागर के पृष्ठ 10 से वाणी नं. 11 से 20 शुद्ध करके लिखी हैं।)
नाम महात्मय
जबलग ध्यान विदेह न आवे। तब लग जिव भव भटका खावे।।
ध्यान विदेह औ नाम विदेहा। दोइ लख पावे मिटे संदेहा।।
छन इक ध्यान विेदेह समाई। ताकी महिमा वरणि न जाई।।
काया नाम सबै गोहरावे। नाम विदेह विरले कोई पावै।।
जो युग चार रहे कोई कासी। सार शब्द बिन यमपुर वासी।।
नीमषार बद्री परधामा। गया द्वारिका का प्राग अस्नाना।।
अड़सठ तीरथ भूपरिकरमा। सार शब्द बिन मिटै न भरमा।।
कहँ लग कहों नाम पर भाऊ। जा सुमिरे जमत्रास नसाऊ।।
नाम पाने वाले को क्या मिलता है?
सार नाम सतगुरू सो पावे। नाम डोर गहि लोक सिधावे।।
धर्मराय ताको सिर नावे। जो हंसा निःतत्त्व समावे।।
सार शब्द क्या है?
(अनुराग सागर के पृष्ठ 11 से वाणी)
सार शब्द विदेह स्वरूपा। निअच्छर वहि रूप अनूपा।।
तत्त्व प्रकृति भाव सब देहा। सार शब्द नितत्त्व विदेहा।।
कहन सुनन को शब्द चैधारा। सार शब्द सों जीव उबारा।।
पुरूष सु नाम सार परबाना। सुमिरण पुरूष सार सहिदाना।।
बिन रसना के सिमरा जाई। तासों काल रहे मुग्झाई।।
सूच्छम सहज पंथ है पूरा। तापर चढ़ो रहे जन सूरा।।
नहिं वहँ शब्द न सुमरा जापा। पूरन वस्तु काल दिख दापा।।
हंस भार तुम्हरे शिर दीना। तुमको कहों शब्द को चीन्हा।।
पदम अनन्त पंखुरी जाने। अजपा जाप डोर सो ताने।।
सुच्छम द्वार तहां तब परसे। अगम अगोचर सत्पथ परसे।।
अन्तर शुन्य महि होय प्रकाशा। तहंवां आदि पुरूष को बासा।।
ताहिं चीन्ह हंस तहं जाई। आदि सुरत तहं लै पहुंचाई।।
आदि सुरत पुरूष को आही। जीव सोहंगम बोलिये ताही।।
धर्मदास तुम सन्त सुजाना। परखो सार शब्द निरबाना।।
सार शब्द (नाम) जपने की विधि गुरूगमभेद छन्द
अजपा जाप हो सहज धुना, परखि गुरूगम डारिये।।
मन पवन थिरकर शब्द निरखि, कर्म ममन मथ मारिये।। होत धुनि रसना बिना, कर माल विन निर वारिये।।
शब्द सार विदेह निरखत, अमर लोक सिधारिये।।
सोरठा - शोभा अगम अपार, कोटि भानु शशि रोम इक।।
षोडश रवि छिटकार, एक हंस उजियार तनु।।
धर्मदास का आनन्दोद्गार
हे प्रभु तब चरण बलिहारी। किये सुखी सब कष्ट निवारी।।
चक्षुहीन जिमि पावे नैना। तिमि मोही हरष सुनत तव नैना।।
अनुराग सागर पृष्ठ 10-11 का भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने नाम की महिमा बताई है। कहा है कि हे धर्मदास! जब तक विदेह का ध्यान साधक को नहीं आता, तब तक जीव संसार में जन्म-मरण चक्र में भटकता रहता है। यहाँ पर विदेह का अर्थ है परमेश्वर। जैसे धर्मदास जी से परमेश्वर कबीर जी ने कहा था कि मेरे शरीर को परखकर ध्यान से देख, मेरा शरीर आप जैसा पाँच तत्त्व का नहीं है। धर्मदास जी ने हाथ-पैर पकड़कर दबाए तो रबड़ की तरह नरम थे। परमेश्वर ने कहा था कि मैं विदेही हूँ। (राजा जनक को भी विदेही कहा गया है।) विदेह का अर्थ सामान्य व्यक्ति के शरीर से भिन्न है। वह विदेह है। भावार्थ है कि जब तत्त्वज्ञान हो जाता है, तब उस विदेह परमेश्वर में ध्यान लगता है। उसको प्राप्त करने का नाम जाप मंत्र भी विदेह है यानि विलक्षण है। विदेह नाम को सारनाम, सार शब्द, अमर नाम भी कहते हैं। विदेह परमेश्वर में लगन लगे और नाम भी विदेह हो यानि उसी का सारनाम हो। जब इन दोनों को लख लेगा यानि जान लेगा, सत्य रूप में देख लेगा, तब शंका समाप्त होगी। उस विदेह परमेश्वर (सत्य पुरूष) का ध्यान एक क्षण भी हो जाए, उसकी इतनी कीमत है कि कही नहीं जा सकती। काया के नाम यानि देह धारी (माता के गर्भ से उत्पन्न) राम, कृष्ण, विष्णु, शिव आदि के नाम तो सब जाप करते हैं, परंतु विदेह परमात्मा का सारनाम कोई बिरला ही प्राप्त करता है।
जैसे कि किंवदन्ती (दंत कथा) है कि जो काशी नगर में मरता है, वह स्वर्ग जाता है। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि चारों युग तक काशी में निवास करे, परंतु सार शब्द बिना काल के मुख में जाएगा। यदि कोई श्रद्धालु बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि धामों पर जाता है, गया जी, द्वारिका, प्रयाग आदि तीर्थों में स्नान करता है, यदि कोई अड़सठ तीर्थों का भ्रमण करता है, यदि कोई (भू) भूमि की परिक्रमा कर लेता है। (गोवर्धन पर्वत की तो बहुत छोटी परिक्रमा है) यानि यदि कोई पृथ्वी की परिक्रमा भी क्यों न कर आए, वह भी व्यर्थ है क्योंकि सार शब्द के बिना जीव का भ्रम समाप्त नहीं होता अर्थात् सार शब्द से जीव का मोक्ष हो सकता है। अन्य उपरोक्त साधना शास्त्रा विरूद्ध होने के कारण मोक्षदायक नहीं हैं।
अनुराग सागर के पृष्ठ 11 का सारांश:-
सारशब्द (सार नाम) से लाभ
सारनाम पूर्ण सतगुरू से प्राप्त होता है। नाम प्राप्त करने से सतलोक की प्राप्ति होती है। धर्मराय (ज्योति स्वरूपी निरंजन अर्थात् काल ब्रह्म) भी सार शब्द प्राप्त भक्त के सामने नतमस्तक हो जाता है। सार शब्द की शक्ति के सामने काल ब्रह्म टिक नहीं पाता क्योंकि सार शब्द विदेह परमेश्वर कबीर जी का है। इसलिए सार शब्द ही निःअक्षर का स्वरूप है। यह सार नाम (विदेह नाम) अनूप यानि अद्भुत है। सार शब्द तो विदेह है क्योंकि यह विदेह परमेश्वर का जाप मंत्र है। कबीर परमेश्वर विदेह हैं। विदेह-विदेह में भी अंतर होता है। जैसे राजा जनक को भी विदेह कहा जाता है और कबीर परमेश्वर जी भी विदेही हैं। जैसे एक सोने का आभूषण दो कैरेट स्वर्ण से बना है। वह भी स्वर्ण आभूषण कहा जाता है। दूसरा 24 कैरेट स्वर्ण से बना है तो दोनों ही स्वर्ण आभूषण कहलाते हैं, परंतु मूल्य में अंतर बहुत होता है। इसलिए कहा है कि जो अन्य प्रभु हैं (श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु, श्री शिव जी तथा राम-कृष्ण) वे सब पाँच तत्त्व के शरीर में हैं और परमेश्वर कबीर जी यानि सत्य पुरूष का शरीर निःतत्त्व यानि पाँच तत्त्व से रहित है। इसलिए विदेह परमात्मा का सार शब्द जाप मंत्र है। कहने को तो शब्द बहुत प्रकार के हैं, परंतु सार शब्द से जीव का उद्धार होता है। सतपुरूष का प्रवाना यानि दीक्षा मंत्र सार नाम है और उसका सुमरण भी सार यानि खास विधि से होता है। सार शब्द का जाप बिन जीभ के यानि सुरति-निरति से श्वांस द्वारा स्मरण होता है। यह भक्ति का सहज व यथार्थ मार्ग है और इस साधना को कोई शूरवीर ही करता है। इस साधना से काल मुरझा जाता है यानि काल ब्रह्म कमजोर (बलहीन) हो जाता है। हे धर्मदास! तेरे को सार शब्द की पहचान करा दी है और तेरे को हंस की पदवी प्राप्त करा दी है। सतलोक में जाने के पश्चात् कोई सुमरण जाप नहीं रहता, न वहाँ काल का जाल देखने को मिलता है। वहाँ पर पूर्ण वस्तु है अर्थात् सर्व वस्तुओं का भण्डार है, किसी चीज का अभाव नहीं है। सत्यलोक में एक अनन्त पंखुड़ियों वाला कमल है जो परमेश्वर का आसन है। उस अमर स्थान तथा अमर पुरूष को प्राप्त करने के लिए अजपा जाप की डोर तान दे अर्थात् सत्यलोक को प्राप्त करने के लिए श्वांस का बिना जीभ के मानसिक जाप किया जाता है, उसको निरंतर कर। जैसे बाण चलाने वाला निशाना लगाते समय तीर को तानकर (कसकर) छोड़ता है। ऐसे नाम के जाप को तान दे। जब अगम अगोचर अर्थात् सबसे ऊपर वाला सर्व श्रेष्ठ सत्य मार्ग परसे यानि प्राप्त हो जाए तो तब वह सूक्ष्म द्वार यानि भंवर गुफा का द्वार दिखाई देता है। अंतरिक्ष में सुन्न स्थान यानि एकांत लोक में प्रकाश दिखाई देता है। वहाँ पर परम पुरूष का निवास है। उस सार शब्द में सुरति (ध्यान) लगाकर वहाँ जाया जाता है। सारशब्द को पहचानकर उसमें सुरति लगाकर भक्त वहाँ जाता है। आदि सुरति अर्थात् सनातन शब्द का ध्यान सत्य पुरूष का है। उसके लिए हे जीव! सोहं शब्द का स्मरण करना, उसी को सोहं जाप कहते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप सज्जन संत हो, उस सार शब्द को परखो (जाँचो) जो निर्वाण यानि मोक्ष देने वाला है।
सार शब्द जपने की विधि
सारनाम का स्मरण बिना रसना (जीभ) के मन तथा पवन यानि श्वांस के द्वारा किया जाता है। यह अजपा (बिना जीभ से) जाप होता है। इस शब्द को निरखे अर्थात् शब्द की जाँच करे। फिर मन को सत्य ज्ञान का मंथन करके मारो यानि विषय विकारों को हटाओ। सार शब्द की साधना बिना जीभ के बिना आवाज किए की जाती है। इस जाप स्मरण के लिए कर यानि हाथ में माल उठाने की आवश्यकता नहीं यानि माला की आवश्यकता नहीं होती अर्थात् सार शब्द बिना हाथ में माला लिए निर वारिये यानि बिना माला के निर्वाह कीजिए। निर्वाह का यहाँ अर्थ है प्रयत्न। ऐसे सार शब्द और उसके स्मरण की विधि निरखकर यानि पहचान (जान) कर सत्यलोक जाईये। सत्यलोक में सत्यपुरूष जी के शरीर के एक रोम (बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्यों के समान है। जो साधक मोक्ष प्राप्त करके सत्यलोक में चले गए या जो वहाँ के आदि वासी हैं, उनके शरीर का प्रकाश 16 सूर्यों के प्रकाश के समान है। सत्यलोक में परमेश्वर के शरीर की शोभा अपार है।
धर्मदास का आनंदोद्गार
धर्मदास जी ने परमेश्वर जी का धन्यवाद किया कि आप जी ने वास्तविक ज्ञान तथा जाप मंत्र देकर मेरा कष्ट समाप्त कर दिया। मैं आपकी बलिहारी जाऊँ। जैसे चक्षुहीन (अंधे) को आँखें मिल जाएं। उसी प्रकार आपके अमृत वचन सुनकर मुझे हर्ष हो रहा है। आपने मुझ पर अपार कृपा की है।
अनुराग सागर पृष्ठ 12 का सारांश
कबीर परमेश्वर जी के वचन
धर्मदास तुम अंस अंकुरी। मोहि मिलेउ कीन्हे दुख दूरी।।
जस तुम कीन्हे मोसंग नेहा। तजि धन धामरू सुत पितु गेहा।।
आगे शिष्य जो अस विधि करि हैं। गुरू चरण मन निश्चल धरि हैं।।
गुरू के चरण प्रीत चित धारै। तन मन धन सतगुरू पर वारै।।
सो जिव मोही अधिक प्रिय होई। ताकहँ रोकि सकै नहिं कोई।।
शिष्य होय सरबस नहीं वारे। हृदय कपट मुख प्रीति उचारे।।
सो जिव कैसे लोग सिधाई। बिन गुरू मिलै मोहि नहिं पाई।।
पृष्ठ 12 का भावार्थ:- इन चैपाईयों में परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी से कहा कि हे धर्मदास! आप हमारे अंकुरी हंस हो। {अंकुरी का अर्थ है जो पूर्व जन्म का उपदेशी होता है और वह किन्हीं कारणों से मुक्त नहीं हो पाता है। उसको अंकुरी हंस कहते हैं। जैसे चनों को पानी में भिगो दिया जाता है तो सुबह तक या एक-दो दिन में उनमें अंकुर निकल आते हैं। कुछ किसान चनों को बीजने से एक दिन पहले पानी छिड़क देते हैं। फिर वह अंकुरित चना शीघ्र उग जाता है। इसी प्रकार पूर्व का उपदेशी प्राणी (स्त्री-पुरूष) शीघ्र ज्ञान ग्रहण करके भक्ति पर लग जाता है। इसलिए परमेश्वर ने धर्मदास जी को अंकुरी हंस कहा है।} आप मेरे को मिले तो तेरा दुःख दूर कर दिया है। जैसे आपने मेरे साथ प्रेम भाव किया है। आपने अपने परिवार तथा धन को त्यागकर मेरे अंदर पूर्ण आस्था और सच्चा प्रेम किया है। भविष्य में यदि कोई भक्त मेरे भेजे अंश से जो सतगुरू होगा, उससे ऐसे ही भाव करेगा। मन को निश्चल करके गुरू के चरणों में धरेगा। जो सतगुरू के ऊपर तन-मन-धन न्यौछावर करेगा, वह जीव मेरे को अधिक प्रिय होगा। उसको सत्यलोक जाने से कोई नहीं रोक सकता। यदि शिष्य होकर समर्पित नहीं होता और हृदय में छल रखता है, ऊपर से दिखावा प्रेम करता है। वह प्राणी सत्यलोक कैसे जा सकेगा क्योंकि गुरू के मिले बिना यानि गुरू के साथ परमात्मा जैसा लगाव किए बिना मुझे (कबीर परमेश्वर जी) को नहीं प्राप्त कर सकता।
उदाहरण:- जैसे गणित के अंदर एक ऋण का प्रश्न आता है, उसमें मूलधन ज्ञात करना होता है। उसमें मानना होता है कि मान लो मूलधन सौ रूपये। वास्तविक मूलधन करोड़ों रूपये की राशि होती है। परंतु पहले सौ रूपये मूलधन माने बिना वह वास्तविक मूलधन नहीं मिल सकता। इसी प्रकार इस अंतिम वाणी का भावार्थ है।
धर्मदास वचन
यह तो प्रभु आप ही कीन्हा। नहीं मैं तो हतो बहुत मलीना।।
करके दया प्रभु आप ही आये। पकड़ि बांह प्रभु काल सों छुड़ाये।।
सृष्टि उत्पत्ति विषय प्रश्न तथा विवेचन
अब साहब मोंहि देउ बताई। अमर लोग सो कहां रहाई।।
लोक दीप मोहिं बरनि सुनावहु। तृषनावन्तको अमी पियावहुै।।
कौन द्वीप हंसको वासा। कौन द्वीप पूरूष रह वासा।।
भोजन कौन हंस तहँ करई। और बानी कहँ पुनि उच्चरई।।
कैसे पूरूष लोक रचि राखा। द्वीपहिं कर कैसे अभिलाखा।।
तीन लोक उत्पत्ती भाखो। वर्णहुसकल गोय जनि राखो।।
काल निरंजन केहि विधि भयऊ। कैसे षोडश सुत निर्मयऊ।।
कैसे चार खानि बिस्तारी। कैसे जीव कालवश डारी।।
कैसे कूर्म शेष उपराजा। कैसे मीन बराहहिं साजा।।
त्रय देवा कौन विधि भयऊ। कैसे महि अकाश निरमयऊ।।
चन्द्र सूर्य कहु कैसे भयऊ। कैसे तारागण सब ठयऊ।।
किहि विधि भइ शरीर की रचना। भाषो साहब उत्पत्ति बचना।।
भावार्थ:- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से विनयपूर्वक अति आधीन होकर प्रश्न किया कि हे परमेश्वर! कृपा करके मुझे यह बताईये कि वह अमर लोक कहाँ पर है?
धर्मदास जी ने वही भूमिका की जो श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में कहा है। गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने कहा कि हे अर्जुन! यज्ञों यानि धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तारपूर्वक ज्ञान (ब्रह्मणः मुखे) सच्चिदानंद घन परमेश्वर अपने मुख कमल से उच्चारण करके वाणी में बताता है। जिसे तत्त्वज्ञान कहते हैं। उसको जानकर सर्व पापों से मुक्त हो जाता है।(अध्याय 4 श्लोक 32) उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी संतों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत् प्रणाम करने से वे परमात्म तत्त्व को भली-भांति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।(अध्याय 4 श्लोक 34)
यहाँ पर दोनों ही अभिनय स्वयं परमेश्वर कबीर जी कर रहे हैं। वे सच्चिदानंद घन ब्रह्म भी हैं और उस समय तत्त्वदर्शी संत यानि सतगुरू का अभिनय भी कर रहे थे। धर्मदास जी अत्यधिक विनम्र व्यक्ति थे। सूक्ष्मवेद में कहा है:-
अति आधीन दीन हो प्राणी। वाकु कहना यह अकथ कहानी।।
जज्ञासु से कहिए ही कहिए। अन् ईच्छुक को भेद ना दीये।।
कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि:-
धर्मदास तू अधिकारी पाया। ताते मैं कहि भेद सुनाया।।
धर्मदास जी ने विनम्र भाव से पूछा कि हे परमेश्वर! मुझे बताऐं वह अमर लोक कहाँ पर है? जो सत्यलोक और द्वीप आपने बताए हैं, उनको विस्तार से बताने की कृपा करें। किस द्वीप में हंस (मुक्त जीव) रहते हैं? परमेश्वर (सत्य पुरूष) का निवास किस लोक में है? सतलोक में जो भक्त रहते हैं, वे कैसा भोजन खाते हैं? कैसी भाषा बोलते हैं यानि प्यार से रहते हैं या यहाँ की तरह छल-कपट तथा गाली-गलौच करते हैं? परमेश्वर ने कैसे लोक की रचना कर रखी है? द्वीपों की रचना करने की कैसे अभिलाषा (प्रेरणा) हुई? तीन लोकों की रचना कैसे की, वह बताऐं? मेरे से कुछ न छुपाऐं। सब वृंतान्त सुनायें। काल निरंजन की उत्पत्ति कैसे हुई? सोलह पुत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई? कैसे चार खानि बनाई? किस प्रकार जीव काल के जाल में फँसे? कूर्म तथा शेष की उत्पत्ति कैसे हुई? मीन, बरहा तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) की उत्पत्ति कैसे हुई? कैसे मही (पृथ्वी) तथा आकाश रचे? सूर्य, चाँद तथा तारों की रचना कैसे की? हे परमात्मा! शरीर आदि की रचना सहित सर्व ज्ञान सुनाओ ताकि मेरे मन की शंका समाप्त हो जाए।
अनुराग सागर के पृष्ठ 13 का सारांश
छन्द
आदि उत्पत्ति कहो सतगुरू, कृपाकरी निजदास को।।
बचन सुधा सु प्रकाश कीजै, नाश हो यमत्रसको।।
एक एक विलोयबर्णहु, दास मोहि निज जानिकै।।
सत्य वक्ता सदगुरू तुम, कहूँ मैं निश्चय मानिकै।।
सोरठा-निश्चय बचन तुम्हार, मोहिं अधिक प्रियताहिते।।
लीला अगम अपार, धन्यभाग दर्शन दिये।।
भावार्थ:- धर्मदास जी ने कहा कि हे सतगुरू जी! आप सत्य वक्ता हैं। जो स्पष्ट वचन आपने कहे हैं, किसी ने नहीं कहे। मुझे अपना दास जानकर एक-एक वचन विलोकर यानि पूर्ण विस्तार से बताऐं। मेरे धन्य भाग हैं कि मुझे आपके दर्शन हुए।
कबीर वचन
धर्मदास अधिकारी पाया। ताते मैं कहि भेद सुनाया।।
अब तुम सुनहु आदिकी बीनी। भाषों उत्पत्ति प्रलय निशानी।।
सृष्टि के आदि में क्या था?
तब की बात सुनहु धर्मदासा। जब नहीं महि पाताल आकाशा।।
जब नहिं कूर्म बराह और शेषा। जब नहिं शारद गौरि गणेशा।।
जब नहिं हते निरंजन राया। जिन जीवन कह बांधि झुलाया।।
तेतिस कोटि देवता नाहीं। और अनेक बताऊ काहीं।।
ब्रह्मा विष्णु महेश न तहिया। शास्त्रा वेद पुराण न कहिया।।
तब सब रहे पुरूष के माहीं। ज्यों बट वृक्ष मध्य रह छाहीं।।
छन्द
आदि उत्पत्ति सुनहु धर्मनि, कोइ न जानत ताहिहो।।
सबहि भो बिस्तर पाछे, साख (गवाही) देउँ मैं काहि हो।।
बेद चारों नाहिं जानत, सत्य पुरूष कहानियाँ।।
वेद को तब मूल नाहीं, अकथकथा बखानियाँ।।
सोरठा-निराकरतै वेद, आदिभेद जाने नहीं।।
पण्डित करत उछेद, मते वेद के जग चले।।
भावार्थ:- अनुराग सागर के पृष्ठ 13 की 7वीं पंक्ति से 20वीं पंक्ति में अंकित चैपाईयों में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! तू इस तत्त्वज्ञान को सुनने का अधिकारी मिला है। इसलिए तेरे को यह ज्ञान बताया। अब तेरे को आदि यानि प्रारम्भ की रचना का ज्ञान करवाता हूँ।
सृष्टि की आदि में क्या था?
हे धर्मदास! उस समय की बात सुन, जिस समय न तो पृथ्वी थी, न आकाश तथा पाताल बने थे। न तब कूर्म, शेष, बराह थे, न शारदा, पावर्ती तथा गणेश की उत्पत्ति हुई थी। उस समय ज्योति स्वरूपी काल निरंजन भी नहीं जन्मा था जिसने जीवों को कर्मों के बंधन में बाँध रखा है। और क्या बताऊँ उस समय न तो तैंतीस करोड़ देवता थे, न ब्रह्मा, विष्णु, महेश का जन्म हुआ था। तब न चारों वेद थे, न पुराण आदि शास्त्रा थे।
तब सब रहे पुरूष के मांही। ज्यों वट वृक्ष मध्य रहे बीज में छुपाई।।
उस समय सर्व रचना परमेश्वर यानि सत्यपुरूष के अंदर थी। जैसे वट वृक्ष (बड़ का वृक्ष) बीज में (जो राई के दाने के समान होता है) छुपा होता है। ऐसे सर्व रचना परमेश्वर में बीज रूप में रखी थी। परमेश्वर को भगलीगर भी कहा जाता है। जैसे एक जादूगर (भगलीगर) अपने मुख में एक काँच की छोटी-सी गोली डालता है। फिर मुख से आधा किलोग्राम का पत्थर निकाल देता है। इसी प्रकार परमात्मा ने सर्व रचना अपने वचन से अपने शरीर के अंदर से बाहर निकाली है। हे धर्मनि! आदि यानि सर्वप्रथम वाली रचना सुनाता हूँ जिसको कोई नहीं जानता और जो मैं बताने जा रहा हूँ, उसका साखी यानि साक्षी (गवाह) किसे बनाऊँ क्योंकि सब उपरोक्त देवता तथा पृथ्वी-आकाश आदि-आदि बाद में उत्पन्न किए हैं। आदि की उत्पत्ति का स्पष्ट वर्णन वेदों में भी नहीं है। वेद भी सत्यपुरूष की सत्य कथा को नहीं जानते। जो चार वेद काल निरंजन (जिसे भूल से निराकार मानते हैं) के श्वांसों से निकले थे। काल ने वेद का सत्यज्ञान वाला भाग नष्ट कर दिया था। शेष भाग को ऋषि कृष्ण द्वैपायन (जिसे वेदव्यास कहते हैं) ने बेद को चार भागों में बाँटा तथा कागज के ऊपर लिखा। वेदों वाला अधूरा ज्ञान है। उसी ज्ञान को पंडितजन जनता में सुनाते हैं। जिस कारण से सर्व मानव वेदों के अनुसार साधना करने लगे हैं।
सृष्टि की उत्पत्ति - अनुराग सागर पृष्ठ 14
(अनुराग सागर के पृष्ठ 14 से वाणियाँ)
सृष्टि की उत्पत्ति (सत्य पुरूष द्वारा की गई रचना)
सत्य परूष जब गुप्त रहाये। कारण करण नहीं निरमाये।।1
समपुट कमल रह गुप्त सनेहा। पुहुप माहिं रह पुरूष विदेहा।।2
इच्छा कीन्ह अंश उपजाये। हंसन देखि हरष बहुपाये।।3
प्रथमहिं पुरूष शब्द परकाशा। दीप लोक रचि कीन्ह निवासा।।4
चारि कर सिंहासन कीन्हा। तापर पुहुप दीपकर चीन्हा।।5
पुरूष कला धरि बैठे जहिया। प्रगटी अगर वासना तहिया।।6
सहस अठासी दीप रचि राखा। पुरूष इच्छातैं सब अभिलाखा।।7
सबै द्वीप रह अगर समायी। अगर वासना बहुत सुहायी।।8
भावार्थ:- वाणी नं. 1:- सत्यपुरूष अर्थात् अविनाशी परमेश्वर गुप्त रहते थे। उस समय कुछ भी रचना नहीं की थी।
वाणी नं. 2:- एक असंख्य पंखुड़ी का कमल का फूल था। उसके ऊपर परमेश्वर विराजमान थे। परमात्मा विदेह हैं, निराकार नहीं हैं। विदेह का अर्थ शरीर रहित यहाँ नहीं है। जैसे धर्मदास जी को कबीर परमेश्वर जी ने कहा था कि मैं विदेह हूँ। इसलिए आपका भोजन नहीं खाऊँगा। धर्मदास जी ने कहा कि आप जी का शरीर मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। आप बातें कर रहे हो। वस्त्रा पहने हुए हो। आपकी एक जिंदा बाबा वाली वेशभूषा है। आप अपने आपको विदेह कह रहे हो। यह भेद समझाओ। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मेरे हाथों को छूकर देख। धर्मदास जी ने परमेश्वर जी के चरण छूए तो रूई जैसे नरम (मुलायम) थे। धर्मदास जी हैरान थे। तब परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! मेरा शरीर आप जैसा पाँच तत्त्व से (नर-मादा से) निर्मित नहीं है। इसलिए मैं विदेही हूँ यानि मेरा विलक्षण शरीर है। विदेही का अर्थ है भिन्न शरीर। जैसा कि वाणी नं. 2 में कहा है कि परमात्मा कमल पुष्प पर विराजमान थे।
वाणी नं. 3:- स्वेच्छा से अंश उत्पन्न किए। उनको देखकर अति प्रसन्न हुए।
वाणी नं. 4:- सर्व प्रथम (कमल पुष्प पर बैठे-बैठे) परमेश्वर ने एक वचन से सर्व लोकों तथा द्वीपों की रचना की। फिर उन लोकों में स्वयं निवास किया और द्वीपों में अपने अंश यानि वचन से उत्पन्न पुत्रों को रहने की आज्ञा दी।
सर्व प्रथम सत्य पुरूष जी ने ऊपर के चार अविनाशी लोकों की रचना की। 1) अकह (अनामी) लोक 2) अगम लोक 3) अलख लोक 4) सत्यलोक।
वाणी नं. 5:- चारिकर सिंहासन कीन्हा। तापर पुहुप द्वीपर कर चीन्हा।।
भावार्थ:- इन चारों लोकों की रचना करके परमेश्वर जी ने प्रत्येक लोक में कमल के फूल के आकार के सिंहासन की रचना की।
वाणी नं. 6:- उन चारों लोकों में एक-एक कमल पुष्पनुमा सिंहासन की रचना करके पुरूष (सत्य पुरूष) के रूप में यानि एक सम्राट के समान मुकुट पहनकर ऊपर छत्र तानकर महाराजाओं की तरह बैठ गए।
उसके पश्चात् आगे की रचना की इच्छा प्रकट हुई। फिर अठासी हजार द्वीपों की रचना की।
सोलह पुत्रों (सुतों) को उत्पन्न करना
दुजे शब्द भयेजु पुरूष प्रकाशा। निकसे कूर्मचरण गहि आशा।।9
तीजे शब्द भयेजु पुरूष उच्चारा। ज्ञान नाम सुत उपजे सारा।।10
टेकी चरण सम्मुख ह्नै रहेऊ। आज्ञा पुरूष द्वीप तिन्ह दएऊ।।11
चैथे शब्द भये पुनि जबहीं। विवेकनाम सुत उपजे तबहीं।।12
आप पुरूष किये द्वीप निवासा। पंचम शब्द सो तेज प्रकासा।।13
पांचवे शब्द जब पुरूष उच्चारा। काल निरंजन भी औतारा।।14
तेज अंगते काल ह्नै आवा। ताते जीवन कह संतावा।।15
जीवरा अंश पुरूष का आहिं। आदि अंत कोउ जानत नाहीं।।16
छठे शब्द पुरूष मुख भाषा, प्रगटे सहजनाम अभिलाषा।।17
सतयें शब्द भयो संतोषा। दीन्हो द्वीप पुरूष परितोषा।।18
अठयें शब्द पुरूष उचारा। सुरति सुभाष द्वीप बैठारा।।19
नवमें शब्द आनन्द अपारा। दशयें शब्द क्षमा अनुसारा।।20
ग्यारहें शब्द नाम निष्कामा। बारहें शब्द जलरंगी नामा।।21
तेरहें शब्द अचिंत सुत जाने। चैदहें शब्द सुत प्रेम बखाने।।22
पन्द्रहें शब्द सुत दीन दयाला। सोलहें शब्द में धैर्य रसाला।।23
सत्रहवें शब्द सुतयोग संतायन। एक नाल षोडषसुत पायन।।
शब्दहिते भयो सुतन अकारा। शब्दते लोक द्वीप विस्तारा।।
अग्र अभी दिव्य अंश अहारा। द्वीप द्वीप अंशन बैठारा।।
अंशन शोभा कला अनन्ता। होत तहां सुख सदा बसन्ता।।
अंशन शोभा अगम अपारा। कला अनन्त को वरणै पारा।।
सब सुत करें पुरूष को ध्याना। अमी अहार सदासुख माना।।
याही बिधि सोलह सुत भेऊ। धर्मदास तुम चितधरि लेऊ।।
द्वीप करी को अनंत शोभा, नहि बरणतसो बने।।
अमितकला अपार अद्भुत, सुनत शोभा को गिने।।
पुरके उजियार से सुन, सबै द्वीप अजो रहो।।
सत पुरूष रोम प्रकाश एकहि, चन्द्र सूर्य करोर हो।।
सोरठा-सतगुरू आँन धाम, शोकमोहदुःख तहँ नहीं।।
हंसन को विश्राम, पुरूष दरश अँचवन सुधा।।
भावार्थ:- पंक्ति नं. 9 में कहा कि परमात्मा ने दूसरे शब्द से कूर्म की उत्पत्ति की। फिर पंक्ति नं. 10 से 13 तक कहा है कि तीसरे शब्द से ज्ञान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। चैथे शब्द से विवेक नामक, पाँचवे शब्द से तेज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इसके पश्चात् पंक्ति नं. 14, 15, 16 बनावटी यानि झूठी हैं क्योंकि पंक्ति नं. 13 में वाणी स्पष्ट करती है। आप पुरूष रहे द्वीप निवासा। पंचम शब्द तेज प्रकाश।।
भावार्थ है कि परमात्मा ने स्वयं अपने द्वीप में बैठे-बैठे वहाँ से पाँचवां शब्द उच्चारण करके पाँचवां पुत्र तेज उत्पन्न किया।
पंक्ति नं. 14:- पाँचवे शब्द पुरूष उच्चारा। काल निरंजन भो अवतारा।।
पंक्ति नं. 15:- तेज अंग ते काल ह्नै आया। ताते जीवन कहै सतावा।।
पंक्ति नं. 16:- जीवरा अंश पुरूष का आही। आदि अंत कोई जानत नाहीं।।
भावार्थ: पंक्ति नं. 14 से 16 तक बनावटी वाणी बनाकर अज्ञानता स्पष्ट की है। जब 13वीं पंक्ति में स्पष्ट है कि पाँचवें शब्द से परमात्मा ने तेज की उत्पत्ति की। फिर पंक्ति नं. 14 से 16 में यह कहना कि तेज से काल निरंजन का जन्म हुआ, कितनी मूर्खता है। काल निरंजन को तेज का पुत्र सिद्ध कर दिया जो गलत है। इस प्रकार तो तेरह सुत बनते हैं जो गलत है। दूसरा प्रमाण यह है कि पंक्ति नं. 9 से 13 तथा 17 से 23 तक अनुराग सागर के पृष्ठ 14 में तथा पृष्ठ नं. 15 पर प्रथम पंक्ति में प्रत्येक पुत्र के विषय में एक-एक वचन से उत्पत्ति कही है। तो पंक्ति नं. 13 में स्पष्ट है तेज की उत्पत्ति पाँचवे शब्द से परमेश्वर जी ने की। फिर तेज से काल निरंजन की उत्पत्ति बताना बनावटी वाणी का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
वास्तव में परमेश्वर जी ने 17 वचनों से रचना की जो प्रथम चरण में की थी। एक वचन से सर्व लोक तथा लोकों में भिन्न-भिन्न द्वीप बनाए। फिर 16 वचनों से 16 पुत्रों की रचना की। दूसरे चरण में अक्षर पुरूष को मान सरोवर में सोये हुए को जगाने तथा निकालने के लिए सत्यपुरूष जी ने अमृत जल से एक अण्डा वचन से बनाया तथा उस अण्डे में वचन से एक आत्मा प्रवेश की। अण्डे का आकार बहुत बड़ा था। उसको सरोवर के जल में छोड़ दिया। उसकी गड़गड़ाहट की आवाज सुनकर अक्षर पुरूष निन्द्रा से जागा और अण्डे की और कोप से देखा। उस क्रोध से अण्डा फूट गया। उसमें से ज्योति निरंजन यानि काल निरंजन निकला। उन दोनों (अक्षर पुरूष तथा काल निरंजन) जिनको गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष कहा है) को अचिन्त के द्वीप में रहने की आज्ञा दी। फिर काल निरंजन ने तीन बार (सत्तर युग, सत्तर युग तथा 64 युग) तपस्या करके यह इक्कीस ब्रह्माण्ड का क्षेत्र प्राप्त किया। विस्तृत सृष्टि रचना कृपा पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 603 से 670 तक। यदि प्रमाण देखना है तो कबीर सागर के अध्याय स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 90 से 92 तक तथा सर्वज्ञ सागर के पृष्ठ 137 तथा अध्याय कबीर बानी के पृष्ठ 117, 119 तथा 123 पर पढ़ें। काल निरंजन की उत्पत्ति अण्डे से हुई थी।
अनुराग सागर अध्याय में पृष्ठ 12 से 68 तक सृष्टि की रचना तथा काल के साथ वार्ता संबंधी अमृत ज्ञान है। यथार्थ रूप से सृष्टि रचना का ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक में अंदर लिखे पृष्ठ 603 से 670 तक।
अनुराग सागर पृष्ठ 69 से 110 तक तीन युगों में (सत्ययुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग) में प्रकट होकर जीवों को शरण में लेने का प्रकरण है। जगन्नाथ मंदिर की स्थापना का गलत वर्णन है। इसमें बहुत मिलवाटी तथा बनावटी वाणी हैं जो गलत हैं। यथार्थ प्रसंग पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 473 से 516 तक अध्याय ‘‘कबीर चरित्र बोध’’ के सारांश में।
अनुराग सागर के पृष्ठ 110 से 141 तक परमेश्वर कबीर जी का कलयुग में प्रकट होना, धर्मदास जी को शरण में लेना, 42 वंश तथा 12 पंथों के विषय में वाणियाँ हैं जो कुछ ठीक, कुछ बनावटी हैं। यथार्थ ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक के ज्ञान सागर के सारांश में शीर्षक ‘‘धर्मदास जी की वंश परंपरा के बारे में‘‘ पृष्ठ 77 से 80 तक। अनुराग सागर पृष्ठ 142 से 150 तक सतगुरू की महिमा बताई है।
पृष्ठ 150 से 152 पर कमलों की जानकारी है। सम्पूर्ण कमलों का ज्ञान पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 152 से 161 तक।
पृष्ठ 152 से 155 तक मन के द्वारा पाप कर्म करवाकर जीव को दोषी बनाने के विषय में है।
पृष्ठ 155 से 160 तक सामान्य ज्ञान है।
पृष्ठ 160 से 163 तक संत तथा हंस के लक्षण के बारे में है।
पृष्ठ 115 अनुराग सागर में धर्मदास जी के ज्येष्ठ पुत्र नारायण दास के विषय में ज्ञान है।
नारायण दास को काल का दूत बताना
अनुराग सागर पृष्ठ 115 का सारांश:-
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को सत्यज्ञान समझाकर तथा सत्यलोक में ले जाकर अपना परिचय देकर धर्मदास जी के विशेष विनय करने पर उनको दीक्षा मंत्र दे दिये। प्रथम मंत्र में कमलों के देवताओं के जो जाप मंत्र हैं, वे दिए जाते हैं। धर्मदास जी उन देवों को ईष्ट रूप में पहले ही मानता था, पंरतु अब ज्ञान हो गया था कि ये इष्ट रूप में पूज्य तो नहीं हैं, परंतु साधना का एक अंग हैं। धर्मदास की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उसने अपने परिवार का कल्याण करना चाहा। धर्मदास जी के साथ उनकी पत्नी आमिनी देवी दीक्षा ले चुकी थी। केवल इकलौता पुत्र नारायण दास ही दीक्षा बिना रहता था। धर्मदास जी ने परमात्मा कबीर जी से अपने पुत्र नारायण दास को शरण में लेने के लिए प्रार्थना की।
धर्मदास वचन
हे प्रभु तुम जीवन के मूला। मेटेउ मोर सकल तन सूला।।
आहि नरायण पुत्र हमारा। सौंपहु ताहि शब्द टकसारा।।
इतना सुनत सदगुरू हँसि दीन्हा। भाव प्रगट बाहर नहिं कीन्हा।।
भावार्थ:- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रार्थना की कि हे प्रभु जी! आप सर्व प्राणियों के मालिक हैं। मेरे दिल का एक सूल यानि काँटे का दर्द दूर करें। मेरा पुत्र नारायण दास है। उसको भी टकसार शब्द यानि वास्तविक मोक्ष मंत्र देने की कृपा करें। जब तक नारायण दास आपकी शरण में नहीं आता। तब तक मेरे मन में सूल (काँटे) जैसा दर्द बना है। धर्मदास जी की बात सुनकर परमात्मा अंदर ही अंदर हँसे। हँसी को बाहर प्रकट नहीं किया। कारण यह था कि परमेश्वर कबीर जी तो जानीजान हैं, अंतर्यामी हैं। उनको पता था कि काल का मुख्य दूत मृत्यु अंधा ही नारायण दास रूप में धर्मदास के घर पुत्र रूप में जन्मा है।
कबीर परमेश्वर वचन
धर्मदास तुम बोलाव तुरन्ता। जेहिको जानहु तुम शुद्धअन्ता।।
धर्मदास तब सबहिं बुलावा। आय खसम के चरण टिकावा।।
चरण गहो समरथ के आई। बहुरि न भव जल जन्मो भाई।।
इतना सुनत बहुत जिव आये। धाय चरण सतगुरू लपटाये।।
यक नहिं आये दास नरायन। बहुतक आय परे गुरू पायन।।
धर्मदास सोच मन कीन्हा। काहे न आयो पुत्र परबीना।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! अपने पुत्र को भी बुला ले और जो कोई आपका मित्र या निकटवासी है, उनको भी बुला लो, सबको एक-साथ दीक्षा दे दूँगा। धर्मदास जी ने नारायण दास तथा अन्य आस-पड़ोस के स्त्राी-पुरूषों से कहा कि परमात्मा आए हैं, दीक्षा लेकर अपना कल्याण कराओ। फिर यह अवसर हाथ नहीं आएगा। यह बात सुनकर आसपास के बहुत से जीव आ गए, परंतु नारायण दास नहीं आया। धर्मदास जी को चिंता हुई कि मेरा पुत्र क्यों नहीं आया? वह तो बड़ा प्रवीन है। तीक्ष्ण बुद्धि वाला है। धर्मदास जी ने अपने नौकर तथा नौकरानियों से कहा कि मेरे पुत्र नारायण दास को बुलाकर लाओ। नौकरों ने देखा कि वह गीता पढ़ रहा था और आने से मना कर दिया।
नारायण दास वचन
हम नहिं जायँ पिता के पासा। वृद्ध भये सकलौ बुद्धि नाशा।।
हरिसम कर्ता और कहँ आहि। ताको छोड़ जपैं हम काही।।
वृद्ध भये जुलाहा मन भावा। हम मन गुरू विठलेश्वर पावा।।
काहि कहौं कछु कहो न जाई। मोर पिता गया बौराई।।
भावार्थ:- नारायण दास ने नौकरों से कहा कि मैं पिताजी के पास नहीं जाऊँगा। वृद्धावस्था (बुढ़ापे) में उनकी बुद्धि का पूर्ण रूप से नाश हो गया है। हरि (श्री विष्णु जी) के समान और कौन कर्ता है जिसे छोड़कर हम अन्य किसकी भक्ति करें? पिता जी को वृद्ध अवस्था में जुलाहा मन बसा लिया है। मैंने तो बिठलेश्वर यानि बिट्ठल भगवान (श्री कृष्ण जी) को गुरू मान लिया है। क्या कहूँ? किसके सामने कहने लायक नहीं रहा हूँ। मेरे पिताजी पागल हो गए हैं। नौकरों ने जो-जो बातें नारायण ने कही थी, धर्मदास जी को सुनाई। धर्मदास जी स्वयं नारायण दास को बुलाने गए और कहा कि हे पुत्र! आप चलो सतपुरूष आए हैं। चरणों में गिरकर विनती करो। अपना कल्याण कराओ। बेटा! फिर ऐसा अवसर हाथ नहीं आएगा। हे भोले बेटा! यह हठ छोड़ दे।
नारायण दास वचन
तुम तो पिता गये बौराई। तीजे पन जिंदा गुरू पाई।।
राम कृष्ण सम न देवा। जाकी ऋषि मुनि लावहिं सेवा।।
गुरू बिठलेश्वर छांडेउ दीता। वृद्ध भये जिंदा गुरू कीता।।
भावार्थ:- नारायण दास ने कहा कि पिता जी! आप तो पागल हो गए हो। तीजेपन यानि जीवन के तीसरे पड़ाव को पार कर चुके हो। 75 वर्ष तक के जीवन को तीसरा पड़ाव कहते हैं। आपने जिन्दा बाबा (मुसलमान संत) गुरू बना लिया। राम जी के समान अन्य कोई प्रभु नहीं है। जिसकी सेवा (पूजा) सब ऋषि-मुनि करते रहे हैं।
धर्मदास वचन
**बांह पकर तब लीन्ह उठाई। पुनि सतगुरू के सन्मुख लाई।।
सतगुरू चरण गहो रे बारा। यम के फन्द छुड़ावन हारा।।
तज संसार लोक कहँ जाई। नाम पान गुरू होय सहाई।।_
भावार्थ:- धर्मदास जी ने अपने पुत्र नारायण दास को बाजू से पकड़कर उठाया और सतगुरू कबीर जी के सामने ले आया। हे मेरे बालक! सतगुरू के चरण ग्रहण करो। ये काल की बंद से छुड़ाने वाले हैं। जिस समय संसार छोड़कर सतलोक में जाएंगे तो गुरू दीक्षा सहायता करती है।
नारायण दास वचन
तब मुख फेरे नरायन दासा। कीन्ह मलेच्छ भवन परगासा।।
कहँवाते जिंदा ठग आया। हमरे पितहिं डारि बौराया।।
वेद शास्त्रा कहँ दीन उठाई। आपनि महिमा कहत बनायी।।
जिंदा रहे तुम्हारे पासा। तो लग घरकी छोड़ी आसा।।
इतना सुनत धर्मदासा अकुलाने। ना जाने सुत का मत ठाने।।
पुनि आमिन बहुविधि समझायो। नारायण चित एकु न आयो।।
तब धर्मदास गुरू पहँ आये। बहुविधिते पुनि बिनती लाये।।
भावार्थ:- सतगुरू कबीर जी के सम्मुख जाते ही नारायण दास ने अपना मुख दूसरी ओर टेढ़ा किया और बोला कि पिता जी! आपने मलेच्छ (मुसलमान) को घर में प्रवेश करवाया है। धर्म भ्रष्ट कर दिया है। यह जिंदा बाबा ठग कहाँ से आया। मेरे पिता को बहका दिया है। इसने वेद-शास्त्रों को तो एक और रखा दिया, अपनी महिमा बनाई है। जब तक यह जिन्दा घर में रहेगा, मैं घर में नहीं आऊँगा। अपने पुत्र की इतनी बातें सुनकर धर्मदास व्याकुल हो गया कि बेटा पता नहीं क्या कर बैठेगा? फिर नारायण दास की माता जी आमिनी देवी ने भी बहुत समझाया, परंतु नारायण दास के हृदय में एक बात नहीं आई और उठकर चला गया। धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रार्थना की कि हे प्रभु! क्या कारण है। नारायण दास इतना विपरीत चल रहा है। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! तेरे पुत्र रूप में काल का दूत आया है। इसका नाम मृत्यु अंधा दूत है। यह मेरी बात को नहीं मानेगा।
विवेचन:- पाठकों से निवेदन है कि अनुराग सागर के पृष्ठ 117 पर ‘‘कबीर वचन‘‘ जो पंक्ति 15 नं. 22 अंतिम तक तथा पृष्ठ 118 तथा पृष्ठ 123 तक वाणियां बनावटी तथा मिलावटी हैं। यह धर्मदास जी के बिंद (परिवार वाले) महंतों ने नाश कर रखा है क्योंकि जिन 12 पंथों का यहाँ वर्णन है वह ‘‘कबीर बानी‘‘ अध्याय में कबीर सागर में पृष्ठ 134 पर लिखे प्रथम अंश से नहीं मिलता। उसमें लिखा है कि प्रथम अंश उत्तम यानि चूड़ामणी (मुक्तामणी) नाम साहेब के विषय में कहा है। यदि काल के बारह (12) पंथों में प्रथम उत्तम है तो नारायण दास प्रथम पंथ का प्रवर्तक नहीं हो सकता क्योंकि नारायण दास ने तो कबीर जी का मार्ग ग्रहण नहीं किया था। वे तो अंतिम समय तक श्री कृष्ण जी के पुजारी रहे थे। अपने छोटे भाई चूड़ामणी जी के दुश्मन बन गए थे। चूड़ामणी जी तो बाँधवगढ़ त्यागकर कुदुर्माल गाँव चले गए थे। नारायण दास ने बाँधवगढ़ में श्री कृष्ण जी का आलीशान मंदिर बनवाया था। श्री चूड़ामणी जी के कुदुर्माल जाने के कुछ वर्ष पश्चात् बाँधवगढ़ नगर भूकंप से नष्ट हो गया था। उसमें सब श्री कृष्ण पुजारी वैश्य रहते थे जैसे हरियाणा में अग्रोहा में हुआ था। बाद में उसी बाँधवगढ़ में श्री कृष्ण मंदिर बनाया गया है जो वर्तमान में विद्यमान है और उसको केवल जन्माष्टमी पर सरकार की देखरेख में तीन दिन दर्शनार्थ खोला जाता है। शेष समय में केवल सरकारी पुजारी मंदिर में पूजा करता है। कारण यह है कि उस स्थान पर खुदाई करना मना है। पहले खुदाई में बहुत व्यक्तियों को बहुत सोना-चाँदी हाथ लगा था। बाद में सरकार ने अपने कब्जे में ले रखा है। उस मंदिर का इतिहास नारायण दास सेठ से प्रारम्भ होता है। (यह वहाँ का पुजारी तथा वहाँ के उपासक बताते हैं।) धर्मदास जी के सर्व धन-संपत्ति पर नारायण दास ने कब्जा कर लिया था। श्री चूड़ामणी नाम साहेब तो परमेश्वर कबीर जी के भेजे परम हंस थे। उनका उद्देश्य धन-संपत्ति संग्रह करना नहीं था। परमात्मा के यथार्थ ज्ञान का प्रचार करना था तथा परमेश्वर कबीर जी के वचन अनुसार धर्मदास का वंश चलाना था जो बयालीस (42) पीढ़ी तक चलेगा। वर्तमान में चैदहवीं पीढ़ी चल रही है। चूड़ामणी की वंश गद्दी परंपरा में छठी पीढ़ी वाले ने वास्तविक भक्ति विधि तथा भक्ति मंत्र त्यागकर काल के 12 पंथों में भी पाँचवां टकसारी पंथ है, उसके बहकावे में आकर टकसारी पंथ वाली आरती-चैंका तथा पाँच नाम (अजर नाम, अमर नाम, अमीनाम आदि-आदि) शुरू कर दिये थे जो वर्तमान में दामाखेड़ा (छत्तीसगढ़) में गद्दी परंपरा वाले चैदहवें महंत श्री प्रकाश मुनि नाम साहेब प्रदान कर रहे हैं। अधिक जानकारी के लिए अनुराग सागर के पृष्ठ 138 से पृष्ठ 142 तक विस्तृत ज्ञान पढ़ें आगे।
अनुराग सागर पृष्ठ 124 का सारांश:-
धर्मदास वचन
हे प्रभु तुम जीवन के मूला। मेटहु मोर सकल दुख शूला।।
आहि नरायन पुत्र हमारा। अब हम तहँकर दीन्हा निकारा।।
काल अंश गृह जन्मों आई। जीवन काज होवै दुखदाई।।
धन सतगुरू तुम मोहि लखावा। काल अंशको भाव चिन्हावा।।
पुत्र नरायना त्यागी हम दीन्हा। तुमरो वचन मानि हम लीना।।
धर्मदास साहब को अन्शका दर्शन होना
धर्मदास विनवै सिर नाई। साहिब कहो जीव सुखदाई।।
किहि विधि जीव तरै भौसागर। कहिये मोहि हंसपति आगर।।
कैसे पंथ करौं परकासा। कैसे हंसहिं लोक निवासा।।
दास नरायन सुत जो रहिया। काल जान ताकँइ परिहरिया।।
अब साहिब देहु राह बताइ। कैसे हंसा लोक समाई।।
कैसे बंस हमारो चलि है। कैसे तुम्हरो पंथ अनुसरि है।।
आगे जेहिते पंथ चलाई। ताते करो विनती प्रभुराई।।
भावार्थ:- कुछ वाणी काटी गई हैं। इसलिए वह प्रसंग बताता हूँ। धर्मदास जी को विश्वास नहीं हुआ कि नारायण दास वास्तव में काल दूत है। तब कबीर परमेश्वर जी से व्याकुल तथा पुत्र मोह से ग्रस्त होकर कहा कि हे सतगुरू जी! आप जो कहते हैं वह गलत नहीं हो सकता, परंतु मेरा मन मुझे परेशान कर रहा है कि नारायण दास तो भगवान का परम भक्त है। यह काल का दूत नहीं हो सकता। ऐसी करो गुरूदेव मेरी शंका समाप्त हो। परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप नारायण दास को फिर बुलाओ और दोनों पति-पत्नी तुम आओ। जैसे-तैसे नारायण दास बुलाया। परमेश्वर कबीर जी ने नारायण दास की प्रसंशा की। कहा कि धर्मदास! तेरे घर प्रभु का परम भक्त जन्मा है। यह जो भक्ति कर रहा है, करने दो, देख इसके मस्तिक की रेखा। दोनों (आमिनी तथा धर्मदास) देखो। ऐसी रेखा करोड़ों में एक की होती है। धर्मदास तथा आमिनी ने देखा कि नारायण दास का स्वरूप भयानक था। ओछा माथा और लंबे दाँत, काला शरीर। उसके ऊपर नारायण दास के भौतिक शरीर का कवर था जो पहले हटता दिखा, फिर लिपटता दिखा। अपने पुत्र रूप में काल के दूत को आँखों देखकर धर्मदास तथा आमिनी देवी ने एक सुर में कहा कि जाओ पुत्र! जैसी भक्ति करना चाहो करो, परंतु घर त्यागकर मत जाना। लोग हमें जीने नहीं देंगे। नारायण दास चला गया। कबीर साहब ने कहा कि हे धर्मदास! यह कहीं जाने वाला नहीं है। अब ऊपर लिखी अनुराग सागर के पृष्ठ 124 की वाणियों का सरलार्थ करता हूँ।
भावार्थ:- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से निवेदन किया कि हे प्रभु! आप तो सर्व प्राणियों के जनक हैं। मेरे मन की शंका दूर करो। नारायण तो काल का अंश। यह तो मैंने दिल से उतार दिया। और पुत्र है नहीं। नारायण दास की संतान काल प्रेरित रहेगी। इस प्रकार तो मेरा वंश काल वंश होगा। आपने कहा कि मेरा वंश बयालीस पीढ़ी तक चलेगा। हे परमात्मा! ये तो काल कुल होगा। आपने कहा है कि तू धर्मदास मेरे (कबीर जी के) पंथ को आगे बढ़ाना सो वह कैसे संभव हो सकेगा?
अनुराग सागर के पृष्ठ 125 का सारांश:-
कबीर वचन
धर्मदास सुनु शब्द सिखापन। कहों संदेश जानि हित आपन।।
नौतम सुरति पुरूष के अंशा। तुव गृह प्रगट होइ है वंशा।।
वचन वंश जग प्रगटे आई। नाम चुणामणि ताहि कहाई।।
पुरूष अंश के नौतम वंशा। काल फन्द काटे जिव संशा।।
छन्द
कलि यह नाम प्रताप धर्मनि, हंस छूटे कालसो।।
सत्तनाम मन बिच दृढ़गहे, सोनिस्तरे यमजालसो।।
यम तासु निकट न आवई, जेहि बंशकी परतीतिहो।
कलि काल के सिर पांदै, चले भवजल जीतिहो।।
सोरठा-तुमसों कहों पुकार, धर्मदास चित परखहू।।
तेहि जिव लेउँ उबार वचन जो वंश दृढ़ गहे।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि तेरे घर मेरे वचन से तेरी पत्नी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म दसवें महीने होगा। उसका नाम चूड़ामणी रखना। वैसे उसका नाम नोतम दास है। (मीनी सतलोक में काल लोक में भी परमेश्वर कबीर जी ने एक सतलोक की रचना की है जैसे राजदूत भवन प्रत्येक देश में प्रत्येक देश का होता है, उसका प्रसिद्ध नाम सतगुरू लोक है। वहाँ से चुड़ामणि वाला जीव भेजा जाएगा।) उसको मैं स्वयं दीक्षा तथा गुरू पद प्रदान करूँगा।
अनुराग सागर के पृष्ठ 125 का सारांश:-
धर्मदास वचन
भावार्थ:- धर्मदास जी ने कहा कि यदि उस अंश के एक बार दर्शन हो जाएं तो मन का सब संशय समाप्त हो जाएगा। आपके वचन पर विश्वास हो जाएगा।
कबीर परमेश्वर वचन
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे मुक्तामणी! तू मेरा नामक अंश है। मेरे से सुकृत ने तेरे दर्शन का हठ किया है। एक बार शिशु रूप में इसके आंगन में प्रकट हो और फिर वापिस जाओ। {सतगुरू लोक यानि मीनी सतलोक से धर्मदास जी वाली आत्मा आई थी। वहाँ पर इनकी आत्मा का नाम सुकृत है। उस लोक के हंस इसी नाम से जानते हैं। सतगुरू लोक में जो हंस हैं, वे पार नहीं हुए हैं। उनकी भक्ति अधूरी रहती है, वे अंकुरी हंस हैं। अब कलयुग की बिचली पीढ़ी (कलयुग 5505 वर्ष बीतने के पश्चात् सन् 1997 से प्रारम्भ हुई है) में पृथ्वी पर जन्म लेंगे। यदि मेरे (रामपाल दास) से दीक्षा लेंगे, वे सर्व सतलोक चले जाएंगे।} परमेश्वर कबीर जी के कहते ही एक शिशु धर्मदास के घर के आँगन में पृथ्वी से एक फुट ऊपर दिखाई दिया। एक पैर का अंगूठा मुख में, एक को हिला रहा था। फिर तुरंत चला गया। धर्मदास तथा आमिनी देवी अति हर्षित हुए। परमेश्वर के चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया।
धर्मदास वचन
भावार्थ:- हे परमात्मा! मेरी आयु अति वृद्ध हो चुकी है। उस समय धर्मदास जी की आयु लगभग 85 वर्ष की थी। आगे कैसे वंश चलेगा?
कबीर वचन
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि यह जो शिशु आपने देखा था। वह तेरी पत्नी के गर्भ से दसवें महीने जन्म लेगा। जो यह तुम्हारा पुत्र होगा, यह हमारा अंश होगा। जो मैंने तेरे को सतनाम तथा सारनाम दिया है। वह भंडार है, उसको उसे देना जिसे मैं कहूँ।
धर्मदास वचन
भावार्थ:- हे प्रभु! मेरी इन्द्री शिथिल हो चुकी है। अब कैसे लड़का उत्पन्न होगा? {स्पष्टीकरण:- इन वाणियों में मिलावट है जो लिखा है कि मैंने इन्द्री वश किन्हीं हैं, पुत्र कैसे होगा। यह गलत है। इन्द्री वश करने का अर्थ है संयम रखना। परंतु ऐसी आवश्यकता पड़ने पर संतानोत्पत्ति के लिए इन्द्री तो सक्रिय ही होती है। वास्तविकता यह थी कि वृद्ध अवस्था का हवाला देकर प्रश्न किया था। परंतु इतिहास गवाह है कि 80.90 वर्ष के व्यक्ति ने भी संतानोत्पत्ति की है। जिनका स्वास्थ्य ठीक चल रहा हो। फिर भी परमात्मा जो चाहे, कर सकते हैं। बांझ को संतान। नपुसंक को भी मर्द बना सकते हैं। यहाँ पर इतना ही समझना पर्याप्त है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 126 का सारांश:-
धर्मदास जी को सार शब्द देने का प्रमाण
कबीर वचन
तब आयसु साहब अस भाखे। सुरति निरति करि आज्ञा राखे।।
पारस नाम धर्मनि लिखि देहू। जाते अंश जन्म सो लेहू।।
लखहु सैन मैं देऊँ लखाई। धर्मदास सुनियो चितलाई।।
लिखो पान पुरूष सहिदाना। आमिन देहु पान परवाना।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! अब आपका दृढ़ निश्चय हो गया है। तूने अपने पुत्र को भी त्याग दिया है। अब मैं तेरे को पारस पान (सारनाम की दीक्षा) देता हूँ। आमिनी देवी को भी सारनाम देता हूँ।
धर्मदास वचन
भावार्थ:- वाणियों को पढ़ने से ही पता चलता है कि इनमें कृत्रिम वाणी है, लिखा है किः-
रति सुरति सो गरभ जो भयऊ। चूरामनी दास वास तहं लयऊ।।
इस वाणी से यह सिद्ध करना चाहा है कि सुरति से रति (sex) करने से चूड़ामणी का जन्म हुआ।
इस प्रकार कबीर सागर में अपनी बुद्धि के अनुसार यथार्थ वर्णन कई स्थानों पर नष्ट कर रखा है। इसके लिए जो मैंने (रामपाल दास) ने लिखा है, वही यथार्थ जानें कि परमेश्वर की शक्ति से धर्मदास तथा आमिनी के संयोग से पुत्र चूड़ामणी का जन्म हुआ। कई कबीर पंथी जो दामाखेड़ा गद्दी वालों के मुरीद (शिष्य) हैं, वे कहते हैं कि चूड़ामणी के शरीर की छाया नहीं थी। जिस कारण से कहा जाता है कि उनका जन्म सुरति से हुआ है। यहाँ याद रखें कि श्री ब्रह्मा, महेश, विष्णु जी के शरीर की छाया नहीं होती। उनका जन्म भी दुर्गा देवी (अष्टांगी) तथा ज्योति निरंजन के भोग-विलास (sex) करने से हुआ। कबीर सागर के अध्याय ज्ञान बोध के पृष्ठ 21-22 पर वाणी हैः-
धर्मराय कीन्हें भोग विलासा। माया को रही तब आश।।
तीन पुत्र अष्टांगी जाये। ब्रह्मा, विष्णु, शिव नाम धराये।।
इसलिए यह कहना कि चूड़ामणी जी के शरीर की छाया नहीं थी। इसलिए यह लिख दिया कि सुरति से रति (sex) किया गया था, अज्ञानता का प्रमाण है। कबीर सागर के अनुराग सागर के पृष्ठ 126 का सारांश किया जा रहा है। स्पष्टीकरण दिया है कि वाणी में मिलावट करके भ्रम उत्पन्न किया है। मेरी (रामपाल दास) की सेवा इसलिए परमेश्वर जी ने लगाई है कि सब अज्ञान अंधकार समाप्त करूं। कबीर बानी अध्याय में कबीर सागर के पृष्ठ 134 पर भी परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि तेरहवें अंश मिटै सकल अंधियारा। अब आध्यात्मिक ज्ञान को पूर्ण रूप से स्पष्ट करके प्रमाणित करके आपके रूबरू कर रहा हूँ।
अनुराग सागर के पृष्ठ 127-128 का सारांश:-
इन दोनों पृष्ठों पर वृतान्त यह है कि परमेश्वर कबीर जी ने चूड़ामणी जी को दीक्षा दी तथा गुरू पद दिया। कहा कि हे धर्मदास! तेरे बयालीस वंश का आशीर्वाद दे दिया है और तेरे वंश मेरे वचन अंश चूड़ामणी को कड़िहार (तारणहार) का आशीर्वाद दे दिया है। तेरे वंश से दीक्षा लेकर जो मर्यादा में रहकर भक्ति करेगा, उसका कल्याण हो जाएगा। परंतु सार शब्द इस दीक्षा से भिन्न है। मैंने 14 कोटि ज्ञान कह दिया है, परंतु सार शब्द इनसे भिन्न है। अन्य नाम तो तारे जानो। सार शब्द को सूर्य जानो।
अनुराग सागर के पृष्ठ 129 का सारांश:-
धर्मदास वचन
धर्मदास विनती अनुसारी। हे प्रभु मैं तुम्हरी बलिहारी।।
जीवन काज वंश जग आवा। सो साहिब सब मोहि सुनावा।।
वचन वंश चीन्हे जो ज्ञानी। ता कह नहीं रोके दुर्ग दानी।।
पुरूष रूप हम वंशहि जाना। दूजा भाव न हृदये आना।।
नौतम अंश परगट जग आये। सो मैं देखा ठोक बजाये।।
तबहूँ मोहि संशय एक आवे। करहु कृपा जाते मिट जावे।।
हमकहँ समरथ दीन पठायी। आये जग तब काल फसायी।।
तुम तो कहो मोहि सुकृत अंशा। तबहूँ काल कराल मुहिडंसा।।
ऐसहिं जो वंशन कहँ होई। जगत जीव सब जाय बिगोई।।
ताते करहु कृपा दुखभंजन। वंशन छले नहिं काल निरंजन।।
और कछू मैं जानौं नाहीं। मोरलाज प्रभु तुम कहँ आही।।
भावार्थ:- धर्मदास जी ने शंका की और समाधान चाहा कि हे परमेश्वर जी! आपने मेरे वंश (बिन्द वालों) को कड़िहार (नाद दीक्षा देकर मोक्ष करने वाला) बना दिया। मुझे एक शंका है कि जैसे आपने मुझे कहा है कि तुम सुकृत अंश हो, संसार में जीवों के उद्धार के लिए भेजा है। आगे मेरे को काल ने फंसा लिया। आप मुझे सुकृत अंश कहते हो तो भी मेरे को काल कराल ने डस लिया यानि अपना रंग चढ़ा दिया। मैं (धर्मदास) काल के पुत्र श्री विष्णु पर पूर्ण कुर्बान था। आपने राह दिखाया और मुझे बचाया। कहीं काल मेरे वंश वालों के साथ भी छल कर दे तो संसार के जीव कैसे पार होंगे? वे सब नष्ट हो जाएंगे। इसलिए हे दुःख भंजन! ऐसी दया करो कि मेरे वंश वालों को काल निरंजन न ठगे। मैं और अधिक कुछ नहीं जानता, मेरी लाज आपके हाथ में है।
कबीर वचन
अनुराग सागर पृष्ठ 130 से 137 का सारांश:-
कबीर परमेश्वर जी ने बताया कि हे धर्मदास! काल बड़ा छलिया है। इसने पहले तो मेरे तीन युगों में जीव थोड़े पार करने तथा कलयुग में जितने मर्जी पार कर देना, यह वर माँग लिया। बाद में कहा कि मेरे अंश (काल के दूत) पहले भेजूंगा जो तेरे (कबीर) नाम से 12 पंथ चलाएंगे। उनके चार मुखिया होंगे। अन्य भी होंगे। उसने अपने चार मुख्य दूतों से कहा कि जगत में मेरा शत्रु कबीर जाएगा। वह कबीर नाम से पंथ चलाएगा। भवसागर उजाड़ना चाहता है। कोई अन्य लोक सुखदायी तथा अन्य सतपुरूष बताएगा। वह झूठ बोलता है, तुम जाओ, मेरी भक्ति दृढाओ। इस प्रकार उसने (काल निरंजन ने) अपने दूत भेजे हैं। बताया है कि कबीर जम्बूद्वीप (भारत) में अपना पंथ चलाएगा। तुम कबीर नाम से 12 नकली पंथ चलाना। काल ने अपने दूतों को समझाकर पृथ्वी पर जाने के लिए चार मुख्य दूत हैं - रंभ, कूरंभ, जय तथा विजय।
ये सब जालिम हैं। इनमें ‘‘जय‘‘ नामक दूत अधिक दुष्ट है। वह तेरे वंश को भ्रमित करेगा। बांधवगढ़ के पास गाँव कुरकुट में चमार जाति में जन्म लेगा। साहब दास नाम कहावैगा। इसका पुत्र गणपति नाम का होगा। ये दोनों तेरी गद्दी वालों यानि वंश छाप वालों को भ्रमित करेंगे। वे झंग शब्द का उच्चारण करेंगे, यही दीक्षा मंत्र होगा। काल ने एक झांझरी द्वीप की रचना कर रखी है। उसमें काल का बाजा बजता है, वही काल लोक वाली भंवर गुफा में सुनता है। आरती चैंका करेंगे और अपने पंथ को वास्तविक कबीर पंथ बताकर तेरे वंश को विचलित करेंगे।
धर्मदास की पीढ़ी वालों को काल ने छला
अनुराग सागर पृष्ठ 138 से 142 तक का सारांश:-
अनुराग सागर के पृष्ठ 138 से 142 के सरलार्थ की विस्तृत जानकारी तथा ‘‘दीक्षा देने की विधि कबीर सागर के अनुसार‘‘ कृप्या पढ़ें इसी पुस्तक ‘‘कबीर सागर का सरलार्थ‘‘ में ज्ञान सागर के सारांश में क्रमशः पृष्ठ 77 से 80 तक, पृष्ठ 92 से 108 तक।
संक्षिप्त वर्णन यहाँ करना भी अनिवार्य है जो इस प्रकार है:-
पृष्ठ 138 पर ‘‘भविष्य कथन अलग व्यौहार‘‘:-
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! जो कुछ आगे तेरे वंश में होगा और कैसे तेरे बयालीस वंश तथा जगत के अन्य जीवों को पार करूँगा। जो कुछ आगे होय है भाई। सो चरित्र तोहि कहूं बुझाई।। जो आगे होगा, वह चरित्र पूछो धर्मदास। जब तक तुम शरीर में रहोगे, तब तक काल निकट नहीं आएगा। तेरे शरीर त्यागने के पश्चात् काल तेरे कुल (वंश) के निकट आएगा और तेरे वंश का यथार्थ नाम दीक्षा खंडित करेगा। तेरे वंश वालों में यह अभिमान होगा कि हम धर्मदास के कुल के हैं, हम सबके तारणहार हैं। आपस में तो झगड़ा करेंगे ही, वे जो मेरा भेजा नाद (वचन का पुत्र यानि शिष्य) परंपरा वाले से जो मेरा सुपंथ (यथार्थ कबीर पंथ) चलाएगा, उसकी निंदा करके पाप के भागी होंगे, पार तो हो ही नहीं सकेंगे। इसलिए अपने वंश को समझा देना कि जब काल का दाॅव लग जाए, वंश परंपरा कुपंथ पर चले तो मैं अपना नाद (शिष्य) परम्परा का अपना अंश भेजूंगा, उसको प्रेम से मिलें और उससे दीक्षा ले लें। जैसे मेरा पुत्र कमाल था जिसको मैंने मृतक से जीवित किया था। उसको दीक्षा भी दी थी। वह स्वयंभू गुरू बन गया था। अपना जीवन नष्ट किया और अनेकों को भी ले डूबा। (विस्तार से वर्णन अध्याय ‘‘कमाल बोध‘‘ के सारांश में पृष्ठ 431 से 437 पर पढ़ें।)
पृष्ठ 139 पर:-
कमाल को अभिमान हो गया था। मैंने उसको त्याग दिया था। मेरे को अहंकारी प्राणी पसंद नहीं हैं। हम तो भक्ति के साथी हैं, हाथी-घोड़ों को नहीं चाहता। जो प्रेम भक्ति करता है, उसको हृदय में रखता हूँ। इसलिए नाद पुत्र को (शिष्य परंपरा वाले को) दीक्षा देने का अधिकार यानि गुरू पद सौंपूंगा। मेरा पंथ नाद से ही उजागर होगा यानि प्रसिद्ध होगा। तेरे वंश वाले बहुत अहंकार करेंगे। धर्मदास जी ने चिंता जताई कि आप नाद वाले को गुरू पद दोगे, परंतु मेरे वंश वाले कैसे मोक्ष प्राप्त करेंगे? परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि तेरे वंश वाले हों, चाहे अन्य जीव हों, जो मेरे द्वारा भेजे अंश (नाद अंश) से दीक्षा लेकर मर्यादा में रहेंगे तो कैसे पार नहीं होंगे? जो हमारे वचन को मानेगा, वही वंश वाला मुझे प्यारा लगेगा। बिना वचन यानि नाद वाले को गुरू माने बिना पार नहीं हो सकता, मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। तेरे बयालीस (42) पीढ़ी को मैंने एक वचन से पार कर दिया है। वह वचन यह है कि (नाद परंपरा) वाले से दीक्षा लेकर पार हो जाएंगे। बिन्द वाले वंश कहलाते हैं और वचन (नाद) वाले बिना वे अपने घर यानि सतलोक नहीं जा सकते।
अनुराग सागर पृष्ठ 140 का सारांश:-
(कबीर वचन ही चल रहे हैं)
परमेश्वर कबीर जी बता रहे हैं कि मेरा नाद का पुत्र चूड़ामणी है। यह मेरा शिष्य है और आपका वंश (बिन्द) पुत्र है। यह मेरी आज्ञा से पंथ चलाएगा, जीवों का कल्याण करेगा। परंतु हे धर्मदास! तेरा वंश (कुल) के लोग अज्ञानी हैं। वे ठीक से ज्ञान नहीं समझेंगे। मेरे अंश को (जो मैं भेजूंगा) नहीं समझ सकेंगे और अन्य काल के दूतों से भ्रमित होकर कुमार्ग पर चलेंगे। जो कुछ आगे तेरी वंश गद्दी वालों के साथ होगा, वह सुन! चूड़ामणी के पश्चात् छठी पीढ़ी वाले महंत को काल द्वारा चलाए गए 12 पंथों में से पाँचवां टकसारी पंथ होगा, वह ठगेगा। अपना ज्ञान सुनाकर प्रभावित करके काल जाल में डालेगा। तेरा छठी पीढ़ी वाला (पोता) उस टकसारी पंथ वाले से दीक्षा लेगा और उसी वाला आरती-चैंका किया करेगा। (वही हुआ, वर्तमान में जो दीक्षा बाँधवगढ़ गद्दी वाले महंत दे रहे हैं तथा जो आरती-चैंका कर रहे हैं, वह वही काल के दूत टकसारी वाली है) हे धर्मदास! इस प्रकार तेरा वंश अज्ञानी होकर काल के धोखे में पड़कर नरक में जाएगा। तेरा वंश मेरी वह दीक्षा जो मैंने चूड़ामणी को दी है, उसको छोड़ देगा। टकसारी वाली दीक्षा लेकर अपना जीवन नाश करेगा। ऐसे तेरा वंश (कुल) दुर्मति को प्राप्त होगा। वे तेरे वंश वाले ठग मेरे नाद अंश को बाधित करेंगे, पाप के भागी होंगे।
धर्मदास वचन
हे परमात्मा! पहले तो आप कह रहे थे कि तेरे बयालीस पीढ़ी को पार कर दूंगा। अब आप कह रहे हो कि काल जाल में फंसेगे। ये दोनों बात कैसे सत्य होंगी?
कबीर जी वचन
परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे धर्मदास! तुम सावधान होवो और अपने वंश को समझा देना कि जिस समय काल झपट्टा लगाएगा यानि मार्ग से तेरे वंश को भ्रमित करेगा तो मैं अपना नाद यानि शिष्य परंपरा वाला हंस प्रकट करूंगा। यथार्थ कबीर पंथ यानि भक्ति मार्ग से भटके मानव को सत्य भक्ति पर दृढ़ करूंगा। उसी से दीक्षा लेकर तेरे वंश वाले मोक्ष प्राप्त करेंगे। वचन वंश (चुड़ामणि की संतान) भी नाद यानि शिष्य शाखा वाले से दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्ति करेगा। विशेष विवेचन:- कुछ व्यक्ति इस प्रकरण को सुनकर भ्रम फैलाते हैं कि रामपाल के बिन्द वालों से इस पंथ का नाश होगा। हम रामपाल के नाद वाले (शिष्य) हैं। हमारे से यह पंथ आगे फैलेगा। हमें दान का पैसा दो, रामपाल वालों को न दो। ऐसे व्यक्ति काल के दूत हैं। वे अपने स्वार्थवश ऐसा भ्रम फैलाते हैं। मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि धर्मदास के बिन्द वाले गुरू पद प्राप्त करके भक्ति विधि में परिवर्तन करके सत्य साधना त्यागकर काल साधना करते-कराते हैं। भक्ति विधि तथा ज्ञान गलत होने से यथार्थ पंथ का नुकसान (Ðास) होता है। मेरे पश्चात् कलयुग में कोई गुरू पद पर रहेगा ही नहीं। यह तेरहवां (13वां) अंतिम पंथ है। यह दास (रामपाल दास) अंतिम सतगुरू है। मेरे प्रकाश पुंज (म्समबजतवदपब) शरीर यानि क्टक् वाले स्वरूप से नाद दीक्षा दी जा रही है। यही आगे चलेगी। यह प्रक्रिया सन् 2009 से चल रही है। लाखों अनुयाई बन चुके हैं। प्रत्येक को लाभ हो रहा है और होता रहेगा। अब न तो भक्ति विधि यानि भक्ति के मंत्र बदल सकते हैं, न ज्ञान। फिर पंथ नष्ट होने का प्रश्न ही नहीं रहता। नाद और बिंद का झंझट ही समाप्त हो गया है। क्टक् से गुरू जी के नाम को दिलाने की सेवा नाद वालों को मिले, चाहे बिन्द वालों को, पंथ नष्ट नहीं हो सकता। आगे ही बढ़ेगा।
अनुराग सागर पृष्ठ 141 का सारांश:-
सार शब्द की चास यानि अधिकार नाद के पास होगा। यदि तेरा बिंद (पुत्र परंपरा) उससे दीक्षा नहीं लेंगे तो वे नष्ट हो जाएंगे। परमेश्वर कबीर जी ने नाद की परिभाषा स्पष्ट की है। कहा है कि हे धर्मदास! तू मेरा नाद पुत्र (वचन पुत्र यानि शिष्य) है। इसलिए तेरे को मुक्ति मंत्र यानि सार शब्द दे दिया है। परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को दीक्षा देने का अधिकार नहीं दिया था और सख्त निर्देश दिया था कि जो सार शब्द मैंने तेरे को दिया है, यह किसी को नहीं बताना है। यदि यह तूने बता दिया तो जिस समय बिचली पीढ़ी कलयुग में चलेगी यानि जिस समय कलयुग 5505 वर्ष बीत जाएगा (सन् 1997 में) तब मैं अपना नाद अंश भेजूंगा। मेरा यथार्थ कबीर पंथ चलेगा। उस समय से पहले यदि यह सार शब्द काल के दूतों के हाथ लग गया तो सत्य-असत्य भक्ति विधि का ज्ञान कैसे होगा? जिस कारण से भक्त पार नहीं हो पावेंगे। कबीर सागर में ‘‘कबीर बानी’’ अध्याय के पृष्ठ 137 पर तथा अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध’’ पृष्ठ 1937 पर प्रमाण है जिसमें कहा है कि:-
धर्मदास मेरी लाख दुहाई, सार शब्द कहीं बाहर नहीं जाई।
सार शब्द बाहर जो परही, बिचली पीढ़ी हंस नहीं तिरही।।
सार शब्द तब तक छिपाई, जब तक द्वादश (12) पंथ न मिट जाई।।
स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 121 तथा 171 पर कहा है कि:-
चौथा युग जब कलयुग आई। तब हम अपना अंश पठाई।।
काल फंद छूटे नर लोई। सकल सृष्टि परवानिक होई।।
घर-घर देखो बोध विचारा (ज्ञान चर्चा)। सत्यनाम सब ठौर उचारा।।
पाँच हजार पाँच सौ पाँचा। तब यह वचन होयगा साचा।।
कलयुग बीत जाय जब ऐता। सब जीव परम पुरूष पद चेता।।
प्रिय पाठको! कलयुग सन् 1997 में 5505 वर्ष पूरा कर गया है। यहाँ तक सार शब्द छुपाकर रखना था।
बीच-बीच में धर्मदास जी वंश मोह में आकर सार शब्द अपने पुत्र चूड़ामणी जी को बताना चाहते थे। उसी समय अंतर्यामी परमेश्वर कबीर जी प्रकट होकर कुछ दिन साथ रहकर उसको दृढ़ करते थे। अंत में धर्मदास जी को जगन्नाथ पुरी में जीवित समाधि दे दी यानि जीवित ही पृथ्वी में दबा दिया। धर्मदास जी ने स्वयं कबीर जी से कहा था कि हे परमेश्वर! मैं पुत्र मोह वश होकर सार शब्द बता सकता हूँ। मेरे वश से बाहर की बात हो चुकी है। आप मुझे सत्यलोक भेज दो नहीं तो बात बिगड़ जाएगी। तब धर्मदास जी को जीवित समाधि दी गई थी। (यह प्रमाण दामाखेड़ा वाले महंत द्वारा छपाई पुस्तक ‘‘आशीर्वाद शताब्दी ग्रन्थ’’ में पृष्ठ 95 पर है।) अनुराग सागर के पृष्ठ 141 का शेष सारांश:-
कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! चारों युगों में देख ले, मेरे यथार्थ कबीर पंथ को नाद परंपरा ने प्रसिद्ध किया है। क्या निर्गुण क्या सर्गुण है, नाद बिन पंथ नहीं चलेगा। यदि तेरे बिन्द वाले उससे दीक्षा लेंगे तो वे भी पार हो जाएंगे। तेरे बिन्द वालों को इस प्रकार बयालीस पीढ़ी को पार करूंगा। जब कलयुग 5505 वर्ष पूरा करेगा। उसके पश्चात् सर्व विश्व दीक्षित होगा तो धर्मदास जी के वंशज भी दीक्षा लेकर कल्याण कराएंगे। (यदि नाद की आशा बिन्द (परिवार वंश) वाले छोड़ देंगे तो तेरे बिंद (पीढ़ी) वाले काल जाल में फंसेंगे।) इसलिए हे धर्मदास! अपने बिन्द को सतर्क कर देना। अपना कल्याण कराऐं। परमेश्वर कबीर जी का कहना है कि बिन्द वाले नाम को बदलकर यथार्थ भक्ति नष्ट कर देते हैं। वर्तमान में वह समस्या नहीं रहेगी क्योंकि अब कोई उतराधिकारी गुरू रूप नहीं होगा। दीक्षा क्ण्टण्क्ण् से दी जा रही है। नाम दीक्षा दिलाने की सेवा चाहे नाद वाले करो, चाहे बिन्द वाले, भक्ति विधि सही रहेगी। इसलिए पंथ को कोई हानि नहीं होगी।
अनुराग सागर के पृष्ठ 142 का सारांश:-
परमेश्वर कबीर जी अपने भक्त धर्मदास जी को समझा रहे हैं कि जो कोई नाद वंश को जान लेगा, उसको यम के दूत रोक नहीं पाएंगे। जिन्होंने सत्य शब्द (सतनाम) को पहचान लिया, वे ही मोक्ष प्राप्त कर सकेंगे। तेरे वंश वाले जो चूड़ामणी की संतान हैं, वही सफल होगा जो नाद वंश की शरण न छोड़े। तुम्हारा बिन्द यानि संतान नाद यानि शिष्य परंपरा वाले के साथ मोक्ष प्राप्त करेगी।
धर्मदास वचन
धर्मदास जी ने प्रश्न किया कि आपने मेरे पुत्र चूड़ामणी को वचन वंश कहा है क्योंकि यह आप जी के वचन यानि आशीर्वाद से उत्पन्न हुआ। इसकी संतान को बिन्द कहा जो मेरे बयालीस पीढ़ी चलेगी। आप यह भी कह रहे हो कि मेरे बिन्द परंपरा यानि महंत गद्दी वाले नाद यानि शिष्य परंपरा वालों से दीक्षा लेकर पार हो सकते हैं। वे आप जी ने नाद वंश के आधीन बता दिए। फिर बिन्द वाले क्या करेंगे? यदि नाद से ही जगत पार होना है।
कबीर वचन
धर्मदास जी के वचन सुनकर परमेश्वर हँसे और कहा कि हे धर्मदास! तेरे को बयालीस वंश का आशीर्वाद दे दिया है क्योंकि तुम नारायण दास को काल दूत जानकर वंश नष्ट होने की चिंता कर रहे हो। इसलिए तेरे वंश की शुरूआत आपके नेक पुत्र से की है। पाठकों से निवेदन है कि इस पृष्ठ पर बिन्द परंपरा वालों ने बनावटी वाणी अधिक डाली हैं अपनी महिमा बनाने के लिए, परंतु अनुराग सागर के पृष्ठ 140.141 पर स्पष्ट कर दिया है कि चूड़ामणी जी की वंश गद्दी की छठी पीढ़ी वाले के पश्चात् मेरे द्वारा बताई यथार्थ भक्ति विधि तथा भक्ति मंत्र नहीं रहेंगे। वह पाँचवी पीढ़ी वाला ‘‘टकसारी‘‘ पंथ वाला आरती-चैंका तथा वही नकली पाँच नाम की दीक्षा देने लगेगा। इसलिए तेरे बिन्द वाले काल जाल में जाएंगे। यदि वे मेरे द्वारा भेजे गए नाद अंश से दीक्षा ले लेंगे तो तेरी बयालीस (42) पीढ़ी मोक्ष प्राप्त करेगी। इस प्रकार तेरे 42 वंश को पार करूंगा। उस समय जब पूरा जगत ही दीक्षा प्राप्त करेगा तो तेरी संतान भी दीक्षा लेगी। यह वर्णन पृष्ठ 140-141 के सारांश में स्पष्ट कर दिया है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 143 का सारांश:-
धर्मदास जी को फिर से अपने पुत्र नारायण दास का मोह सताने लगा और परमेश्वर कबीर जी से अपनी चिंता व्यक्त की कि मेरा पुत्र नारायण दास काल के मुख में पड़ेगा। मुझे अंदर ही अंदर यह चिंता खाए जा रही है। हे स्वामी! उसकी भी मुक्ति करो।
कबीर परमेश्वर वचन
बार बार धर्मनि समुझावा। तुम्हरे हृदय प्रतीत न आवा।।
चैदह यम तो लोक सिधावें। जीवन को फन्द कह्यो वे लावें।।
अब हम चीन्हा तुम्हारो ज्ञाना। जानि बूझि तुम भयो अजाना।।
पुरूष आज्ञा मेटन लागे। बिसरयो ज्ञान मोहमद जागे।।
मोह तिमिर जब हिरदे छावे। बिसर ज्ञान तब काज नसावे।।
बिन परतीत भक्ति नहिं होई। बिनु भक्ति जिव तरै न कोई।।
बहुरि काल फांसन तोहि लागा। पुत्रमोह त्व हिरदय जागा।।
प्रतच्छ देखि सबे तुम लीना। दास नरायण काल अधीना।।
ताहू पर तुम पुनि हठ कीना। मोर वचन तुम एकु न चीन्हा।।
धर्मदास जो मोसन कहिया। सोऊ ध्यान त्व हृदय न रहिया।।
मोर प्रतीत तुम्हैं नहिं आवे। गुरू परतीत जगत कसलावे।।
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! अब मुझे तेरी बुद्धि के स्तर का पता चल गया। तू जान-बूझकर अनजान बना हुआ है। जब तेरे को बता दिया, आँखों दिखा दिया कि नारायण दास काल का दूत है। मेरी आत्माओं को काल जाल में फांसने के लिए काल का भेजा आया है। तेरे को बार-बार समझाया है, वह तेरी बुद्धि में नहीं आ रहा है। अब तेरे हृदय में पुत्र मोह से अज्ञान अंधेरा छा गया है। काल के दूत को लेकर फिर हठ कर रहा है। मेरा एक वचन भी तेरी समझ में नहीं आया। हे धर्मदास! जो वचन तूने मेरे से किये थे कि मैं कभी नारायण दास को दीक्षा देने के लिए नहीं कहूंगा। अब तेरे हृदय से वह वादा भूल गया है। जब तुमको मुझ पर विश्वास नहीं हो रहा जबकि तेरे को सतलोक तक दिखा दिया तो फिर मेरे भेजे नाद अंश जो गुरू पद पर होगा, उस पर जगत कैसे विश्वास करेगा?
अनुराग सागर पृष्ठ 144 का सारांश:-
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बार-बार वही बातें दोहराई हैं जो पूर्व के पृष्ठ पर कही हैं।
अनुराग सागर के पृष्ठ 145 का सारांश:-
धर्मदास वचन
सुनत वचन धर्मदास सकाने। मनहीं माहिं बहुत पछताने।।
धाइ गिरे सतगुरू के पाई। हौं अचेत प्रभु होहु सहाई।।
चूक हमारी वकसहु स्वामी। विनती मानहु अन्तरयामी।।
हम अज्ञान शब्द तुम टारा। विनय कीन्ह हम बारंबारा।।
अब मैं चरण तुम्हारे गहऊँ। जो संतनिकी विनती करऊँ।।
पिता जानि बालक हठ लावे। गुण औगुण चित ताहि न आवे।।
पतित उधारण नाम तुम्हारा। औगुण मोर न करहु विचारा।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी के वचन सुनकर धर्मदास जी बहुत लज्जित हुए और परमेश्वर कबीर जी के चरणों में गिरकर विलाप करने लगे कि हे स्वामी जी! मैं तो अचेत यानि मंद बुद्धि हूँ। मेरी गलती क्षमा करो। हे अंतर्यामी! मेरी विनती स्वीकार करो। मैं अज्ञानी हूँ। मैंने आपके वचन की अवहेलना की है। मैंने ऐसे गलती की है जैसे बालक अपने पिता से हठ कर लेता है, पिता बालक की गलती पर ध्यान नहीं देता, उसके अवगुण क्षमा कर देता है। आपका नाम तो पतित उद्धारण है। आप पापियों का उद्धार करने वाले हो, मेरे अवगुणों पर ध्यान न दो। बालक जानकर क्षमा कर दो।
कबीर परमेश्वर वचन
परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप सतपुरूष अंश हैं। आप नारायण दास का मोह त्याग दो। तुम में और मेरे में कोई भेद नहीं है। यदि मैं आपको त्यागकर किसी अन्य में श्रद्धा करूं तो मेरा नरक में निवास हो।
कबीर वचन
भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी से कहा कि तेरा धन्य भाग है कि तूने मेरे को पहचान लिया और मेरी बात मानकर पुत्र मोह त्याग दिया।
अनुराग सागर के पृष्ठ 146 का सारांश:-
इस पृष्ठ में ऊपर की वाणी बनावटी हैं। यह धर्मदास जी की संतान चूड़ामणी जी वाली दामाखेड़ा गद्दी वाले महंतों की कलाकारी है। इसमें कोशिश की है यह दर्शाने की कि नारायण दास वाली संतान तो बिन्द वाली है और चूड़ामणी वाली संतान नाद वाली है ताकि हमारी महिमा बनी रहे कि हमारे से दीक्षा लेकर ही जगत के जीवों का कल्याण होगा। याद रखें कि नारायण दास ने तो कबीर जी की दीक्षा ली ही नहीं थी। वह तो विष्णु उर्फ कृष्ण पुजारी था। उसके पंथ का कबीर पंथ से कोई लेना-देना नहीं है। प्रिय पाठको! कबीर जी कहते हैं कि:-
चोर चुरावै तुम्बड़ी, गाड़ै पानी मांही। वो गाड़ै वा ऊपर आवै, सच्चाई छानी नांही।।
अनुराग सागर के पृष्ठ 140 पर परमेश्वर जी ने स्पष्ट कर रखा है कि मेरा शिष्य (नाद) तथा तेरे बिन्द से उत्पन्न पुत्र चूड़ामणी जो पंथ चलाएगा और जीवों की मुक्ति कराएगा। इस चूड़ामणी को मैंने दीक्षा दी है तथा गुरू पद दिया है। यह मेरा नाद पुत्र है। आगे इसकी बिन्दी (संतान) धारा चलेगी। वे इस गुरू गद्दी पर विराजमान होंगे। वे अज्ञानी होंगे। छठी पीढ़ी वाले महंत को काल के बारह पंथों में पाँचवां पंथ टकसारी पंथ होगा। वह भ्रमित करेगा। जिस कारण से मेरे द्वारा बताए यथार्थ भक्ति विधि तथा यथार्थ मंत्र त्यागकर टकसारी पंथ वाले मंत्र तथा आरती-चैंका दीक्षा रूप में देने लगेगा। तुम्हारा वंश यानि चूड़ामणी वाली संतान दुर्मति को प्राप्त होगी। वे बटपारे (ठग) बहुत जीवों को चैरासी लाख के चक्र में डालेंगे, नरक में ले जाएंगे। जो मेरा नाद परंपरा का अंश आएगा, उसके साथ झगड़ा करेंगे।
प्रत्यक्ष प्रमाण:- प्रिय पाठको! सन् 2012 में मेरे कुछ अनुयाईयों द्वारा मेरे विचारों की लिखी एक पुस्तक ‘‘यथार्थ कबीर पंथ परिचय‘‘ का प्रचार करते-करते दामाखेड़ा (छत्तीसगढ़) में चले गए। उस दिन दामाखेड़ा महंत गद्दी वालों का सत्संग चल रहा था। उस दिन समापन था। मेरे शिष्य सत्संग से जा रहे भक्तों को वह पुस्तक बाँटने लगे। उस आश्रम के किसी सेवक ने वह पुस्तक पहले ले रखी थी। वह पहले ही इस ताक में था कि रामपाल के शिष्य कहीं मिलें तो उनकी पिटाई करें। उस दिन दामाखेड़ा में ही उसने मेरे शिष्यों को सेवा करते देखा तो महंत श्री प्रकाश मुनि नाम साहेब जो चैदहवां गुरू गद्दी वाला बिन्दी परंपरा वाला महंत है, को बताया कि जो ‘‘यथार्थ कबीर पंथ परिचय‘‘ पुस्तक मैंने आपको दी थी, आज फिर उसी पुस्तक को रामपाल के शिष्य हमारी संगत में बाँट रहे हैं।
यह सुनकर महंत प्रकाश मुनि आग-बबूला हो गया और आदेश दिया कि उनको पकड़कर लाओ। उसी समय पुस्तक बाँट रहे मेरे अनुयाईयों में से पाँच को गाड़ी में जबरदस्ती डालकर ले गए। अन्य शिष्य पता चलने पर भाग निकले। जिन सेवकों को दामाखेड़ा वाले पकड़कर ले गए थे, उनको बेरहमी से मारा-पीटा, उनसे कहा कि कहो, फिर नहीं बाँटेंगे। उन्होंने कहा कि इसमें गलत क्या है? यह तो बताओ। उन सब मेरे शिष्यों को पीट-पीटकर अचेत कर दिया। फिर मुकदमा दर्ज करा दिया कि शांति भंग कर रहे थे। तीन दिन में जमानत हुई। ऐसे हैं ये धर्मदास जी की बिन्द परंपरा चुड़ामणी वाली दामाखेड़ा गद्दी के महंत जिनके विषय में परमेश्वर कबीर जी ने कहा हैः-
कबीर नाद अंश मम सत ज्ञान दृढ़ाही। ताके संग सभी राड़ बढ़ाई।।
अस सन्त महन्तन की करणी। धर्मदास मैं तो से बरणी।।
यही प्रमाण अनुराग सागर के पृष्ठ 140 पर है:-
आप हंस अधिक होय ताही। नाद पुत्र से झगर कराहीं।।
(आपा हंस यह गलत है। यहाँ पर ‘‘आप अहम‘‘ है जिसका अर्थ है अपने आप में अहंकार।)
होवै दुरमत वंश तुम्हारा। नाद वंश रोके बटपारा।।
प्रिय पाठको! यह सर्व लक्षण मुझ दास (रामपाल दास) तथा दामाखेड़ा की गद्दी वाले धर्मदास जी के बिन्द वालों पर खरे उतरते हैं।
अनुराग सागर के इसी पृष्ठ 146 पर आगे गुरू महिमा है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 147 का सारांश:-
इसमें भी गुरूदेव की महिमा का ज्ञान है जो सामान्य ज्ञान है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 148 का सारांश:-
इसमें भी गुरू की महिमा है जो सामान्य ज्ञान है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 149 पर भी गुरू महिमा है। यह सामान्य ज्ञान है कि परम संत की प्राप्ति के पश्चात् उसके साथ कपट-चतुराई न रखे। सच्चे मन से उनके वचनों का पालन करके कल्याण कराए। कागवृति को त्यागकर हंस दशा अपनाऐं।
अनुराग सागर पृष्ठ 150 पर भी सामान्य ज्ञान है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 151 का सारांश:-
इस पृष्ठ पर मानव शरीर में बने कमलों का वर्णन है।
संत गरीबदास (छुड़ानी वाले) ने कमलों का ज्ञान इस प्रकार कहा है।
मूल कमल, स्वाद कमल, नाभि कमल, हृदय कमल, कण्ठ कमल तक यही उपरोक्त वर्णन है। त्रिकुटी कमल में दो पंखुड़ी का कमल है। इसमें सतगुरू (कबीर) परमेश्वर का निवास बताया है। उपरोक्त सर्व प्रकरण का निष्कर्ष है।
कबीर सागर में अध्याय ‘‘कबीर बानी‘‘ पृष्ठ 111 पर है जो इस प्रकार हैः-
1. प्रथम मूल कमल है, देव गणेश है। चार पंखुड़ी का कमल है।
2. दूसरा स्वाद कमल है, देवता ब्रह्मा-सावित्री हैं। छः पंखुड़ी का कमल है।
3. तीसरा नाभि कमल है, लक्ष्मी-विष्णु देवता हैं। आठ पंखुड़ी का कमल है।
4. चैथा हृदय कमल है, पार्वती-शिव देवता हैं। 12 पंखुड़ी का कमल है।
5. पाँचवां कंठ कमल है, अविद्या (दुर्गा) देवता है। 16 पंखुड़ी का कमल है। कबीर सागर में भवतारण बोध में पृष्ठ 57 पर लिखा है कि:-
षट्कमल पंखुड़ी है तीनी। सरस्वती वास पुनः तहाँ किन्ही।।
सप्तम् कमल त्रिकुटी तीरा। दोय दल मांही बसै दोई बीरा (शूरवीर)।।
6. यह छठा संगम कमल त्रिकुटी से पहले है जो सुष्मणा के दूसरे अंत वाले द्वार पर बना है। इसकी तीन पंखुड़ियाँ है। इसमें सरस्वती का निवास है। वास्तव में दुर्गा जी ही अन्य रूप में यहाँ रहती है। इसके साथ 72 करोड़ सुन्दर देवियाँ रहती हैं। इसकी तीन पंखुड़ियाँ हैं। इन तीनों में से एक में परमेश्वर का निवास है जो अन्य रूप में रहते हैं। एक पंखुड़ी में सरस्वती तथा 72 करोड़ देवियाँ जो ऊपर जाने वाले भक्तों को आकर्षित करके उनको अपने जाल में फँसाती हैं। दूसरी पंखुड़ी में काल अन्य रूप में रहता है। मन रूप में काल का निवास है तथा करोड़ों युवा देव रहते हैं जो भक्तमतियों को आकर्षित करके काल के जाल में फँसाते हैं। तीसरी पंखुड़ी में परमेश्वर जी हैं जो अपने भक्तों को सतर्क करते हैं जिससे सतगुरू के भक्त उन सुन्दर परियों के मोह में नहीं फँसते।
7. सातवां त्रिकुटी कमल है जिसकी काली तथा सफेद दो पंखुड़ियाँ हैं। काली में काल का सतगुरू रूप में निवास है तथा सफेद में सत्य पुरूष का सतगुरू रूप में निवास है।
8. आठवाँ कमल (अष्ट कमल) ये दो हैं। एक तो उसे कहा है जो संहस्र कमल कहा है जिसमें काल ने एक हजार ज्योति जगाई हैं जो ब्रह्मलोक में है। इसको संहस्र कमल कहते हैं। इसकी हजार पंखुड़ी हैं। यह सिर में जो चोटी स्थान (सर्वोपरि) है, उसको ब्रह्माण्ड कहा जाता है। जैसे कई ऋषियों की लीला में लिखा है कि वे ब्रह्माण्ड फोड़कर निकल गए। इनके सिर में तालु के ऊपर और चोटी स्थान के बीच में निशान बन जाता है। शरीर त्याग जाते हैं। वे शुन्य में भ्रमण करते रहते हैं। वे ओम् (Om) अक्षर का जाप तथा हठ योग करके यह गति प्राप्त करते हैं। महाप्रलय में नष्ट हो जाते हैं। फिर जीव रूप जन्मते हैं। इस सिर के ऊपर के भाग को ब्रह्माण्ड कहते हैं। यह आठवां कमल ब्रह्माण्ड में इस प्रकार कहा है।
इस कमल में काल निरंजन ने धोखा कर रखा है। केवल ज्योति दिखाई देती है जो प्रत्येक पंखुड़ी में जगमगाती है। उस कमल में परमात्मा कबीर जी भी गुप्त रूप में निवास करते हैं। इसके साथ-साथ परमात्मा जी प्रत्येक कमल में अपनी शक्ति का प्रवेश रखते हैं।
अन्य अष्ट कमल वह जो सत्यलोक में जाने वाले रास्ते में है। उसकी दश (10) पंखुड़ियाँ हैं जो ब्रह्म के साधक हैं। उनके लिए आठवां कमल संहस्र कमल है जो हजार पंखुड़ियों वाला है। इसमें निरंजन का निवास है। भवतारण बोध पृष्ठ 57 पर वाणी है:-
अष्टम कमल ब्रह्मण्ड के मांही। तहाँ निरंजन दूसर नांही।।
फिर दूसरा अष्टम कमल मीनी सतलोक में जाने वाले मार्ग में है।
9. नौंमा कमल मीनी सतलोक में है। तीसरा अष्टम कमल अक्षर पुरूष के लोक में है। उसका यहाँ वर्णन नहीं करना है। वह पिण्ड (शरीर) से बाहर सूक्ष्म शरीर में है। शब्द ‘‘कर नैंनो दीदार महल में प्यारा है‘‘ में सबको भिन्न-भिन्न बताया है जो आप नीचे पढ़ें।
कबीर सागर में कबीर बानी अध्याय के पृष्ठ 111 (957) पर नौंवे (नौमें) कमल का वर्णन है। नौमें कमल की शंख पंखुड़ी हैं। पूर्ण ब्रह्म का निवास है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 152 का सारांश:-
इस पृष्ठ पर परमेश्वर ने शरीर के अंदर का गुप्त भेद बताया है। इस मानव शरीर में 72 नाड़ियां हैं। उनमें तीन (ईड़ा, पिंगला, सुष्मणा) मुख्य हैं। फिर एक विशेष नाड़ी है ‘‘ब्रह्म रन्द्र‘‘ परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि धर्मदास! मन ही ज्योति निरंजन है। इसने जीव को ऐसे नचा रखा है जैसे बाजीगर मर्कट (बंदर) को नचाता है। इस शरीर में 5 तत्त्व 25 प्रकृति तथा तीन गुण काल के तीन एजेंट हैं। जीव को धोखे में रखते हैं। इस शरीर में काल निरंजन तथा जीव दोनों की मुख्य भूमिका है। काल निरंजन मन रूप में सब पाप करवाता है। पाप जीव के सिर रख देता है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 153 का सारांश:-
काल ने ऐसा धोखा कर रखा है कि जीव परमेश्वर को भूल गया है।
मन कैसे पाप-पुण्य करवाता है
मन ही काल-कराल है। यह जीव को नचाता है। सुंदर स्त्राी को देखकर उससे भोग-विलास करने की उमंग मन में उठाता है। स्त्राी भोगकर आनन्द मन (काल निरंजन) ने लिया, पाप जीव के सिर रख दिया।
{वर्तमान में सरकार ने सख्त कानून बना रखा है। यदि कोई पुरूष किसी स्त्राी से बलात्कार करता है तो उसको दस वर्ष की सजा होती है। यदि नाबालिक से बलात्कार करता है तो आजीवन कारागार की सजा होती है। आनन्द दो मिनट का मन की प्रेरणा से तथा दुःख पहाड़ के समान। इसलिए पहले ही मन को ज्ञान की लगाम से रोकना हितकारी है।}
अनुराग सागर के पृष्ठ 154 का सारांश:-
पराये धन को देखकर मन उसे हड़पने की प्रेरणा करता है। चोरी कर जीव को दण्ड दिलाता है। परनिंदा, परधन हड़पना यह पाप है। काल इसी तरह जीव को कर्मों के बंधन में फंसाकर रखता है। संत से विरोध तथा गुरूद्रोह यह मन रूप से काल ही करवाता है जो घोर अपराध है।
निरंजन चरित्र = काल का जाल
परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि धर्मदास! मैं तेरे को धर्म (धर्मराय-काल) का जाल समझाता हूँ। काल निरंजन ने श्री कृष्ण में प्रवेश करके गीता का ज्ञान दिया। उसको कर्मयोग उत्तम बताकर युद्ध करवाया। ज्ञान योग से उसको भ्रमित किया। अर्जुन तो पहले ही नेक भाषा बोल रहा था जो ज्ञान था। कह रहा था कि युद्ध करके अपने ही कुल के भतीजे, भाई, साले, ससुर, चाचे-ताऊ को मारने से अच्छा तो भीख माँगकर निर्वाह कर लेंगे। मुझे ऐसे राज्य की आवश्यकता नहीं जो पाप से प्राप्त हो। उसको डरा-धमकाकर युद्ध करवाकर नरक का भागी बना दिया। ज्ञान योग का बहाना कर कर्म योग पर जोर देकर महापाप करा दिया।
अनुराग सागर के पृष्ठ 155 का सारांश:-
धर्मदास जी ने प्रश्न किया कि हे प्रभु! आपने काल-जाल समझाया, अब यह बताने की कृपा करें कि जीव को आपकी प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए?
सतगुरू (कबीर जी) वचन
भक्त के 16 गुण (आभूषण)
परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! भवसागर यानि काल लोक से निकलने के लिए भक्ति की शक्ति की आवश्यकता होती है। परमात्मा प्राप्ति के लिए जीव में सोलह (16) लक्षण अनिवार्य हैं। इनको आत्मा के सोलह सिंगार (आभूषण) कहा जाता है।
ज्ञान 2) विवेक 3) सत्य 4) संतोष 5) प्रेम भाव 6) धीरज 7) निरधोषा (धोखा रहित) 8) दया 9) क्षमा 10) शील 11) निष्कर्मा 12) त्याग 13) बैराग 14) शांति निज धर्मा 15) भक्ति कर निज जीव उबारै 16) मित्र सम सबको चित धारै।
भावार्थ:- परमात्मा प्राप्ति के लिए भक्त में कुछ लक्षण विशेष होने चाहिऐं। ये 16 आभूषण अनिवार्य हैं।
तत्त्वज्ञान 2) विवेक 3) सत्य भाषण 4) परमात्मा के दिए में संतोष करे और उसको परमेश्वर की इच्छा जाने 5) प्रेम भाव से भक्ति करे तथा अन्य से भी मृदु भाषा में बात करे 6) धैर्य रखे, सतगुरू ने जो ज्ञान दिया है, उसकी सफलता के लिए हौंसला रखे फल की जल्दी न करे 7) किसी के साथ दगा (धोखा) नहीं करे 8) दया भाव रखे 9) भक्त तथा संत का आभूषण क्षमा भी है। शत्रु को भी क्षमा कर देना चाहिए 10) शील स्वभाव होना चाहिए। भक्ति को निष्काम भाव से करे, सांसारिक लाभ प्राप्ति उद्देश्य से नहीं करे 12) त्याग की भावना बहुत अनिवार्य है 13) बैराग्य होना चाहिए। संसार को असार तथा अपने जीवन को अस्थाई जानकर परमात्मा के प्रति विशेष लगाव होना मोक्ष में अति आवश्यक है 14) भक्त का विशेष गुण शांति होती है, यह भी अनिवार्य है 15) भक्ति करना यानि भक्ति करके अपने जीव का कल्याण कराऐं 16) प्रत्येक व्यक्ति के साथ मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए।
ये उपरोक्त गुण होने के पश्चात् सत्यलोक जाया जाएगा। इनके अतिरिक्त गुरू की सेवा, गुरू पद्यति में विश्वास रखे। परमात्मा की भक्ति और संत समागम करना अनिवार्य है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 156 तथा पृष्ठ 157 का सारांश:-
इन पृष्ठों पर भी यही ज्ञान है और विषय-विकार त्यागना चाहिए, तब भक्ति सफल होगी।
अनुराग सागर के पृष्ठ 158-159 का सारांश:-
परमेश्वर ने बताया है कि उपदेशी को चाहिए कि 15वें दिन कोई धार्मिक अनुष्ठान यानि पाठ कराना चाहिए। यदि 15 दिन में नहीं करा सकता है तो महीने में अवश्य कराए। निर्धन के लिए कहा है कि यदि कोई रंक हो तो वर्ष में दो बार कराए या वर्ष में एक बार अवश्य कराए। यदि वर्ष में नहीं कराएगा तो वह भक्त साकट (भक्तिभाव हीन) कहलावेगा। एक वर्ष में पाठ करावे तो उसके जीव को मोक्ष में धोखा नहीं।
कबीर नाम श्रद्धा से जपे यानि गर्व के साथ कबीर जी का नाम ले। शर्म नहीं करे कि यह भी कोई परमात्मा का नाम है। ऐसे कहने वालों से डरे नहीं, शर्मावै नहीं और इसके साथ-साथ तेरा (धर्मदास) नाम भी आदर से कहे।
भावार्थ है कि आदरणीय धर्मदास के साथ परमात्मा रहे, उनको सत्यलोक लेकर गए, अपना यथार्थ परिचय दिया। धर्मदास जी ने अपने आँखों देखा, कानों परमेश्वर से सुना आध्यात्मिक ज्ञान कबीर सागर, कबीर बानी, कबीर बीजक, कबीर शब्दावली को लिखकर मानव समाज पर महान उपकार किया है। इसलिए उनकी महिमा भी करनी चाहिए।
भक्त को चाहिए कि भक्ति-साधना तथा मर्यादा का पालन अन्तिम श्वांस तक करे। जैसे शूरवीर युद्ध के मैदान में या तो मार देता है या स्वयं वीरगति को प्राप्त हो जाता है। वह पीछे कदम नहीं हटाता। संत तथा भक्त का रणक्षेत्र भक्ति मन्त्र जाप तथा मर्यादा है। जो शिष्य गुरू से विमुख हो जाता है। नाम खण्डित कर देता है तो स्वाभाविक ही वह गुरू में कुछ दोष निकालेगा। जिस कारण से नरक में अग्नि कुण्ड में गिरेगा। यदि गुरू विमुख होकर भक्ति छोड़ देता है तो उसको भी बहुत हानि होती है।
उदाहरणः- जैसे इन्वर्टर को चार्जिंग पर लगा रखा है, वह चार्ज हो रहा है। यदि बीच में चार्जर निकाल लिया जाए तो वह इन्वर्टर जितना चार्ज हो गया था, उतनी देर लाभ देगा। फिर अचानक सर्व सुविधाऐं बंद हो जाएंगी। इसी प्रकार उस शिष्य की दशा जानें। गुरू शरण में रहकर मर्यादा में रहते हुए जितने दिन भक्ति की वह शक्ति आत्मा में जमा हो गई, उतनी आत्मा चार्ज हो गई। जिस दिन गुरू जी से विमुख हो गया, उसी दिन से भक्ति की शक्ति आनी बंद हो जाती है। यदि गुरू विमुख (गुरू से विरोध करके गुरू त्याग देना) होकर भी उसी गुरू द्वारा बताई गई साधना मन्त्रा आदि करता है तो कोई लाभ नहीं होता। जैसे बिजली का कनैक्शन कट जाने के पश्चात् पंखे, मोटर, बल्ब के स्विच (बटन) दबाते रहो, न पंखा चलेगा, न बल्ब जलेगा। यही दशा गुरू विमुख साधक की होगी। फिर नरक का भागी होगा। कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि:-
कबीर, मानुष जन्म पाकर खोवै, सतगुरू विमुखा युग-युग रोवै।
कबीर, गुरू विमुख जीव कतहु न बचै। अग्नि कुण्ड में जर-बर नाचै।।
कोटि जन्म विषधर को पावै। विष ज्वाला सही जन्म गमावै।।
बिष्ट (टट्टी) मांही क्रमि जन्म धरई। कोटि जन्म नरक ही परही।।
भावार्थ:- गुरू को त्याग देने वाला जीव बिल्कुल नहीं बचेगा। नरक स्थान पर अग्नि के कुण्डों में जल-बल (उबल-उबल) कर कष्ट पाएगा। वहाँ अग्नि के कष्ट से नाचेगा यानि उछल-उछलकर अग्नि में गिरेगा।
फिर करोड़ों जन्म विषधर (सर्प) की जूनी (शरीर) प्राप्त करेगा। सर्प के अपने अन्दर के विष की गर्मी बहुत परेशान करती है। गर्मी के मौसम में सर्प उस विष की उष्णता से बचने के लिए शीतलता प्राप्त करने के लिए चन्दन वृक्ष के ऊपर लिपटे रहते हैं। फिर वही गुरू विमुख यानि गुरू द्रोही बिष्टा (टट्टी-गुह) में कीड़े का जन्म प्राप्त करता है। इस प्रकार गुरू से दूर गया प्राणी महाकष्ट उठाता है। यदि गुरू नकली है तो उसको त्यागकर पूर्ण गुरू की शरण में चले जाने से कोई पाप नहीं लगता।
कबीर गुरू दयाल तो पुरूष दयाल। जेहि गुरू व्रत छुए नहीं काल।।
भावार्थ:- हे धर्मदास! यदि गुरू शिष्य के प्रति दयाल है यानि गुरू के दिल में शिष्य की अच्छी छवि है, मर्यादा में रहता है तो परमात्मा भी उस भक्त के ऊपर प्रसन्न है। अन्यथा उपरोक्त कष्ट शिष्य को भोगने पड़ेंगे।
पृष्ठ 160 का सारांश:-
इस पृष्ठ पर कुछ गुरू महिमा है तथा कोयल की चाणक्य नीति का ज्ञान है।
काल का जीव सतगुरू ज्ञान नहीं मानता
“कोयल-काग“ का उदाहरण:- कोयल पक्षी कभी अपना भिन्न घौंसला बना कर अण्डे-बच्चे पैदा नहीं करती। कारण यह कि कोयल के अण्डों को कौवा (crow) खा जाता है। इसलिए कोयल को ऐसी नीति याद आई कि जिससे उसके अण्डों को हानि न हो सके। कोयल जब अण्डे उत्पन्न करती है तो वह ध्यान रखती है कि कहाँ पर कौवी (female crow) ने अपने घौंसले में अण्डे उत्पन्न कर रखे हैं। जिस समय कौवी पक्षी भोजन के लिए दूर चली जाती है तो पीछे से कोयल उस कौवी के घौंसले में अण्डे पैदा कर देती है और दूर वृक्ष पर बैठ जाती है या आस-पास रहेगी। जिस समय कौवी घौंसले में आती है तो वह दो के स्थान पर चार अण्डे देखती है। वह नहीं पहचान पाती कि तेरे अण्डे कौन से हैं, अन्य के कौन-से हैं? इसलिए वह चारों अण्डों को पोषण करके बच्चे निकाल देती है। कोयल भी आसपास रहती है। अब कोयल भी अपने बच्चों को नहीं पहचानती है क्योंकि सब बच्चों का एक जैसा रंग (काला रंग) होता है। जिस समय बच्चे उड़ने लगते हैं, तब कोयल निकट के अन्य वृक्ष पर बैठकर कुहु-कुहु की आवाज लगाती है। कोयल की बोली कोयल के बच्चों को प्रभावित करती है, कौवे वाले मस्त रहते हैं। कोयल की आवाज सुनकर कोयल के बच्चे उड़कर कोयल की ओर चल पड़ते हैं। कोयल कुहु-कुहु करती हुई दूर निकल जाती है, साथ ही कोयल के बच्चे भी आवाज से प्रभावित हुए कोयल के पीछे-पीछे दूर चले जाते हैं। कौवी विचार करती है कि ये तो गए सो गए, जो घौंसले में हैं उनको संभालती हूँ कि कहीं कोई पक्षी हानि न कर दे। यह विचार करके कौवी लौट आती है। इस प्रकार कोयल के बच्चे अपने कुल परिवार में मिल जाते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास को समझाया है कि हे धर्मदास! तेरा पुत्र नारायण दास काग यानि काल का बच्चा है। उसके ऊपर मेरे प्रवचनों का प्रभाव नहीं पड़ा। आप दयाल (करूणामय सतपुरूष) के अंश हो। आपके ऊपर मेरी प्रत्येक वाणी का प्रभाव हुआ और आप खींचे चले आए। काल के अंश नारायण दास पर कोई असर नहीं हुआ। यही कहानी प्रत्येक परिवार में घटित होती है। जो अंकुरी हंस यानि पूर्व जन्म के भक्ति संस्कारी जो किसी जन्म में सतगुरू कबीर जी के सत्य कबीर पंथ में दीक्षित हुए थे, परंतु मुक्त नहीं हो सके। वे किसी परिवार में जन्मे हैं, सतगुरू की कबीर जी की वाणी सुनते ही तड़फ जाते हैं। आकर्षित होकर दीक्षा प्राप्त करके शिष्य बनकर अपना कल्याण कराते हैं। उसी परिवार में कुछ ऐसे भी होते हैं जो बिल्कुल नहीं मानते। अन्य जो दीक्षित सदस्य हैं, उनका भी विरोध तथा मजाक करते हैं। वे काल के अंश हैं। वे भी नारायण दास की तरह काल के दूतों द्वारा प्रचलित साधना ही करते हैं।
पृष्ठ 161 अनुराग सागर का सारांश:-
कबीर परमात्मा ने कहा कि हे धर्मदास! जिस प्रकार शूरवीर तथा कोयल के सुत (बच्चे) चलने के पश्चात् पीछे नहीं मुड़ते। इस प्रकार यदि कोई मेरी शरण में इस प्रकार धाय (दौड़कर) सब बाधाओं को तोड़कर परिवार मोह छोड़कर मिलता है तो उसकी एक सौ एक पीढ़ियों को पार कर दूँगा।
कबीर, भक्त बीज होय जो हंसा। तारूं तास के एकोतर बंशा।।
कबीर, कोयल सुत जैसे शूरा होई। यही विधि धाय मिलै मोहे कोई।।
निज घर की सुरति करै जो हंसा। तारों तास के एकोतर बंशा।।
हंस (भक्त) लक्षण
काग जैसी गंदी वृत्ति को त्याग देता है तो वह हंस यानि भक्त बनता है। काग (कौवा) निज स्वार्थ पूर्ति के लिए दूसरों का अहित करता है। किसी पशु के शरीर पर घाव हो जाता है तो कौवा उस घाव से नौंच-नौंचकर माँस खाता है, पशु की आँखों से आँसू ढ़लकते रहते हैं। कौए की बोली भी अप्रिय होती है। हसं को चाहिए कि अपनी कौए वाला स्वभाव त्यागे। निज स्वार्थवश किसी को कष्ट न देवे। कोयल की तरह मृदु भाषा बोले। ये लक्षण भक्त के होते हैं।
ज्ञानी यानि सत्संगी के लक्षण
सतगुरू का ज्ञान तथा दीक्षा प्राप्त करके यदि शिष्य जगत भाव में चलता है, वह मूर्ख है। वह भक्ति लाभ से वंचित रह जाता है। वह भक्ति में आगे नहीं बढ़ पाते। वे सार शब्द प्राप्ति योग्य नहीं बन पाते। यदि अंधे व्यक्ति का पैर बिष्टे (टट्टी) या गोबर पर रखा जाता है तो उसका कोई मजाक नहीं करता। कोई उसकी हाँसी नहीं करता। यदि आँखों वाला कुठौर (गलत स्थान पर) जाता है (परनारी गमन, चोरी करना, मर्यादा तोड़ना, वर्जित वस्तु तथा साधना का प्रयोग करना कुठौर कहा है।) तो निंदा का पात्र होता है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 162 तथा 163 का सारांश:-
भक्त परमार्थी होना चाहिए
जैसे गाय स्वयं तो जंगल में खेतों में घास खाकर आती है। स्वयं जल पीती है। मानव को अमृत दूध पिलाती है। उसके दूध से घी बनता है। गाय सुत यानि गाय का बच्छा हल में जोता जाता है। इंसान का पोषण करता है। गाय का गोबर भी मनुष्य के काम आता है। मृत्यु उपरांत गाय के शरीर के चमड़े से जूती बनती हैं जो मानव के पैरों को काँटों-कंकरों से रक्षा करती है।मानव जन्म प्राप्त प्राणी परमार्थ न करके भक्ति से वंचित रहकर पाप करने में अनमोल जीवन नष्ट कर जाता है। माँसाहारी नर राक्षस की तरह गाय को मारकर उसके माँस को खा जाता है। महापाप का भागी बनता है। इस सम्बन्ध की परमेश्वर कबीर जी की निम्न वाणी पढ़ें:-
परमार्थी गऊ का दृष्टांत
गऊको जानु परमार्थ खानी। गऊ चाल गुण परखहु ज्ञानी।।
आपन चरे तृण उद्याना। अँचवे जल दे क्षीर निदाना।।
तासु क्षीर घृत देव अघाहीं। गौ सुत नर के पोषक आहीं।।
विष्ठा तासु काज नर आवे। नर अघ कर्मी जन्म गमावे।।
टीका पुरे तब गौ तन नासा। नर राक्षस गोतन लेत ग्रासा।।
चाम तासु तन अति सुखदाई। एतिक गुण इक गोतन भाई।।
परमार्थी संत लक्षण
गौ सम संत गहै यह बानी। तो नहिं काल करै जिवहानी।।
नरतन लहि अस बु़द्धी होई। सतगुरू मिले अमर ह्नै सोई।।
सुनि धर्मनि परमारथ बानी। परमारथते होय न हानी।।
पद परमारथ संत अधारा। गुरू सम लेई सो उतरे पारा।।
सत्य शब्द को परिचय पावै। परमारथ पद लोक सिधावै।।
सेवा करे विसारे आपा। आपा थाप अधिक संतापा।।
यह नर अस चातुर बुद्धिमाना। गुन सुभ कर्म कहै हम ठाना।।
ऊँचा कर्म अपने सिर लीन्हा। अवगुण कर्म पर सिर दीन्हा।।
तात होय शुभ कर्म विनाशा। धर्मदास पद गहो विश्वासा।।
आशा एक नामकी राखे। निज शुभकर्म प्रगट नहिं भाखे।।
गुरूपद रहे सदा लौ लीना। जैसे जलहि न विसरत मीना।।
गुरू के शब्द सदा लौ लावे। सत्यनाम निशदिन गुणगावे।।
जैसे जलहि न विसरे मीना। ऐसे शब्द गहे परवीना।।
पुरूष नामको अस परभाऊ। हंसा बहुरि न जगमहँ आऊ।।
निश्चय जाय पुरूष के पासा। कूर्मकला परखहु धर्मदासा।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी के माध्यम से मानव मात्र को संदेश व निर्देश दिया है। कहा है कि मानव को गाय की तरह परमार्थी होना चाहिए। जिनको सतगुरू मिल गया है, वे तो अमर हो जाएंगे। घोर अघों (पापों) से बच जाएंगे, सेवा करें तो अपनी महिमा की आशा न करें। यदि अपने आपको थाप (मान-बड़ाई के लिए अपने आपको महिमावान मान) लेगा तो उसको अधिक कष्ट होगा। शुभ कर्म नष्ट हो जाएंगे।
उपदेशी केवल एक नाम की आशा रखे। मान-बड़ाई की चाह हृदय से त्याग दे। अपने शुभ कर्म (दान या अन्य सेवा) किसी के सामने न बताए। गुरू जी के पद (चरण) यानि गुरू की शरण में ऐसे रहे जैसे जल में मीन रहती है। मछली एक पल भी पानी के बिना नहीं रह सकती। तुरंत मर जाती है। ऐसे गुरू की शरण को महत्त्व देवे। गुरू जी द्वारा दिए शब्द यानि जाप मंत्र (सतगुरू शब्द) जो सत्यनाम है यानि वास्तविक भक्ति मंत्र में सदा लीन रहे जो पुरूष (परमात्मा) का भक्ति मंत्र है, उसका ऐसा प्रभाव है, उसमें इतनी शक्ति है कि साधक पुनः संसार में जन्म-मरण के चक्र में नहीं आता। वह वहाँ चला जाता है जो सनातन परम धाम, जहाँ परम शांति है। जहाँ जाने के पश्चात् साधक कभी लौटकर संसार में नहीं आता।
यही प्रमाण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम (शाश्वतम् स्थानम्) को प्राप्त होगा।(अध्याय 18 श्लोक 62) गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि तत्त्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर कभी संसार में नहीं आता। जिस परमेश्वर ने संसार रूपी वृक्ष की रचना की है, उसी की भक्ति करो।(अध्याय 15 श्लोक 4)
गीता ज्ञान दाता ने अपनी नाशवान अर्थात् जन्म-मरण की स्थिति गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, 9 में तथा अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट ही रखी है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। पाठकजनो! गीता से स्पष्ट हुआ कि गीता ज्ञान दाता (काल ब्रह्म है जो श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोल रहा था) नाशवान है, जन्म-मरण के चक्र में है तो उसके उपासक की भी यही स्थिति होती है। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णित लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि गीता ज्ञान दाता कोई अन्य समर्थ तथा सर्व लाभदायक परमेश्वर हैं जिनकी शरण में जाने के लिए गीता ज्ञान दाता यानि काल ब्रह्म ने कहा है। वह परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी हैं। उन्होंने अपनी महिमा स्वयं ही कही है जो आप जी कबीर सागर में पढ़ रहे हैं। परमेश्वर ने अनुराग सागर पृष्ठ 13 पर कहा कि सत्य पुरूष द्वारा रची सृष्टि के विषय में बताई कथा का साक्षी किसको बनाऊँ क्योंकि सबकी उत्पत्ति बाद में हुई है। पहले अकेले सतपुरूष थे। यहाँ पर विवेक करने की बात यह है कि कबीर जी को ज्ञान कहाँ से हुआ? जब सृष्टि रचना के समय कोई नहीं था। इससे स्वसिद्ध है कि ये स्वयं पूर्ण परमात्मा सृष्टि के सृजनहार हैं। जिन महान आत्माओं को परमेश्वर कबीर जी मिले हैं, उन्होंने भी यही साक्ष्य दिया है कि:-
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का, एक रति नहीं भार।
सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजनहार।।
भावार्थ इस वाणी से ही स्पष्ट है।
‘‘कूर्म कला परखो धर्मदासा‘‘ का भावार्थ है कि जैसे कूर्म यानि कच्छवा आपत्ति के समय अपने मुख तथा पैरों को अपने अंदर छुपाकर निष्क्रिय हो जाता है। आपत्ति टलने के तुरंत पश्चात् अपने मार्ग पर चल देता है। इसी प्रकार भक्त को चाहिए कि यदि सांसारिक व्यक्ति आपके भक्ति मार्ग में बाधा उत्पन्न करे तो उसको उलटकर जवाब न देकर अपनी भक्ति को छुपाकर सुरक्षित रखे। सामान्य स्थिति होते ही फिर उसी गति से साधना करे। इस प्रकार करने से ‘‘निश्चय जाय पुरूष के पासा‘‘ वह साधक परमात्मा के पास अवश्य चला जाएगा।
अनुराग सागर पृष्ठ 163 (281) पर:-
सोरठा:- हंस तहां सुख बिलसहीं, आनन्द धाम अमोल।
पुरूष तनु छवि निरखहिं, हंस करें किलोल।।
भावार्थ:- उपरोक्त ज्ञान के आधार से साधना करके साधक अमर धाम में चला जाता है। वहाँ पर आनन्द भोगता है। वह सतलोक बेसकीमती है। वहाँ पर सत्यपुरूष के शरीर की शोभा देखकर आनन्द मनाते हैं।
कबीर सागर के अध्याय अनुराग सागर का सारांश सम्पूर्ण हुआ।